2 अगस्त, 2016
कल गुजरात की मुख्यमंत्री आनंदी बेन पटेल जी ने अपनी पार्टी से गुजारिश की है कि उनको मुख्यमंत्री पद से मुक्त कर दिया जाए। उन्होंने इसके लिए अपनी उम्र का भी हवाला दिया है। राजनीति में ऐसे मौके बिरले ही आते हैं जब कोई अपनी बढ़ती उम्र को देखते हुए, नए लोगों को मौका देने के लिए स्वेच्छा से सेवा-निवृति ले ले। मुझे याद नहीं कि 1990 के बाद कभी ऐसा हुआ हो, शायद उसके पहले भी नहीं हुआ। सत्ता चीज ही ऐसी है, उम्र के आखिरी पड़ाव तक इंसान इससे चिपके रहना चाहता है। तरह-तरह की दलीले भी देता है इसके लिए, कि मेरी उम्र बेशक ज्यादा है लेकिन जनसेवा की ललक कम नहीं है या फिर उम्र ज्यादा है लेकिन स्फूर्ति जवानों से भी ज्यादा है, आदि आदि। ऐसे में जब आनंदी जी इस्तीफे की पेशकश करती हैं तो इसका जोरदार स्वागत होना चाहिए। एक अच्छी परंपरा स्थापित करने जा रही हैं वो।
परंतु राजनीति में कई बार ऐसा होता नहीं है जैसा दिखता है। कई बार हकीकत बहुत अलग ही होती है। कुछ खोजी प्रवृति के लोग, जो नहीं दिखता है उस पर दिमाग लगाने लगते हैं, कई बार वो सफल भी होते हैं और सच भी साबित होते हैं। अगले ही साल गुजरात में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। एंटी इनकंबेंसी फैक्टर तो जोरों पर है ही, इससे इंकार नहीं किया जा सकता। दलितों पर हो रहे अन्याय और पाटीदार आंदोलन को अच्छे से हल नहीं कर पाने के कारण सरकार की खूब किरकिरी हो रही है। ऊपर से भ्रष्टाचार के आरोप तो चरम पर हैं ही। भाजपा किसी भी तरह से गुजरात सरकार को इस छवि से बाहर लाना चाहती है। इसीलिए अब भाजपा चाहती है कि किसी साफ सुथरी और तेज तर्रार छवि वाले व्यक्ति को गुजरात का मुख्यमंत्री बनाया जाए।
मुझे याद है दिल्ली में 1998 में प्याज के दाम खूब बढ़ गए थे। जनता बहुत परेशान थी। भाजपा के प्रति लोगों का गुस्सा दिन प्रति दिन बढ़ रहा था। साहिब सिंह वर्मा जी तब मुख्यमंत्री थे दिल्ली के। अब ऐसे में भारतीय जनता पार्टी को चुनाव में चेहरा बचाना मुश्किल हो रहा था। आनन-फानन में साहिब सिंह जी को हटाकर भाजपा की तेज-तर्रार नेता सुषमा स्वराज जी को दिल्ली का मुख्यमंत्री बनाया गया। भाजपा की जल्दीबाजी और व्याकुलता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि 13 अक्टूबर 1998 को सुषमा स्वराज जी को मुख्य मंत्री बनाया गया जबकि चुनाव 25 नवम्बर 1998 को था। मुख्यमंत्री बनते ही सुषमा जी ने खूब औचक निरीक्षण किए, सरकार की छवि सुधारने की खूब कोशिश की। लेकिन इससे भी भाजपा को कोई फायदा नहीं हुआ। जनता सब समझ चुकी थी और करारी हार मिली। ऐसी हार मिली कि भाजपा दुबारा सत्ता में अभी तक नहीं आई है दिल्ली में।
दिल्ली विधानसभा चुनाव 1993 में भाजपा को 49 और कांग्रेस को 14 सीटें मिली थी। जब साहिब सिंह वर्मा जी को हटाकर सुषमा जी को मुख्यमंत्री बनाया गया तो 1998 के चुनाव में कांग्रेस को 52 और भाजपा को 15 सीटें मिली। शायद इसी से बचना चाहती है भाजपा और येन चुनाव के वक्त न करके काफी पहले ही गुजरात में मुख्यमंत्री को बदल रही है। लेकिन क्या इससे छवि सुधरेगी ? लगता तो नहीं है। दिल्ली जैसी हालत होने की पूरी सम्भावना है।
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