30 सितम्बर, 2018
कोई तुकबंदी नहीं बनी शीर्षक में। बस जनमानस का ध्यान खींचने की कोशिश कर रहा हूँ। लखनऊ में बीती रात हुई घटना से स्तब्ध हूँ। जिस तरह की खबर आ रही है कि एक पुलिस वाले ने एक कार वाले को गोली मार दी। आरोपी की अपनी दलीलें हैं और चश्मदीद की अपनी सच्चाई। मुझे नहीं पता कि हकीकत क्या है, कौन सही है कौन गलत। लेकिन मानव मन व्यथित हो उठता है इस तरह की घटना को सुनकर। क्या इतना आसान हो गया है किसी को गोली मार देना किसी पुलिस वाले के लिए ? सुनता आया हूँ कि किसी भी पुलिस वाले के लिए किसी अपराधी पर गोली चलाना आखिरी विकल्प होता है। लेकिन क्या इस घटना में या आखिरी विकल्प के रूप में प्रयोग हुआ ? यह सब जाँच का विषय है। कौन सही है कौन गलत, यह जाँच में पता चलेगा। अदालत तय करेगी कि कौन दोषी है, मरने वाला या मारने वाला।
लेकिन हकीकत यह है कि आज एक हँसते - खेलते परिवार पर अचानक से दुःखों का पहाड़ टूट पड़ा है। इस घटना को यहीं छोड़कर आगे बात करें (क्योंकि यह जाँच का विषय है, जाँच चल रही है ), तब भी हर दूसरे तीसरे दिन पुलिस वालों द्वारा कानून अपने हाथ में लिए जाने की खबर आती रहती है। हिरासत में मौत की भी खबर आती है, हिरासत में लिए गए व्यक्ति की जमकर पिटाई की भी खबर आती है। सरेआम सड़क पर भी पुलिस द्वारा बेरहमी से पिटाई की खबर आती रहती है। मन सोचने को मजबूर होता है कि क्या हो गया है हमारे रक्षक को आज ? क्यों इस तरह से व्यवहार करने लगे हैं पुलिस वाले ? क्या अथाह और असीमित अधिकार मिल जाने से पुलिस निरंकुश हो रही है ? पुलिस में अच्छे लोगों की संख्या ज्यादा है, कुछ ही लोग ऐसे हैं जो इस तरह के कृत्य करते हैं।
लेकिन इस तरह के लोग एक अच्छे महकमे की बदनामी का कारण बनते हैं। क्यों नहीं पुलिस वालों पर सख्ती लगाई जाती है ? क्यों नहीं इनके असीमित अधिकारों में कटौती की जाती है ? क्यों नहीं मानवधिकार को मजबूत बनाया जाता है ? क्यों नहीं किसी पुलिस वाले के गैर जिम्मेदाराना व्यवहार को गंभीरता से लिया जाता है ? ठीक है कि पुलिस हमारी रक्षा के लिए है, उसका सम्मान होना चाहिए। लेकिन जब रक्षक ही भक्षक बन जाए तो ?
ये लोकतंत्र के लिए अच्छी बात नहीं।