कल केंद्रीय मंत्रिमंडल का विस्तार हुआ। जब 2 साल पहले मोदी सरकार का गठन हुआ था तो छोटा मंत्रिमंडल रखा गया था। सिर्फ 66 मंत्री बनाए गए थे उस समय। इसकी तारीफ करते हुए कहा गया था कि जी हम मिनिमम गवर्नमेंट मैक्सिमम गवर्नेंस में यकीन रखते हैं। बढ़िया भी है छोटा मंत्रिमंडल रखना, सरकार के पैसे बचते हैं। कल के विस्तार के बाद अब मोदी सरकार में मंत्रियों की संख्या बढ़कर 80 हो गयी है। नियम के अनुसार सर्वाधिक 82 मंत्री ही हो सकते हैं केंद्रीय मंत्री मंडल में।
मनमोहन सिंह सरकार में मंत्रियों की संख्या 78 थी। लोकसभा चुनाव 2014 में भारतीय जनता पार्टी खूब प्रचार करती थी कि हम छोटा मंत्रिमंडल रखेंगे। मोदी जी मिनिमम गवर्नमेंट मैक्सिमम गवर्नेंस का नारा देते थे। आखिर क्या हुआ कि दूसरा साल पूरा होते-होते मोदी जी को अपने ही वायदे और इरादे से पीछे हटना पड़ा ? इसको कहते हैं राजनीतिक मजबूरी। असंतोष को कम करने के लिए नेतृत्व को मजबूरी में अनचाहे फैसले लेने पड़ते हैं। राजनीति में एक कहावत है कि हर कोई केजरीवाल बनकर ही आता है मगर हालात उसको मनमोहन बना देता है।
ठीक यही हुआ मोदी जी के साथ। ज्यादा संख्या में सांसद चुनकर आये तो सही लेकिन महत्वाकांक्षा किसकी नहीं होती मंत्री बनने की ? लेकिन बनाए गए सिर्फ 66 मंत्री। कुछ लोगो की महत्वाकांक्षा दबी ही रह गई, पूरी नहीं हुई। बिहार में 2015 में विधान सभा चुनाव होने थे तो वहां से खूब मंत्री बनाए गए। राजनीतिक सहयोगियों को भी मंत्रीपद दिया गया। दिल्ली से सिर्फ हर्षवर्धन जी को ही मंत्री बनाया गया था, इससे कुछ कद्दावर नेता असंतुष्ट ही रह गए। अब कोई बड़ा नेता मुंह खोल कर थोड़े न कहेगा कि हमको मंत्री बनाइये। कुछ शर्म-लिहाज और अनुशासन भी होता है न।
बड़े नेता तो चुनाव आने पर पार्टी को अपनी औकात दिखा देते हैं, या फिर कभी-कभी औकात पर आ जाते हैं। दिल्ली में यही हुआ, एक बड़े नेता जी को मंत्री बनाया गया और दूसरे मुंह देखते ही रह गए। ऐसे थोड़े न होता है कि जिसको अनुभव नहीं हो, उसको बना दिए और जो अनुभवी है उसको छोड़ दिए। वो ईमानदार हैं तो ये नेताजी भी कौन से बे-ईमान हैं, याद है न इन्ही नेता जी ने दिल्ली से लॉटरी को ख़त्म करवाया था ? नेता जी भी विधानसभा चुनाव 2015 में पार्टी को औकात दिखा दिए। अब इतना अपमान थोड़े न कोई सहेगा, जी।
लेकिन फिर भी मोदी जी की कृपा नहीं हुई उन पर। कोई मंत्रिमंडल विस्तार नहीं हुआ इनके लिए। अब इस साल फिर नेता जी को मौका मिल गया। दिल्ली में नगर निगम के उप-चुनाव हुए मई में ही। ले आये भाजपा को तीसरे नंबर पर। सिर्फ 3 सीट मिल पाई भाजपा को। मृतप्राय सी पार्टी , कांग्रेस में भी जबरदस्त जान आ गयी, लेकिन भाजपा सबसे पीछे। अब मोदी जी को समझ आ गया कि भैया कुछ करना पड़ेगा। नेताजी का गुस्सा धीरे-धीरे पार्टी के लिए ज्यादा नुकसानदेह साबित हो रहा है। अब जल्दी से इनको मंत्री नहीं बनाए तो कहीं अगले साल के नगर निगम चुनाव में नेताजी जीरो की खोज न कर दे पार्टी के लिए।
ये तो सिर्फ दिल्ली की बात हुई, हर राज्य का यही हाल है। पार्टी में महत्वाकांक्षी नेताओं की कमी नहीं होती। हर कोई पहले सांसद फिर मंत्री बनना चाहता है। अगले साल उत्तरप्रदेश में विधान सभा चुनाव होना है तो इस राज्य को खूब प्रतिनिधित्व मिला है मंत्रिमंडल में। मतलब साफ़ है कि विकास की बात करने वाले मोदी जी भी परंपरागत राजनीति पर उतर आये।
मनमोहन सिंह सरकार में मंत्रियों की संख्या 78 थी। लोकसभा चुनाव 2014 में भारतीय जनता पार्टी खूब प्रचार करती थी कि हम छोटा मंत्रिमंडल रखेंगे। मोदी जी मिनिमम गवर्नमेंट मैक्सिमम गवर्नेंस का नारा देते थे। आखिर क्या हुआ कि दूसरा साल पूरा होते-होते मोदी जी को अपने ही वायदे और इरादे से पीछे हटना पड़ा ? इसको कहते हैं राजनीतिक मजबूरी। असंतोष को कम करने के लिए नेतृत्व को मजबूरी में अनचाहे फैसले लेने पड़ते हैं। राजनीति में एक कहावत है कि हर कोई केजरीवाल बनकर ही आता है मगर हालात उसको मनमोहन बना देता है।
ठीक यही हुआ मोदी जी के साथ। ज्यादा संख्या में सांसद चुनकर आये तो सही लेकिन महत्वाकांक्षा किसकी नहीं होती मंत्री बनने की ? लेकिन बनाए गए सिर्फ 66 मंत्री। कुछ लोगो की महत्वाकांक्षा दबी ही रह गई, पूरी नहीं हुई। बिहार में 2015 में विधान सभा चुनाव होने थे तो वहां से खूब मंत्री बनाए गए। राजनीतिक सहयोगियों को भी मंत्रीपद दिया गया। दिल्ली से सिर्फ हर्षवर्धन जी को ही मंत्री बनाया गया था, इससे कुछ कद्दावर नेता असंतुष्ट ही रह गए। अब कोई बड़ा नेता मुंह खोल कर थोड़े न कहेगा कि हमको मंत्री बनाइये। कुछ शर्म-लिहाज और अनुशासन भी होता है न।
बड़े नेता तो चुनाव आने पर पार्टी को अपनी औकात दिखा देते हैं, या फिर कभी-कभी औकात पर आ जाते हैं। दिल्ली में यही हुआ, एक बड़े नेता जी को मंत्री बनाया गया और दूसरे मुंह देखते ही रह गए। ऐसे थोड़े न होता है कि जिसको अनुभव नहीं हो, उसको बना दिए और जो अनुभवी है उसको छोड़ दिए। वो ईमानदार हैं तो ये नेताजी भी कौन से बे-ईमान हैं, याद है न इन्ही नेता जी ने दिल्ली से लॉटरी को ख़त्म करवाया था ? नेता जी भी विधानसभा चुनाव 2015 में पार्टी को औकात दिखा दिए। अब इतना अपमान थोड़े न कोई सहेगा, जी।
लेकिन फिर भी मोदी जी की कृपा नहीं हुई उन पर। कोई मंत्रिमंडल विस्तार नहीं हुआ इनके लिए। अब इस साल फिर नेता जी को मौका मिल गया। दिल्ली में नगर निगम के उप-चुनाव हुए मई में ही। ले आये भाजपा को तीसरे नंबर पर। सिर्फ 3 सीट मिल पाई भाजपा को। मृतप्राय सी पार्टी , कांग्रेस में भी जबरदस्त जान आ गयी, लेकिन भाजपा सबसे पीछे। अब मोदी जी को समझ आ गया कि भैया कुछ करना पड़ेगा। नेताजी का गुस्सा धीरे-धीरे पार्टी के लिए ज्यादा नुकसानदेह साबित हो रहा है। अब जल्दी से इनको मंत्री नहीं बनाए तो कहीं अगले साल के नगर निगम चुनाव में नेताजी जीरो की खोज न कर दे पार्टी के लिए।
ये तो सिर्फ दिल्ली की बात हुई, हर राज्य का यही हाल है। पार्टी में महत्वाकांक्षी नेताओं की कमी नहीं होती। हर कोई पहले सांसद फिर मंत्री बनना चाहता है। अगले साल उत्तरप्रदेश में विधान सभा चुनाव होना है तो इस राज्य को खूब प्रतिनिधित्व मिला है मंत्रिमंडल में। मतलब साफ़ है कि विकास की बात करने वाले मोदी जी भी परंपरागत राजनीति पर उतर आये।
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