22 अगस्त, 2016
बिहार में लगभग 1 साल से मंगलराज चल रहा है। बड़े और छोटे भाई की मिली-जुली सरकार है जिसके मुखिया छोटे भाई हैं, कांग्रेस तो बड़े भाई के साथ पहले भी रह चुकी है। वैसे तो 1990 से ही इन भाइयों की सरकार रही है। कभी लालू जी मुख्यमंत्री बने कभी राबड़ी जी तो कभी नीतीश जी, लगभग 1 साल के लिए जीतन राम माझी जी भी मुख्यमंत्री थे। 2005 में जब नीतीश जी मुख्यमंत्री बने तो बड़े भैया एवं भाभी के शासन काल को खूब कोस कर सत्ता में आए थे। तब वो भाजपा के साथ गठबंधन में सरकार के मुखिया थे। 1990 से आज तक करीब 26 साल से इन दोनों भाइयों की सरकार रही है, लेकिन बिहार की दुर्दशा में कोई ज्यादा कमी नहीं आई है। मजे की बात ये है कि जितना भी विकास कार्य हुआ है इसका श्रेय लेने में दोनों भाई पीछे कभी नहीं हटते लेकिन जहाँ जहाँ ये कुछ नहीं कर पाए हैं, जिस भी क्षेत्र में प्रगति नहीं हुई है उसका बड़ी बखूबी से दूसरे के सिर पर ठीकरा फोड़ देते हैं।
बिहार में स्वास्थ्य सेवा की दुर्दशा किसी से छिपी नहीं है। लोग बीमार पड़ते ही निजी क्लिनिकों की तरफ रुख करते हैं। सरकारी अस्पताल या प्राथमिक सेवा केंद्र में जाना किसी के दिमाग में भी कभी नहीं आता है। बीमार व्यक्ति एवं उसके परिजन के दिमाग में सिर्फ और सिर्फ अच्छा इलाज पाना होता है, खर्च नहीं देखते बीमारी के समय। लोग इलाज करवा करवा के कंगाल हो रहे हैं और ये निजी क्लिनिक और अस्पताल वाले मालामाल हो रहे हैं। कारण, सरकार द्वारा उपलब्ध स्वास्थ्य सेवा सस्ती या फिर मुफ्त तो है लेकिन गुणवत्ता के मामले में बिलकुल जीरो है। कुछ लोग ज्यादा पैसे खर्च नहीं कर पाने की स्थिति में सरकारी अस्पतालों या स्वास्थ्य सेवा केंद्रों कर रुख करते भी हैं तो उनका अनुभव ऐसा ही होता है कि "मर्ज बढ़ता गया ज्यों-ज्यों दवा की"।
ऐसा नहीं है कि सरकार के पास खर्च करने के लिए पैसा नहीं है। स्वास्थ्य सेवा पर सरकार खूब पैसा खर्च कर रही है। डॉक्टरों, नर्सों, एवं गैर चिकित्सीय कर्मचारियों के वेतन और भत्तों पर पैसा पानी की तरह बहा रही है सरकार। यहाँ तक कि बिजली न रहने की स्थिति में रोगियों के इलाज , उनके देख-रेख में कोई परेशानी नहीं आये इसके लिए जेनरेटर एवं डीजल के पैसे भी खर्च करती है सरकार। लेकिन जनता को इसका कोई फायदा नहीं मिल पा रहा है। कभी डॉक्टर नदारद तो कभी दवाई ही मौजूद नहीं। कभी मेहरबानी करके डॉक्टर साहेब आ भी गए तो कर्मचारियों का व्यवहार ऐसा होता है कि लोग हारकर निजी क्लिनिक का ही रुख करते हैं।
अगर सरकारी स्वास्थ्य सेवा अच्छी होती तो लोग निजी क्लिनिकों और अस्पतालों में जाकर पैसा क्यों खर्च करते ? दोनों भाइयों के 26 साल से ज्यादा के शासन काल के बावजूद अगर बिहार की जनता को स्वास्थ्य लाभ के लिए निजी क्लिनिकों और अस्पतालों में जाना पड़ता है तो ये किसकी असफलता है ? कभी किसी डॉक्टर के निजी क्लिनिक का भ्रमण कर लीजिए। मरीजों की ऐसी भीड़ लगी होती है जैसे वहाँ मुफ्त की खैरात बाँटी जा रही हो। ऐसी भीड़ सरकारी अस्पतालों एवं प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों पर लगनी चाहिए।
निजी क्लिनिकों एवं अस्पतालों में मरीजो को आराम तो मिलता है लेकिन आर्थिक दोहन भी कम नहीं होता। मनमाने फ़ीस लेते हैं ये लोग। गैर-जरूरी जाँच भी खूब करवाये जाते हैं। अभी कुछ दिनों पहले ही खबर आई थी कि एक निजी अस्पताल में मरीज की मृत्यु के बाद भी सिर्फ बिल बढ़ाने के उद्देश्य से उसका इलाज जारी रखा जा रहा था। शिक्षित चिकित्सकों की क्या कहिए ऐसे झोला छाप डॉक्टर भी जिनको बीमारी और दवाओं में प्रयुक्त रसायनों के बारे में कोई प्रामाणिक ज्ञान नहीं है वो भी चाँदी काट रहे हैं।
यूँ तो साल के बारहो महीनो इनके लिए कमाई का ही मौसम रहता है लेकिन मानसून के महीनों में तो निजी क्लिनिकों और अस्पतालों तथा झोला छाप डॉक्टरों के लिए जैसे बसंत का मौसम आ जाता है। खूब कमाई होती है इनकी। सरकार सरकारी अस्पतालों की स्थिति सुधारने में कड़ाई क्यों नहीं बरतती ? वैसे बिहार के ज्यादा राजनेताओं के बच्चे बच्चियाँ डॉक्टर ही हैं। इनमें से बहुतों के निजी अस्पताल भी हैं। फिर यहाँ तो हितों का टकराव का ही मामला है। अगर सरकारी अस्पताल स्वस्थ हो जाए तो निजी क्लिनिक और अस्पताल बीमार नहीं हो जाएंगे ?
लोग निजी क्लिनिकों और अस्पतालों के हाथों लुट रहे हैं और सरकार चुप चाप देख रही है। और हाँ, सुशासन बाबू तो प्रधान मंत्री बनने में व्यस्त हैं।
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