16 जुलाई, 2016
जब हमारा संविधान बना तो उसमें राज्यपाल के पद का प्रावधान किया गया जिनसे केंद्र या राष्ट्रपति जी का प्रतिनिधि के रूप में काम करने की अपेक्षा की गयी। किसी भी राज्य में राज्यपाल के कार्य और उनकी शक्तियाँ लगभग वही होती है जो केंद्र में राष्ट्रपति की होती है। राज्यपाल की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा केंद्र सरकार की अनुशंसा पर की जाती है। राज्यपाल का मुख्य कार्य सम्बध्द राज्य में संविधान की रक्षा करना होता है। राज्यपाल के पास कार्यपालिका एवं विधायिका सम्बन्धी अधिकार होते हैं। किसी भी राज्य में सारी सरकारी नियुक्तियाँ, नियुक्ति का रद्दीकरण राज्यपाल के नाम से ही होते हैं। कानून भी राज्यपाल के नाम से ही लागू किए जाते हैं।
संविधान की भावना थी कि सभी पदासीन लोग अपने कार्य पूरी ईमानदारी से करेंगे। वैसे तो सारे अधिकार राज्यपाल को ही दिए गए लेकिन उनको अपना काम मुख्यमंत्री और राज्य कैबिनेट की सलाह से ही करने होते हैं। हो सकता है कि कैबिनेट की कुछ अनुशंसा संविधानसम्मत न हो, इसलिए राज्यपाल के पास को कुछ डिस्क्रिशनरी पावर यानि विवेकाधीन शक्ति भी दिए गए। मसलन, अगर किसी पार्टी को पूर्ण बहुमत नहीं है तो राज्यपाल महोदय अपने विवेक से मुख्यमंत्री की नियुक्ति कर सकते हैं, लेकिन इसका मतलब ये तो नहीं कि सबसे बड़ी पार्टी के नेता को छोड़कर किसी दूसरे को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिला दे ? आपातकाल की स्थिति में राज्यपाल मंत्री परिषद की सलाह को मानने को भी बाध्य नहीं हैं।
अपने विवेक का इस्तेमाल करके राज्यपाल राज्य में संवैधानिक संकट के बारे में अपनी रिपोर्ट राष्ट्रपति जी को भेज सकते हैं और उसके आधार पर राज्य में राष्ट्रपति शासन भी लग सकता है। अपने विवेक के अनुसार राज्यपाल किसी भी बिल को अपनी स्वीकृति न देकर राष्ट्रपति के पास उनकी अप्रूवल के लिए भेज सकते हैं। इन सबके पीछे सिर्फ मंशा यही थी कि राज्यपाल का पद राजनीतिक नहीं होगा और राज्यपाल किसी राजनीतिक प्रभाव में काम नहीं करेंगे। शायद इसीलिए इस पद पर शुरू के कुछ सालों तक गैर राजनीतिक या पार्टी-निरपेक्ष व्यक्तियों की ही नियुक्ति की गयी । लेकिन जब से मैंने राजनीतिक होश सम्भाला है, राज्यपाल के पद पर केंद में सत्ता रूढ़पार्टी के नेता या फिर उससे घनिष्ठता रखने वाले व्यक्तियों की नियुक्ति होते देखा है।
ज्योंही केंद्र में सत्ता परिवर्तन होता है राज्यों के राज्यपाल के तबादले होने शुरू हो जाते हैं। जैसे राज्यों में सत्ता परिवर्तन होने पर अफसरों के तबादले होने लगते हैं। मतलब राज्यपाल की निष्ठा संदेह से परे नहीं है ? या फिर केंद्र की सत्ता में आसीन पार्टी अपने निष्ठावान लोगों को ही राज्यपाल बनाना चाहती है ? कांग्रेस जब सत्ता में आती है तो अपने पुराने नेताओं को राज्यपाल बनाती है, जब भाजपा सत्ता में आती है तो अपने नेता या संघ के लोगों को। मतलब कोई भी दल पीछे नहीं है।
2004 में जब एनडीए की सरकार थी तो मदन लाल खुराना जी को राजस्थान का राज्यपाल नियुक्त किया गया था, जबकि थोड़े दिन ही पहले वो केंद्रीय मंत्रीमंडल का हिस्सा थे। कांग्रेस सत्ता में आई तो उसने बहुत से राज्यपालों को हटाया लेकिन खुराना जी को नहीं। हो सकता है कांग्रेस को खुराना जी से कोई परेशानी नहीं रही हो या फिर उसको लगा कि अगर इनको हटाएंगे तो ये दिल्ली में आकर शीला सरकार के खिलाफ आवाज बुलंद करेंगे। उन दिनों खुराना जी भाजपा के बड़े नेताओं में शुमार थे। ये बात और है कि उनको राजभवन रास नहीं आया और वो इस्तीफा देकर वापस दिल्ली चले आए।
अभी जब 2014 में एनडीए की केंद्रीय सत्ता में वापसी हुई तो बहुत से राज्यपालों का तबादला किया गया। कुछ ने तो तबादला होने के कारण इस्तीफा ही दे दिया। इनमें दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित भी शामिल है जिनको दिल्ली विधानसभा चुनाव में करारी हार के बाद कांग्रेस सरकार ने जाते-जाते केरल का राज्यपाल बना दिया था। लेकिन दिल्ली के उप-राज्यपाल नजीब जंग का न तो तबादला हुआ और न ही वो बदले गए। अब आए दिन उनकी और राज्य सरकार की अनबन होती रहती है।
कहने का मतलब ये कि अगर किसी राजनीतिक पार्टी के प्रति निष्ठा रखने वालों को राज्यपाल बनाया जायेगा तो उनके फैसलों में राजनीतिक निरपेक्षता आ सकती है क्या ? कहीं न कहीं अपनी पुरानी पार्टी के प्रति निष्ठा तो झलक ही सकती है न ? मैं ये नहीं कहता कि सभी राज्यपाल ऐसे होते हैं। लेकिन क्या किसी के ऐसे होने से इंकार किया जा सकता है ? पिछले कई सालों से राज्यपाल के फैसलों पर उँगलियाँ उठाई जाने लगी हैं, कई फैसलों को तो माननीय न्यायालय के आदेश द्वारा पलटा भी गया है। ऐसे में हम जैसी आम जनता तो यही सोचती है कि किसी गैर-राजनीतिक व्यक्ति को राज्यपाल क्यों नहीं बनाया जाता ?
अपने विवेक का इस्तेमाल करके राज्यपाल राज्य में संवैधानिक संकट के बारे में अपनी रिपोर्ट राष्ट्रपति जी को भेज सकते हैं और उसके आधार पर राज्य में राष्ट्रपति शासन भी लग सकता है। अपने विवेक के अनुसार राज्यपाल किसी भी बिल को अपनी स्वीकृति न देकर राष्ट्रपति के पास उनकी अप्रूवल के लिए भेज सकते हैं। इन सबके पीछे सिर्फ मंशा यही थी कि राज्यपाल का पद राजनीतिक नहीं होगा और राज्यपाल किसी राजनीतिक प्रभाव में काम नहीं करेंगे। शायद इसीलिए इस पद पर शुरू के कुछ सालों तक गैर राजनीतिक या पार्टी-निरपेक्ष व्यक्तियों की ही नियुक्ति की गयी । लेकिन जब से मैंने राजनीतिक होश सम्भाला है, राज्यपाल के पद पर केंद में सत्ता रूढ़पार्टी के नेता या फिर उससे घनिष्ठता रखने वाले व्यक्तियों की नियुक्ति होते देखा है।
ज्योंही केंद्र में सत्ता परिवर्तन होता है राज्यों के राज्यपाल के तबादले होने शुरू हो जाते हैं। जैसे राज्यों में सत्ता परिवर्तन होने पर अफसरों के तबादले होने लगते हैं। मतलब राज्यपाल की निष्ठा संदेह से परे नहीं है ? या फिर केंद्र की सत्ता में आसीन पार्टी अपने निष्ठावान लोगों को ही राज्यपाल बनाना चाहती है ? कांग्रेस जब सत्ता में आती है तो अपने पुराने नेताओं को राज्यपाल बनाती है, जब भाजपा सत्ता में आती है तो अपने नेता या संघ के लोगों को। मतलब कोई भी दल पीछे नहीं है।
2004 में जब एनडीए की सरकार थी तो मदन लाल खुराना जी को राजस्थान का राज्यपाल नियुक्त किया गया था, जबकि थोड़े दिन ही पहले वो केंद्रीय मंत्रीमंडल का हिस्सा थे। कांग्रेस सत्ता में आई तो उसने बहुत से राज्यपालों को हटाया लेकिन खुराना जी को नहीं। हो सकता है कांग्रेस को खुराना जी से कोई परेशानी नहीं रही हो या फिर उसको लगा कि अगर इनको हटाएंगे तो ये दिल्ली में आकर शीला सरकार के खिलाफ आवाज बुलंद करेंगे। उन दिनों खुराना जी भाजपा के बड़े नेताओं में शुमार थे। ये बात और है कि उनको राजभवन रास नहीं आया और वो इस्तीफा देकर वापस दिल्ली चले आए।
अभी जब 2014 में एनडीए की केंद्रीय सत्ता में वापसी हुई तो बहुत से राज्यपालों का तबादला किया गया। कुछ ने तो तबादला होने के कारण इस्तीफा ही दे दिया। इनमें दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित भी शामिल है जिनको दिल्ली विधानसभा चुनाव में करारी हार के बाद कांग्रेस सरकार ने जाते-जाते केरल का राज्यपाल बना दिया था। लेकिन दिल्ली के उप-राज्यपाल नजीब जंग का न तो तबादला हुआ और न ही वो बदले गए। अब आए दिन उनकी और राज्य सरकार की अनबन होती रहती है।
कहने का मतलब ये कि अगर किसी राजनीतिक पार्टी के प्रति निष्ठा रखने वालों को राज्यपाल बनाया जायेगा तो उनके फैसलों में राजनीतिक निरपेक्षता आ सकती है क्या ? कहीं न कहीं अपनी पुरानी पार्टी के प्रति निष्ठा तो झलक ही सकती है न ? मैं ये नहीं कहता कि सभी राज्यपाल ऐसे होते हैं। लेकिन क्या किसी के ऐसे होने से इंकार किया जा सकता है ? पिछले कई सालों से राज्यपाल के फैसलों पर उँगलियाँ उठाई जाने लगी हैं, कई फैसलों को तो माननीय न्यायालय के आदेश द्वारा पलटा भी गया है। ऐसे में हम जैसी आम जनता तो यही सोचती है कि किसी गैर-राजनीतिक व्यक्ति को राज्यपाल क्यों नहीं बनाया जाता ?
0 टिप्पणियाँ:
टिप्पणी पोस्ट करें