यूँ तो राजनीति अनिश्चितताओं का खेल है लेकिन इतनी अनिश्चितता ? जी हाँ मैं पूर्व क्रिकेटर, पूर्व लोकसभा सांसद, पूर्व राज्यसभा सांसद, भारतीय जनता पार्टी नेता, क्रिकेट कॉमेंटेटर एवं टीवी का चर्चित चेहरा नवजोत सिंह सिद्धू की ही बात कर रहा हूँ। अभी पिछले ही दिनों उन्होंने अपनी नई राजनीतिक पार्टी बनाई है। होता भी है, समाज सेवा की तलब जब हद से ज्यादा बढ़ जाती है और कहीं से भी कोई साथ नहीं मिलता तो अपनी पार्टी ही बनानी पड़ती है। अपनी पार्टी को "छोड़कर" नई पार्टी बनाना कोई नई बात नहीं है राजनीति में। इससे पहले भी कल्याण सिंह, मुलायम सिंह यादव और अजित सिंह उत्तरप्रदेश में, चंद्र बाबु नायडू आंध्र प्रदेश में, नवीन पटनायक ओडिसा में, लालू प्रसाद यादव, जार्ज फर्नांडीज, राम विलास पासवान और जीतनराम मांझी बिहार में, ममता बनर्जी पश्चिम बंगाल में मूल पार्टी से अलग होकर अपनी नई पार्टी बना चुके हैं ।
जो भी नई राजनीतिक पार्टी बनी है, पुरानी पार्टी से टूट कर ही बनी है। सिर्फ आम आदमी पार्टी को छोड़कर, इसके संयोजक अरविन्द केजरीवाल किसी भी पार्टी के सदस्य नहीं रहे अतीत में। चलिए, एक और नई पार्टी बन गई, "आवाज - ए - पंजाब" । इस तरह काफी दिनों से चल रही अटकलों को विराम भी लग गया। काफी दिनों से चर्चा थी कि सिद्धू आम आदमी पार्टी में शामिल होने वाले हैं, आम आदमी पार्टी उनको पंजाब का मुख्य मंत्री उम्मीदवार घोषित कर सकती है। इन सभी आशंकाओं को सबसे ज्यादा बल तब मिला जब उन्होंने राज्य सभा की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया। अब तो पक्का सा ही लगने लगा कि सिद्धू आम आदमी पार्टी में अब गए, तब गए। बस घोषणा नहीं हो रही थी। बड़ा संशय हो रहा था।
अब सिद्धू ने अपनी नई पार्टी बनाकर कर साफ़ कर दिया कि वो किसी पार्टी में नहीं जा रहे, अपनी पार्टी में भी नहीं रह रहे (उन्होंने भारतीय जनता पार्टी से अभी तक इस्तीफा नहीं दिया है)। लेकिन एक बात मेरे तुच्छ दिमाग में नहीं समझ नहीं आ रही कि उन्होंने भारतीय जनता पार्टी से अभी तक इस्तीफा क्यों नहीं दिया ? अगर इतना ही मोह अपनी पार्टी से है तो नई पार्टी क्यों बनाई ? रहते भारतीय जनता पार्टी में ही खुशी-खुशी। राज्यसभा की सदस्यता से इस्तीफा देने में तो बड़ी जल्दी दिखाई थी, जबकि वो नॉमिनेटेड सदस्य थे। इस्तीफा देने के बाद उन्होंने प्रेस कांफ्रेंस की और इल्जाम लगाए थे कि भारतीय जनता पार्टी उनको पंजाब से "दूर" रखना चाहती थी।अब एक नॉमिनेटेड सदस्य को किसी राजनीतिक पार्टी की क्या बाध्यता ?
वैसे, क्या कोई व्यक्ति किसी राजनीतिक पार्टी का सदस्य होते हुए स्पोर्ट्स की हस्ती के रूप में राज्य सभा की सदस्यता के लिए अनुशंसित किया जा सकता है ? संविधान की भावना ये नहीं रही होगी कि विभिन्न विधाओं में पारंगत व्यक्तियों को राज्यसभा सदस्य बनाया जाए, राजनीतिक लोग तो बनते ही रहते हैं ? लेकिन सत्ताधारी पार्टी जो चाहे कर सकती है। खैर, सिद्धू ने एक बार फिर प्रेस कांफ्रेंस की और अपनी बात खुल कर रखी, नई पार्टी लांच करते हुए। खूब हमले किए भारतीय जनता पार्टी और आम आदमी पार्टी पर। उन्होंने कहा कि 2 साल पहले मैंने राज्यसभा की सदस्यता ठुकराई थी, पार्टी की तरफ से। तो इस साल स्वीकारने की क्या मजबूरी थी ? और फिर थोड़े महीने बाद ही इस्तीफा देने की क्या मजबूरी थी ?
जितनी भी बात उन्होंने "आप" या केजरीवाल के बारे में कही, कोई नई बात नहीं कही, विरोधी यही कहते रहे हैं । कह रहे थे कि "आप" को जी हुजूरी वाले लोग चाहिए। किस पार्टी को नहीं चाहिए ? पार्टी के सिद्धांत से इतर राय रखने वाले लोग पार्टी में कैसे रह पाएंगे ? जब तक कोई व्यक्ति पार्टी से सहमत होता है तभी तक पार्टी में रहता है न ? उन्होंने कहा कि केजरीवाल को लगता है कि वो ही सबसे ईमानदार हैं। केजरीवाल ही नहीं उनके समर्थकों और वोटरों को भी यही लगता होगा। तभी तो उनके साथ हैं और वोट देते हैं। सिद्धू को भी यही लगा होगा तभी उसके साथ आने के लिए सोचा होगा, वरना बे-ईमान के साथ वो क्यों जाएंगे ? कह रहे थे कि चार बार का एमपी मैदान कैसे छोड़ दे ? चार बार का एमपी विधायक बने ? फिर उसके बाद पार्षद बने ? फिर पंचायत का मुखिया बने ? यही चाहते थे सिद्धू ?
एक पार्टी छोड़कर दूसरी पार्टी में जाना या फिर नई पार्टी बनाना कोई बुरी बात नहीं, लेकिन तर्क तो हो। एमपी विधायक बनना क्यों चाहेगा ? निश्चित तौर पर मंत्री या मुख्यमंत्री ही बनना चाहेगा। कौन प्रचार करेगा, कौन चुनाव लड़ेगा ये पार्टी ही तय ही करेगी न ? चाहे भारतीय जनता पार्टी हो या कांग्रेस या कोई और दल, पार्टी का अनुशासन सबको मानना पड़ता है। जिसको पार्टी की बात अच्छी नहीं लगती वो या तो निकल जाते हैं या फिर निकाले जाते हैं। पार्टी से निकलने या निकाले जाने वाले कभी भी पार्टी की प्रशंसा तो करेंगे नहीं। पार्टी लांचिंग के मौकै पर सिर्फ आरोप, पार्टी की कोई ठोस रणनीति की कोई घोषणा नहीं। पूरा सारांश ये कि भाजपा ने मुझे पंजाब से दूर रखने की कोशिश की तो मैंने राज्यसभा की सदस्यता छोड़ दी, अरविन्द केजरीवाल बड़े निरंकुश हैं, चुनाव नहीं लड़ने दिया तो आम आदमी पार्टी ज्वाइन नहीं की।
अब मुझे ये समझ नहीं आ रहा कि ऐसे तर्कों को सुनकर ताली ठोकूं या माथा पीटूँ ?
जो भी नई राजनीतिक पार्टी बनी है, पुरानी पार्टी से टूट कर ही बनी है। सिर्फ आम आदमी पार्टी को छोड़कर, इसके संयोजक अरविन्द केजरीवाल किसी भी पार्टी के सदस्य नहीं रहे अतीत में। चलिए, एक और नई पार्टी बन गई, "आवाज - ए - पंजाब" । इस तरह काफी दिनों से चल रही अटकलों को विराम भी लग गया। काफी दिनों से चर्चा थी कि सिद्धू आम आदमी पार्टी में शामिल होने वाले हैं, आम आदमी पार्टी उनको पंजाब का मुख्य मंत्री उम्मीदवार घोषित कर सकती है। इन सभी आशंकाओं को सबसे ज्यादा बल तब मिला जब उन्होंने राज्य सभा की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया। अब तो पक्का सा ही लगने लगा कि सिद्धू आम आदमी पार्टी में अब गए, तब गए। बस घोषणा नहीं हो रही थी। बड़ा संशय हो रहा था।
अब सिद्धू ने अपनी नई पार्टी बनाकर कर साफ़ कर दिया कि वो किसी पार्टी में नहीं जा रहे, अपनी पार्टी में भी नहीं रह रहे (उन्होंने भारतीय जनता पार्टी से अभी तक इस्तीफा नहीं दिया है)। लेकिन एक बात मेरे तुच्छ दिमाग में नहीं समझ नहीं आ रही कि उन्होंने भारतीय जनता पार्टी से अभी तक इस्तीफा क्यों नहीं दिया ? अगर इतना ही मोह अपनी पार्टी से है तो नई पार्टी क्यों बनाई ? रहते भारतीय जनता पार्टी में ही खुशी-खुशी। राज्यसभा की सदस्यता से इस्तीफा देने में तो बड़ी जल्दी दिखाई थी, जबकि वो नॉमिनेटेड सदस्य थे। इस्तीफा देने के बाद उन्होंने प्रेस कांफ्रेंस की और इल्जाम लगाए थे कि भारतीय जनता पार्टी उनको पंजाब से "दूर" रखना चाहती थी।अब एक नॉमिनेटेड सदस्य को किसी राजनीतिक पार्टी की क्या बाध्यता ?
वैसे, क्या कोई व्यक्ति किसी राजनीतिक पार्टी का सदस्य होते हुए स्पोर्ट्स की हस्ती के रूप में राज्य सभा की सदस्यता के लिए अनुशंसित किया जा सकता है ? संविधान की भावना ये नहीं रही होगी कि विभिन्न विधाओं में पारंगत व्यक्तियों को राज्यसभा सदस्य बनाया जाए, राजनीतिक लोग तो बनते ही रहते हैं ? लेकिन सत्ताधारी पार्टी जो चाहे कर सकती है। खैर, सिद्धू ने एक बार फिर प्रेस कांफ्रेंस की और अपनी बात खुल कर रखी, नई पार्टी लांच करते हुए। खूब हमले किए भारतीय जनता पार्टी और आम आदमी पार्टी पर। उन्होंने कहा कि 2 साल पहले मैंने राज्यसभा की सदस्यता ठुकराई थी, पार्टी की तरफ से। तो इस साल स्वीकारने की क्या मजबूरी थी ? और फिर थोड़े महीने बाद ही इस्तीफा देने की क्या मजबूरी थी ?
जितनी भी बात उन्होंने "आप" या केजरीवाल के बारे में कही, कोई नई बात नहीं कही, विरोधी यही कहते रहे हैं । कह रहे थे कि "आप" को जी हुजूरी वाले लोग चाहिए। किस पार्टी को नहीं चाहिए ? पार्टी के सिद्धांत से इतर राय रखने वाले लोग पार्टी में कैसे रह पाएंगे ? जब तक कोई व्यक्ति पार्टी से सहमत होता है तभी तक पार्टी में रहता है न ? उन्होंने कहा कि केजरीवाल को लगता है कि वो ही सबसे ईमानदार हैं। केजरीवाल ही नहीं उनके समर्थकों और वोटरों को भी यही लगता होगा। तभी तो उनके साथ हैं और वोट देते हैं। सिद्धू को भी यही लगा होगा तभी उसके साथ आने के लिए सोचा होगा, वरना बे-ईमान के साथ वो क्यों जाएंगे ? कह रहे थे कि चार बार का एमपी मैदान कैसे छोड़ दे ? चार बार का एमपी विधायक बने ? फिर उसके बाद पार्षद बने ? फिर पंचायत का मुखिया बने ? यही चाहते थे सिद्धू ?
एक पार्टी छोड़कर दूसरी पार्टी में जाना या फिर नई पार्टी बनाना कोई बुरी बात नहीं, लेकिन तर्क तो हो। एमपी विधायक बनना क्यों चाहेगा ? निश्चित तौर पर मंत्री या मुख्यमंत्री ही बनना चाहेगा। कौन प्रचार करेगा, कौन चुनाव लड़ेगा ये पार्टी ही तय ही करेगी न ? चाहे भारतीय जनता पार्टी हो या कांग्रेस या कोई और दल, पार्टी का अनुशासन सबको मानना पड़ता है। जिसको पार्टी की बात अच्छी नहीं लगती वो या तो निकल जाते हैं या फिर निकाले जाते हैं। पार्टी से निकलने या निकाले जाने वाले कभी भी पार्टी की प्रशंसा तो करेंगे नहीं। पार्टी लांचिंग के मौकै पर सिर्फ आरोप, पार्टी की कोई ठोस रणनीति की कोई घोषणा नहीं। पूरा सारांश ये कि भाजपा ने मुझे पंजाब से दूर रखने की कोशिश की तो मैंने राज्यसभा की सदस्यता छोड़ दी, अरविन्द केजरीवाल बड़े निरंकुश हैं, चुनाव नहीं लड़ने दिया तो आम आदमी पार्टी ज्वाइन नहीं की।
अब मुझे ये समझ नहीं आ रहा कि ऐसे तर्कों को सुनकर ताली ठोकूं या माथा पीटूँ ?
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