30 सितम्बर, 2018
सबरीमाला मंदिर में महिलाओं का प्रवेश रोकने के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट का निर्णय आना निश्चित रूप से सराहनीय है। किसी महिला को सिर्फ इसलिए मंदिर प्रवेश से रोका जाए कि वह रजस्वला होती है ,नितांत अतार्किक है।
एक तरफ कामाख्या देवी मंदिर में जहाँ सती मां की योनि की पूजा स्वयं पुरुष पुजारियों द्वारा होती है, विशेष दिनों में रक्त से भीगे लाल रंग के कपड़े भक्तों के बीच प्रसाद के रूप में बांटे जाते हैं, वहाँ किसी को कोई परेशानी नहीं होती है।
यदि महिलाएं रजस्वला होती हैं तो क्या पुरुषों को स्वप्नदोष नहीं होता है।पुरूषों नें स्वयं ही मान लिया कि स्वप्नदोष होने पर भी वह पवित्र है और महिलाएं रजस्वला होने के नाते अपवित्र ।क्या इंसानी रक्त ,मल- मूत्र से भी अधिक अपवित्र है।क्या पुरुष मल -मूत्र विसर्जन नहीं करते हैं। हमारे शरीर के किसी अंग में चोट लगनें के फलस्वरूप यदि रक्त स्राव होता है तो हम उसे अपवित्र नहीं मानते हैं। आखिर पुरुषों का वीर्य भी उनके लिंग से ही निकलता है तो उसे अपवित्र क्यों ना माना जाए?
एक पल को मान भी लें कि भगवान अयप्पा ब्रह्मचारी थे और वहाँ महिलाओं का प्रवेश वर्जित है। तो क्या महिलाएं वहां भगवान अयप्पा को अपने पिता के रूप में भी नहीं देख सकती हैं?
एक बार को यह भी मान लें कि महिलाएं मासिक धर्म के दौरान अपवित्र होती हैं। गंगा में नहा कर लोग अपने आप को पाप मुक्त मान लेते हैं, तो क्या भगवान जैसी हस्ती अपवित्र महिलाओं के मंदिर प्रवेश मात्र से अपवित्र हो जाएगी? क्या भगवान के सानिध्य में अपवित्र महिलाएं भी पवित्र नहीं हो जाती हैं?
महिलाएं तो स्वयं अपने बनाए कटघरे में कैद हैं। उनके दिमाग में शुरू से ही है कूट-कूट कर भर दिया जाता है कि मासिक के दौरान वो अपवित्र होती हैं, भगवान को छू नहीं सकती हैं ,मंदिर नहीं जा सकती हैं, ऐसे में महिलाओं को स्वयं अपनी वर्जनाएं तोड़ने में ही बहुत वक्त लगेगा।
कभी खाली बैठियेगा तो जरूर सोचियेेगा....
नूपुर श्रीवास्तव
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