शुक्रवार, 29 जुलाई 2016
गुरुवार, 28 जुलाई 2016
चीनी चमोली तक घुस आये, क्या कर रही थी मोदी सरकार ?
28 जुलाई, 2016
सुना है, पिछले दिनों चीन की सेना उत्तराखंड के चमोली जिले में पहुँच गयी थी। इसकी पुष्टि खुद उत्तराखंड के मुख्यमंत्री हरीश रावत ने भी की है। जैसा कि हर बार होता है, उनको इस बार भी मुँह की खानी पड़ी, हमारे जवानों ने उनको भगा दिया। पहले भी यूपीए सरकार के दौरान ऐसी घुसपैठ हो चुकी है। उस समय भी हमारे जवानों ने उसको भगाया था। केंद्रीय गृह राज्य मंत्री किरण रिजीजू कहते हैं कि हम इसकी रिपोर्ट लेंगे और देखने की जरूरत है कि ये लोग हमारे क्षेत्र में कितनी दूर तक घुस आये थे।
भारतीय जनता पार्टी एवं खुद प्रधान मंत्री मोदी जी द्वारा समय-समय पर दावा किया जाता है कि वर्तमान सरकार सबसे कुशल और कर्मठ है। मोदी जी 18 घंटे काम करते हैं। मनोहर पर्रिकर जैसे कुशल राजनेता और प्रशासक को रक्षा मंत्री बनाया गया है। क्या फायदा 18 घंटे काम करने का जब नतीजा मनमोहन सिंह सरकार जैसा ही हो ? उन्होंने कभी दावा नहीं किया कि मैं कम सोता हूँ, खूब काम करता हूँ। उनके समय में भी चीन की घुसपैठ होती थी। तब तो यही मोदी जी खूब आलोचना करते थे यूपीए सरकार को निकम्मी और नाकारा सरकार करार देते थे। भारतीय जनता पार्टी मनमोहन जी को सबसे कमजोर प्रधान मंत्री बताती थी।
क्या विशेष फायदा हुआ मनोहर पर्रिकर को रक्षामंत्री बनाने का ? यूँ तो घुसपैठ की घटना कभी-कभी ही होती है लेकिन हमारी सुरक्षा-व्यवस्था और रक्षा-प्रणाली की पोल खोल कर रख देती है। नयी सरकार ने सीमा सुरक्षा के क्या खास इंतजाम किए ? क्यों नहीं सीमा पर चौकसी बढ़ाई जाती है ? मोदी जी ने कहा था कि 56 इंच का सीना चाहिए सबसे ज्यादा आबादी वाले प्रदेश को गुजरात जैसा विकसित बनाने के लिए। क्या 56 इंच का सीना कम पड़ जाता है उत्तराखंड जैसे छोटे प्रदेश से जुडी सीमा की रक्षा करने के लिए ?
पिछले सरकार की विफलता से क्या सीख ली मोदी सरकार ने ? विदेशों से निवेश आए बहुत ख़ुशी की बात है, लेकिन विदेशी सेना घुसपैठ करे, बहुत चिंताजनक बात है। उम्मीद है, इस घटना से सीख लेकर सरकार सीमा पर चौकसी बढ़ाएगी।
बुधवार, 27 जुलाई 2016
केजरीवाल का काम आसान कर रहे हैं मोदी जी ?
7/27/2016 01:41:00 pm
आम आदमी पार्टी, केजरीवाल, नरेंद्र मोदी
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जब आम आदमी पार्टी का गठन हुआ था तब यह देश में भ्रष्टाचार से त्रस्त लोगों का, देश को भ्रष्टाचार-मुक्त करने का जज्बा लिए लोगों का, एक जमावड़ा बस था। लोग इकट्ठे हुए, साथ चलने का संकल्प लिया और इसको एक राजनीतिक पार्टी का स्वरुप दिया गया। सबने अरविन्द केजरीवाल के नेतृत्व में चलने का संकल्प लिया और आम आदमी पार्टी का उदय हुआ। पार्टी के गठन के समय से ही सिर्फ और सिर्फ ईमानदार एवं चरित्रवान लोगों को ही शामिल करने की मंशा रही पार्टी की।
यथासंभव अपने तरीके से ईमानदार लोगों की पड़ताल करके ही पार्टी की सदस्यता दी जाती है, ऐसा पार्टी का कहना है। केजरीवाल जी भी हमेशा ईमानदार लोगों को पार्टी में शामिल होने का आह्वान करते हैं, साथ ही बेईमानों को पार्टी से निकल जाने या दूर रहने की भी बात करते हैं।लेकिन अपने को ईमानदार और चरित्रवान तो हर कोई बताता है। बिना किसी आरोप या सजा के, किसी को बेईमान बताकर पार्टी में आने से रोक भी नहीं सकते। पार्टी के गठन के समय से अब तक बहुत से लोग पार्टी में आए और कुछ पार्टी से गए भी। कुछ निकल गए तो कुछ निकाले गए।
पिछले साल दिल्ली विधानसभा चुनाव में पार्टी को अभूतपूर्व और प्रचण्ड बहुमत मिला। इसके बाद से बहुत से विधायकों पर तरह-तरह के आरोप लग रहे हैं। अभी तक लगभग सभी को जमानत मिल चुकी है। 1-2 अभी थोड़े दिन पहले ही गिरफ्तार हुए हैं, उनको ही अभी जमानत नहीं मिली है। कुछ तो बरी भी हो चुके हैं माननीय न्यायालय द्वारा। आज भी एक विधायक के यहाँ आयकर का छापा पड़ा है। आम आदमी पार्टी का आरोप है कि ये सब आरोप और मुक़दमे राजनीति से प्रेरित हैं। मोदी जी सबको राजनीतिक मुकदमे में फंसा रहे हैं। सबलोग अदालत में बेगुनाह साबित होंगे, ऐसा पार्टी का दावा है।
कहते हैं कि सोना आग में तपकर ही कुंदन बनता है। आग में तपने से सोने के साथ मिली हुई तमाम गन्दगी और अशुद्धि जल कर राख हो जाती है और सिर्फ खरा सोना ही बचता है। आम आदमी पार्टी के नेताओं में जो सही होगा वही इन मुकदमों से बरी होगा अदालत में। जैसे अखिलेश पति त्रिपाठी बरी हुए। जो वाकई में गलत होगा, उसको सजा जरूर मिलेगी। इस तरह से आम आदमी पार्टी से गलत लोगो की छुट्टी हो जाएगी। बेईमान और भ्रष्ट लोग इस पार्टी के नजदीक फटकने की भी नहीं सोचेंगे। पार्टी में जो गलत लोग हैं वो चुप-चाप बहार निकल जाएंगे।
यही तो चाहते थे केजरीवाल जी कि पार्टी में सिर्फ ईमानदार लोग ही रहे। अगर आम आदमी पार्टी का आरोप सही भी है तो ऐसे में मोदी जी तो केजरीवाल जी का काम आसान ही कर रहे हैं।
दिल्ली में ऑटो टैक्सी की हड़ताल, कितनी जायज ?
27 जुलाई, 2016
दिल्ली में कल से ऑटो टैक्सी की हड़ताल शुरू हो गयी है। लोगों को बहुत परेशानी हो रही है। पहले ऑटो टैक्सी वाले परेशान थे। ज्यादातर ऑटो वालों की परेशानी थी कि पुलिस वाले उनको बेवजह परेशान करते हैं, अवैध वसूली करते हैं। नयी सरकार आने के बाद से पुलिस की दखलंदाजी में बहुत कमी आई है और अवैध वसूली भी नहीं हो रही है। इस तरह की शिकायत ख़त्म हो गयी है अब उनकी। पहले बार-बार पेट्रोल के दाम बढ़ने से भी इनको परेशानी थी, कहते थे पेट्रोल के दाम तो बढ़ जाते हैं लेकिन किराया नहीं बढ़ते हैं। इसके लिए ये लोग हड़ताल करते थे और किराया बढ़वा कर ही दम लेते थे।
अब पेट्रोल के बदले दिल्ली में सीएनजी से ऑटो टैक्सी चलने लगी है, जिसका दाम पेट्रोल के मुकाबले बहुत ही कम है। लेकिन इनका किराया कम नहीं हुआ। अगर लागत बढ़ने के कारण किराया बढ़ता है तो लागत घटने पर किराया घटाने के लिए इन्होंने कोई अनुरोध क्यों नहीं किया, हड़ताल भी नहीं किया। जनता ने भी हड़ताल नहीं किया इनके खिलाफ कि किराये कम करो। जनता सब कुछ सह लेती है। या फिर सहने की आदी हो चुकी है।
अब ऑटो टैक्सी वालों को ऐप बेस्ड ऑटो टैक्सी जैसे की ओला उबेर से परेशानी हो रही है। कह रहे हैं कि उनको हटाओ। क्यों हटा दें भाई? अगर वो गैर-कानूनी ढंग से परिचालन कर रहे हैं तो कानून बनाना सरकार का काम है। अगर वो किसी कानून का उल्लंघन कर रहे हैं तो उनको दंड देना, चालान करना सरकार या पुलिस का काम है। ये तो ऐसे ही हो गया कि रेहड़ी-पटरी वाले कहें कि दुकानों को हटाओ, दुकान वाले कहें कि मॉल्स को बंद करो। सुना है कि इनको बैटरी रिक्शा से भी परेशानी है।
कल से ही जनता परेशान है इनके हड़ताल से। लेकिन इनको जनता की परेशानी से क्या मतलब ? जनता तब भी खुश नहीं थी इनसे, जब इनकी हड़ताल नहीं थी। शायद ही कोई ऑटो वाला होगा जो मीटर से चलने को तैयार होता है, वरना ज्यादातर तो मनचाहे पैसे मांगते हैं। ज्यादातर रूट्स पर जाने से मना कर देंगे। इनकी मनमानियों से तंग आये लोगों ने ही ऐप बेस्ड ऑटो टैक्सी की सेवा पसंद की है और इनके वजह से ही ये सेवा लोकप्रिय भी हो रही है। उनके साथ ऐसा कुछ नहीं है, जिधर कहो जाने को जैसे तैयार ही बैठे रहते हैं। अच्छा डिस्काउंट भी देते हैं। उनके रेट भी ज्यादा नहीं है, न ही वो अतिरिक्त पैसे मांगते हैं ।
दरअसल इनकी परेशानियों की मुख्य वजह है कि अब इनकी मनमानियाँ नहीं चल रही है। दिल्ली सरकार का मानना है कि आम ऑटो टैक्सी वाले तो इनकी हड़ताल में शामिल ही नहीं होना चाहते। सरकार का यह भी कहना है कि ऑटो टैक्सी वालों को धमकी दी जा रही है कि अगर वो सड़को पर आये तो उनके ऑटो की छत ब्लेड से काट दी जाएगी जिसकी कीमत लगभग 5000 रुपये होती है। मतलब कि ऑटो टैक्सी वालों को कोई परेशानी नहीं है बल्कि उनसे जबरदस्ती हड़ताल करवाई जा रही है चंद लोगों द्वारा।
कल न्यूज चैनेल पर बहस में ऑटो टैक्सी यूनियन के लीडर के तेवर देखकर लग रहा था कि वो सरकार की बात सुनने को ही तैयार नहीं है, सरकार ने तो आज की मीटिंग भी रखी हुई है यूनियन के साथ। देखते हैं क्या परिणाम निकलता है। लेकिन अगर यह हड़ताल ज्यादा दिनों तक चलती है तो दिल्ली की जनता को परेशानी न हो इसके लिए जल्द से जल्द सरकार को वैकल्पिक व्यवस्था भी करनी चाहिए।
मंगलवार, 26 जुलाई 2016
नेता के दामाद के लिए नियम की भी परवाह नहीं की मोदी सरकार ने।
26 जुलाई, 2016
यूपीए सरकार के दौरान जब भारतीय जनता पार्टी विपक्ष में थी तो आए दिन केंद्र सरकार द्वारा सोनिया गाँधी के दामाद रॉबर्ट वाड्रा को केंद्र सरकार द्वारा अनुचित तरीके से लाभ पहुँचाने का आरोप लगाया करती थी। उनको कौड़ी के भाव जमीन आवंटित किए जाने का आरोप लगाती थी। आए दिन कहानी सुनाती थी कि कैसे थोड़े सी ही पूँजी लगाकर, रॉबर्ट वाड्रा कितनी महँगी-महँगी जमीनों के मालिक बन बैठे। यह बात भी चर्चा में आयी कि जिस इलाके में कांग्रेस सरकार कोई बड़ी परियोजना लगाने की योजना बनाती थी उसकी जानकारी पहले ही वाड्रा तक पहुँच जाती थी और वो वहाँ के किसान से सस्ते दामों में खूब सारी जमीन खरीद लेते थे। फिर जब सरकार को जमीन की जरूरत पड़ती थी तो वो वाड्रा से महंगे दामों में खरीदती थी।
ऐसा लगता था कि भारतीय जनता पार्टी के पास राबर्ट वाड्रा के खिलाफ खूब सारे सबूत हैं, सिर्फ इसको सत्ता में आने की देर है। इसके बाद तो राबर्ट वाड्रा को जेल में भिजवा के ही छोड़ेगी भारतीय जनता पार्टी। लेकिन केंद्र में भी एनडीए की सरकार बन गयी और राजस्थान में भी जहाँ राबर्ट वाड्रा की जमीन है, उधर भी भाजपा की ही मुख्यमंत्री है। लेकिन अभी तक कुछ नहीं हुआ है। राबर्ट वाड्रा की स्थिति पर कोई फर्क नहीं पड़ा है। या तो भारतीय जनता पार्टी जान-बूझ कर राबर्ट वाड्रा को बचा रही है या फिर झूठ-मूठ के ही चिल्ला रही थी कि राबर्ट वाड्रा भ्रष्टाचारी है।
अभी-अभी एक और नेताजी के दामाद पर केंद्रीय सरकार की खास मेहरबानी होने की खबर चल रही है। मीडिया की खबर को माने तो उत्तर प्रदेश के मंत्री शिवपाल यादव के दामाद को फायदा पहुँचाने के लिए केंद्र सरकार द्वारा नियम एवं आपत्तियों को भी दरकिनार कर दिया गया। उत्तर प्रदेश में बाराबंकी के जिलाधिकारी अजय यादव तमिलनाडु कैडर के आईएएस अधिकारी हैं। उन्होंने उत्तर प्रदेश में पोस्टिंग के लिए अर्जी दी जिसको कार्मिक मंत्रालय तीन बार ख़ारिज कर चूका था क्योंकि 9 साल तक मूल काडर में सेवा देने के बाद ही कहीं और डेपुटेशन हो सकती है। अजय यादव को सेवा में आए अभी 5 साल ही हुए थे।
लेकिन प्रधानमंत्री कार्यालय की एक चिट्ठी ने सब कुछ ठीक कर दिया। कार्मिक मंत्रालय की आपत्ति के बावजूद भी शिवपाल यादव के दामाद अजय यादव के मामले को विशेष मामला माना गया और उसकी 3 साल की उत्तर प्रदेश में डेपुटेशन की अर्जी को मंजूरी दी गयी। ऐसे तो नेता एक-दूसरे के भ्रष्टाचार की खूब बात करते हैं। मामला खूब उछालते हैं। लेकिन ज्योंहि मामला किसी नेता के रिश्तेदार का होता है, न जाने किधर से दरियादिली आ जाती है।
हकीकत शायद यही है कि बेशक नेता एक-दूसरे की बुराइ करे लेकिन एक-दूसरे की मदद करने में नियम कानून की भी परवाह नहीं करते। सब मिले हुए हैं, है न ?
सोमवार, 25 जुलाई 2016
मीडिया कहीं आम आदमी पार्टी के प्रति पक्षपाती तो नहीं ?
25 जुलाई, 2016
जब से आम आदमी पार्टी का निर्माण हुआ है, मीडिया इसकी छोटी से छोटी खबर को भी कवर करने से नहीं चूकती। करे भी क्यों नहीं, इससे इनको अच्छी खासी टीआरपी जो मिलती है। चाहे अन्ना का आंदोलन हो या फिर अरविन्द केजरीवाल का अनशन। मीडिया ने एक-एक चीज को, एक-एक घटना को बड़ी प्रमुखता से दिखलाया है। कुछ लोगों का तो यह भी मानना है कि आम आदमी पार्टी की सफलता के पीछे मीडिया का भी बहुत बड़ा रोल है।
लेकिन जबसे आम आदमी पार्टी की सरकार बनी है, कुछ ऐसे घटना क्रम हुए हैं जिससे मन सोचने को मजबूर होता है कि कहीं मीडिया आम आदमी पार्टी के प्रति पक्षपाती तो नहीं हो गयी है। 2015 के विधानसभा चुनाव के दौरान ही कुछ न्यूज चैनलों ने तो जैसे इस पार्टी के खिलाफ मोर्चा ही संभाल लिया था। आम आदमी पार्टी की एक-एक नीतियों की बखिया उधेड़ते दीखते थे ये चैनेल। ऐसा नहीं है कि सभी चैनल इसके विरोध में ही थे, कुछ चैनेल इनकी नीतियों की सही व्याख्या भी करते थे।
विधानसभा चुनाव के बाद दिल्ली विधानसभा में भाजपा को ऐतिहासिक 3 और कांग्रेस को ऐतिहासिक 0 सीटें मिली। एक तरह से विधानसभा में विपक्ष समाप्त ही हो गया। ऐसे में मानो जैसे विपक्ष की पूरी जिम्मेदारी मीडिया के एक वर्ग ने ही संभाल लिया। चाहे कैसा भी फैसला हो सरकार का, मीडिया का एक वर्ग इसमें बुराई निकाल ही लेता था। ओड-इवन की सफलता से पूरी दिल्ली लाभान्वित हो रही थी। लोग समय से पहले ही अपने गंतव्य स्थल पर पहुँच रहे थे। देश के दूसरे शहर भी इससे प्रेरणा लेकर इसको अपने यहाँ लागू करने की बात कर रहे थे। विदेशों में भी इसकी खूब तारीफ हो रही थी। दिल्ली में वायु प्रदुषण कम हो रहा था। लेकिन मीडिया के एक वर्ग को इसमें भी खूब बुराई दिख रही थी।
सरकार बनने के बाद से ही एक-एक करके आम आदमी पार्टी के 10 विधायक गिरफ्तार हो चुके हैं। जब इन पर आरोप लगता है, तभी से मीडिया का एक वर्ग इस पर दिन-रात समाचार दिखाने लगता है। मुझे याद है, पिछले साल जब सोमनाथ भारती पर घरेलु हिंसा के आरोप लगे थे। उसके बाद से उसकी गिरफ़्तारी तक मीडिया में इस खबर को खूब प्रमुखता से दिखाया जाता था। शायद ही कोई दिन था जब इस पर डिबेट नहीं होती थी। लेकिन जब उनको जमानत मिली तब एक छोटी सी खबर दिखा गयी कि सोमनाथ भारती को जमानत मिली।
ऐसे ही जब अखिलेशपति त्रिपाठी पर दंगे भड़काने के आरोप लगे, मीडिया में कितनी चर्चा हुई थी ? प्राइम टाइम पर कितने डिबेट हुए थे ? विरोधी पार्टी भी खूब लानत-मलामत कर रहे थे। लेकिन जब पिछले साल वो इस मामले में बरी हुए तो इसकी कितनी बड़ी चर्चा हुई ? कितने डिबेट हुए, इस पर ? कमांडो सुरेंद्र, दिनेश मोहनिया, मनोज कुमार, प्रकाश जारवाल, महेंद्र यादव आदि के मामले में भी ऐसा ही हो चूका है, इनको जमानत मिलने पर कोई खास चर्चा नहीं हुई ।
पिछले साल जब सोमनाथ भारती पर आरोप तय हुआ और दिल्ली पुलिस उनको गिरफ़्तारी के लिए ढूंढ रही थी, तब मीडिया में लगभग रोज ही इस पर बहस होती थी। कहते थे कि सोमनाथ जी को आत्मसमर्पण कर देना चाहिए। केजरीवाल जी को उनसे आत्मसमर्पण करने की अपील करनी चाहिए। केजरीवाल जी ने ऐसा किया भी था। मैं नहीं कहता कि सोमनाथ जी सही कर रहे थे। उन्होंने जो कुछ भी किया उसका फैसला अदालत करेगी। पिछले ही दिनों भारतीय जनता पार्टी की उत्तर प्रदेश इकाई के पूर्व उपाध्यक्ष दयाशंकर सिंह पर मायावती जी के लिए अपमानजनक टिप्पणी करने का आरोप लगा है। इस मामले में पुलिस उनको भी ढूंढ रही है, वो भी नहीं मिल रहे हैं। इस पर कोई डिबेट हुई मीडिया में ? मोदी जी से किसी ने कहा कि दयाशंकर सिंह से आत्मसमर्पण करने की अपील कीजिये ?
अभी कल ही ओखला के आम आदमी पार्टी के विधायक की गिरफ़्तारी हुई है। इस पर खूब चर्चा हो रही है न्यूज चैनेल पर। लेकिन अगर उनको इस मामले में जमानत मिल जाएगी, तो इस पर डिबेट होगी ? कल को इस मामले में अगर वो माननीय न्यायालय द्वारा बरी हो जाते हैं, तो इस बारे में न्यूज चैनेल पर डिबेट होगी ? अभी तक तो ऐसा नहीं हुआ है। फिर मिडिया का क्या कर्तव्य रह जाता है ? जब आरोप लगे तो खूब मामला उछालो और जब जमानत मिल जाये या फिर बरी हो जाये तो छोटी सी लाइन लिख दो ? जब आरोप लगने पर लंबी-चौड़ी विश्लेषण करते हैं, खुद भी और विभिन्न दलों के नेताओं को बुलाकर उनसे भी करवाते हैं। तो बरी होने पर भी तो इतनी लंबी चौड़ी ही विश्लेषण होनी चाहिए न।
रविवार, 24 जुलाई 2016
एक-एक करके आम आदमी पार्टी के विधायक अपराधी बन रहे हैं ?
7/24/2016 06:35:00 pm
अखिलेश पति त्रिपाठी, आम आदमी पार्टी, दिनेश मोहनिया, सोमनाथ भारती
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जब से आम आदमी पार्टी को दिल्ली में प्रचण्ड बहुमत मिला है, एक-एक करके कई विधायकों पर आरोप लग चूका है। आरोप भी छोटे-मोटे नहीं बल्कि गंभीर वाले, दंगा भड़काने वाले, महिला से छेड़-छाड़ वाले, जान से मारने की धमकी वाले। ऐसे आरोप लगते हैं जिससे इंसान का पुरा चरित्र ही संदेह के दायरे में आ जाए, इंसान किसी को मुंह दिखाने के लायक न रहे।मानों आम आदमी पार्टी के विधायक बड़े ही अपराधी प्रकृति के हो गए हों। बहुत से मामलों में विधायक जमानत पर हैं, कुछ में बरी भी हो गए हैं। लेकिन आरोप लगने और गिरफ़्तारी का सिलसिला रुक नहीं रहा है।
इसी कड़ी में आज ओखला से विधायक अमानतुल्लाह खान को गिरफ्तार किया गया है। इन पर भी महिला से छेड़-छाड़ और धमकी देने का आरोप लगा है। समाचार पत्रों की माने तो महिला ने शिकायत दर्ज करवाई है कि वो बिजली की ख़राब स्थिति के बारे में बताने के लिए 9 जुलाई को विधायक के बटला हाउस स्थित घर पर गई थी। वहां विधायक के समर्थक ने उसको गाली दी और गंभीर परिणाम भुगतने की धमकी दी। महिला का कहना था कि समर्थक ने विधायक के कहने पर उसको गाली और धमकी दी। जबकि विधायक का कहना है कि जिस दिन की बात महिला कर रही है उस दिन विधायक जी दिल्ली में थे ही नहीं।
विधायक जी का कहना है कि 9 और 10 जुलाई को विधायक जी मेरठ में और उनके बच्चे कश्मीर में थे। कल से ही सोशल मीडिया में एक वीडियो शेयर की जा रही है और आम आदमी पार्टी द्वारा प्रेस कांफ्रेंस में भी दिखाई गयी। अगर यह वीडियो सही है और इसमें कोई छेड़-छाड़ नहीं की गई है, तो इसके अनुसार जामिया नगर थाने के एसएचओ के कहने पर महिला ने बलात्कार और हत्या की धमकी देने की बात अपने शिकायत में जोड़ी।
अब जबकि विधायक गिरफ्तार हो चुके हैं, मामले की सत्यता अदालत में साबित हो जाएगी। लेकिन कुछ बाते हैं जिन पर गौर करना जरूरी है। सबसे पहली बात कि किसी भी मामले में पुलिस कितना त्वरित कार्रवाई करती है यह किसी से छिपी नहीं है। अगर मामले में आरोपी भारतीय जनता पार्टी का कोई नेता हो तो दिल्ली पुलिस कितनी तेजी से गिरफ़्तारी करती है, ये सबको पता है। लेकिन ज्योंहि आम आदमी पार्टी के किसी विधायक या कार्यकर्त्ता पर आरोप लगता है, दिल्ली पुलिस ऐसे कार्रवाई करती है जैसे इसी का इंतजार कर रही हो।
चाहे मामला सोमनाथ भारती का हो, जितेंद्र सिंह तोमर का हो, अखिलेश प्रताप त्रिपाठी का हो या फिर दिनेश मोहनिया का, दिल्ली पुलिस बहुत तेजी के साथ गिरफ्तार करती है। इन सभी मामलों में आरोपी को जमानत भी मिल चुकी है। अखिलेश पति त्रिपाठी तो दंगा भड़काने के आरोप से बरी भी हो चुके हैं माननीय दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा। अदालत से तो न्याय मिल ही जाता है। लेकिन जब इस तरह के मामलों में आरोप लगते हैं तब आरोपी की कितनी बेइज्जती होती है ?
विरोधी दल के नेता तो आरोप लगते ही अपराधी मान लेते हैं, आम आदमी पार्टी के नेताओं को। न्यूज चैनलस पर भी डिबेट में खूब लानत-मलामत की जाती है। लेकिन जब आरोपी को जमानत मिल जाती है या फिर बरी हो जाता है तो इसकी खास चर्चा नहीं होती। अमानतुल्लाह खान शायद आम आदमी पार्टी के 9वें विधायक हैं जिसकी गिरफ़्तारी हुई है। इससे पहले जितेन्द्र सिंह तोमर, सोमनाथ भारती, सुरिंदर सिंह, मनोज कुमार, महेंद्र यादव, अखिलेश पति त्रिपाठी, दिनेश मोहनिया, प्रकाश जारवाल गिरफ्तार हो चुके हैं। जितेंद्र सिंह तोमर पर फर्जी डिग्री का आरोप लगा है।
गिरफ्तार हुए सभी विधायक या तो जमानत पर हैं या फिर बरी हो चुके हैं। माननीय अदालत द्वारा दिल्ली पुलिस को कई बार झिड़की भी दी जा चुकी है। लेकिन दिल्ली पुलिस अति-उत्साह जरूर दिखाती है अगर आरोपी आम आदमी पार्टी से हो। आम आदमी पार्टी द्वारा कहा जा रहा है कि ये सब मामले राजनीति से प्रेरित हैं। सत्यता तो अदालत द्वारा प्रमाणित हो ही जाएगी, लेकिन तब तक आरोपी की प्रतिष्ठा का जो हनन हुआ है उसकी भरपाई कभी हो पायेगी ?
शनिवार, 23 जुलाई 2016
हर राजनेता लालची नहीं होता।
23 जुलाई, 2016
आज कल राजनीति में लोभ, लालच और भ्रष्टाचार का इतना बोल-बाला हो गया है कि कोई मानने को तैयार ही नहीं होता कि राजनीति में लोग नि:स्वार्थ सेवा के लिए भी आ सकते हैं। राजनीति की इस बदनामी के लिए निश्चित रूप से ऐसे राजनेता ही जिम्मेदार हैं जिन्होंने इस तरह के कर्म किए हैं। घोटाले पर घोटाले हो रहे हैं, सरकारी मशीनरियों का जम कर दुरूपयोग हो रहा है। जम के एक दूसरे का चरित्र हनन भी कर रहे हैं कुछ नेता तो कुछ एक-दूसरे को गाली भी देते रहते हैं। नारी सम्मान को भी दर-किनार करके बयानबाजी हो रही है, पिछले कुछ दिनों से।
ऐसे में कोई राजनीति में आता है तो यही सोचा जाता है कि वो पैसे बनाने आया है। कोई राजनीति में सादगी की बात करता है तो लोग मजाक उड़ाते हैं। कोई राजनीति में सादगी रखता है तो उसको पुराने राजनेता नौटंकी बताते हैं। किसी की बीमारी का भी मजाक उड़ाने में पीछे नहीं हट रहे हैं लोग। जब से आम आदमी पार्टी बनी है, भ्रष्टाचार से त्रस्त लोगों का, भ्रष्टाचार से लड़ने का जज्बा रखने वाले लोगों का पार्टी में आना जारी है। इस मुहीम में बहुत से लोग इस दूसरी पार्टी से भी आए हैं।
पार्टी बनने के बाद कांग्रेस से अलका लाम्बा जी आईं। लोगों ने उनको अवसरवादी कहा। अरे अवसरवादी ही होना होता तो कांग्रेस में कौन से छोटे पद पर थीं वो ? राष्ट्रीय महिला आयोग की सम्मानित सदस्य थीं, सत्ता सुख लेने के लिए उनको नई-नवेली पार्टी ही मिली थी, जिसका उस समय कोई राजनीतिक भविष्य नहीं था। उसके बाद बिहार में मंत्री पद को सुशोभित कर रही परवीन अमानुल्लाह जी आम आदमी पार्टी में शामिल हुईं। उनको पार्टी की तरफ से लोकसभा चुनाव में उम्मीदवार भी बनाया गया था।
लेकिन ये पार्टी का फैसला था, ये कहना गलत होगा कि वो सत्ता सुख के लालच में आम आदमी पार्टी में शामिल हुईं। मंत्री पद से बड़ा सत्ता सुख क्या हो सकता है जिसको छोड़ कर वो आई थी? अगर उनको सांसद बनने का ही लालच होता तो उनकी पार्टी जदयू भी टिकट दे सकती थी। उनको सिर्फ कहने भर की देर थी। इसी कड़ी में अभी थोड़े दिनों पहले ही नवजोत सिंह सिद्धू जी ने राज्यसभा की सदस्यता से इस्तीफा दिया है। पहले तो सिर्फ अटकलें थीं लेकिन अब तो बिलकुल साफ़ हो गया है कि वो कुछ ही दिनों में आम आदमी पार्टी में शामिल होंगे।
इनके इस्तीफा देते ही लोगों ने कहना शुरू कर दिया कि ये सत्ता सुख के लिए भाजपा छोड़ रहे हैं। जो आदमी 10 साल तक लोकसभा सांसद रह चूका हो और अभी-अभी 2-3 महीने पहले ही 6 साल के लिए राज्यसभा की सदस्यता के लिए मनोनीत हुआ हो, उसको क्यों छोड़ देगा ? लेकिन लोगों को तो उनकी बुराई करनी थी। कहने लगे कि पंजाब में आम आदमी पार्टी की तरफ से मुख्यमंत्री का उम्मीदवार बनने के लिए ये भाजपा से जा रहे हैं। जबकि आम आदमी पार्टी की तरफ से कहा गया कि उनको चुनाव का टिकट भी नहीं दिया जायेगा। अब लोग कह रहे हैं कि सिद्धू न इधर के रहे न उधर के। मतलब लालच का ही अर्थ निकाला जायेगा।
कोई ये क्यों नहीं कहता कि सिद्धू जी ने भ्रष्टाचार से लड़ाई लड़ने में आम आदमी पार्टी का साथ देने के लिए भाजपा एवं राज्यसभा की सदस्यता छोड़ी है ? क्यों किसी भी नेता के हर एक कदम को लोभ और लालच के साथ ही जोड़ा जाता है ? क्यों नहीं मान लिया जाता कि लोग ईमानदार राजनीति भी करते हैं ?
दयाशंकर अकेला नहीं, बहुत से नेताओं ने नारी का अपमान किया है।
21 जुलाई, 2016
कल भारतीय जनता पार्टी के उत्तर प्रदेश में उपाध्यक्ष दयाशंकर सिंह ने बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्ष मायावती जी के खिलाफ अमर्यादित टिप्पणी करके एक नए विवाद को जन्म दे दिया। इसकी खूब निंदा हुई, मायावती जी ने राज्यसभा में इसका कड़े शब्दों में विरोध जताया। इसके बाद उनको पार्टी के सभी पद से हटा दिया गया। फिर भारतीय जनता पार्टी से भी उनको निकाल दिया गया है। उनके खिलाफ मुकदमा भी दर्ज हुआ है। लेकिन फिर भी विवाद थमने का नाम नहीं ले रहा है। आज बसपा के कार्यकर्ताओं ने उत्तर प्रदेश में विरोध प्रदर्शन किया।
दयाशंकर सिंह का बयान निश्चित रूप से निंदनीय है। लेकिन ऐसा नहीं है कि पहली बार किसी नेता ने नारी अपमान सम्बन्धी बयान दिया है। अतीत में भी बहुत से नेताओं ने शर्मसार करने वाले बयान दिए हैं। ज्यादा दिन नहीं बीते जब मध्यप्रदेश के कई बार मुख्यमंत्री रह चुके वरिष्ठ कांग्रेसी नेता दिग्विजय सिंह ने एक महिला सांसद मीनाक्षी नटराजन को "सौ टंच माल" कहा था। समाजवादी पार्टी सुप्रीमो मुलायम सिंह ने कहा था कि चार लोग मिलकर एक लड़की का रेप कर ही नहीं सकते। उन्होंने रेप के मामले में ये भी कहा था कि लड़के हैं, गलती हो जाती है।
लालू प्रसाद जब बिहार के मुख्यमंत्री थे तब उन्होंने कहा था कि बिहार की सड़कों को हेमा मालिनी के गाल की तरह बना देंगे। अच्छी सड़क की उपमा देने के लिए उन्हे अभिनेत्री का गाल ही मिला था ? पिछले ही साल जनता दल यूनाइटेड के तत्कालीन अध्यक्ष शरद यादव ने तो राज्य सभा में इन्शुरन्स बिल पर बहस में साउथ इंडिया की औरतों के रंग पर ही विवादित बयान दे दिया था। सोशल मीडिया में चल रही खबरों की माने तो आज़म खान ने कहा था कि रामपुर में नाचने वाली आम्रपाली भी सांसद बन गयी थी।
असम के कांग्रेसी नेता नीलमणि सेन डेका ने तो केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी पर ही भद्दी टिप्पणी कर दी थी। उन्होंने कहा था कि बहुत से लोग स्मृति ईरानी को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की दूसरी पत्नी बताते हैं। कितना निर्लज्जतापूर्ण बयान है ये ? अभी इसी महीने जब स्मृति ईरानी जी का विभाग बदल कर कपडा मंत्रालय किया गया तो जदयू के नेता ने भद्दी टिप्पणी कर दी। जदयू के राज्य सभा सांसद अली अनवर ने कहा कि अच्छा है उनको कपड़ा मंत्रालय मिल गया, अब वो अपना तन ढक सकेंगी। कितना ओछा बयान है ये ? क्या मतलब है इसका ? स्मृति ईरानी जी को कपड़ा मंत्रालय मिलेगा तभी वो अपना तन ढक सकेंगी ?
ये अलग बात है कि इन सब मामलों में बात ज्यादा आगे नहीं बढ़ी थी। पीड़ित लोग सिर्फ निंदा करके या फिर बयानबाजों की क्षमा याचना से ही संतुष्ट होकर मामला ख़त्म कर दिया होगा। लेकिन फिर भी, क्या जरूरी है नेताओं को ऐसे बोल बोलना ? चुप भी तो रहा जा सकता है ? क्या मर्यादित शब्द ख़त्म हो गए शब्द कोष से ? राजनीतिक विरोध एवं प्रतिद्वंद्विता अपनी जगह, लेकिन नेताओं को व्यक्तिगत आक्षेप तो नहीं करने चाहिए।
लालू प्रसाद जब बिहार के मुख्यमंत्री थे तब उन्होंने कहा था कि बिहार की सड़कों को हेमा मालिनी के गाल की तरह बना देंगे। अच्छी सड़क की उपमा देने के लिए उन्हे अभिनेत्री का गाल ही मिला था ? पिछले ही साल जनता दल यूनाइटेड के तत्कालीन अध्यक्ष शरद यादव ने तो राज्य सभा में इन्शुरन्स बिल पर बहस में साउथ इंडिया की औरतों के रंग पर ही विवादित बयान दे दिया था। सोशल मीडिया में चल रही खबरों की माने तो आज़म खान ने कहा था कि रामपुर में नाचने वाली आम्रपाली भी सांसद बन गयी थी।
असम के कांग्रेसी नेता नीलमणि सेन डेका ने तो केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी पर ही भद्दी टिप्पणी कर दी थी। उन्होंने कहा था कि बहुत से लोग स्मृति ईरानी को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की दूसरी पत्नी बताते हैं। कितना निर्लज्जतापूर्ण बयान है ये ? अभी इसी महीने जब स्मृति ईरानी जी का विभाग बदल कर कपडा मंत्रालय किया गया तो जदयू के नेता ने भद्दी टिप्पणी कर दी। जदयू के राज्य सभा सांसद अली अनवर ने कहा कि अच्छा है उनको कपड़ा मंत्रालय मिल गया, अब वो अपना तन ढक सकेंगी। कितना ओछा बयान है ये ? क्या मतलब है इसका ? स्मृति ईरानी जी को कपड़ा मंत्रालय मिलेगा तभी वो अपना तन ढक सकेंगी ?
ये अलग बात है कि इन सब मामलों में बात ज्यादा आगे नहीं बढ़ी थी। पीड़ित लोग सिर्फ निंदा करके या फिर बयानबाजों की क्षमा याचना से ही संतुष्ट होकर मामला ख़त्म कर दिया होगा। लेकिन फिर भी, क्या जरूरी है नेताओं को ऐसे बोल बोलना ? चुप भी तो रहा जा सकता है ? क्या मर्यादित शब्द ख़त्म हो गए शब्द कोष से ? राजनीतिक विरोध एवं प्रतिद्वंद्विता अपनी जगह, लेकिन नेताओं को व्यक्तिगत आक्षेप तो नहीं करने चाहिए।
शराब बंदी सिर्फ गरीबों के लिए ही है क्या ?
23 जुलाई, 2016
1 अप्रैल, 2016 से बिहार में पूर्ण शराबबंदी लागू है। किसी भी तरह के मदिरापान पर प्रतिबन्ध है। सिर्फ पीना ही नहीं बल्कि बेचना, लाना, ले जाना सब जुर्म के दायरे में है। यहाँ तक कि बिहार से गुजरती हुई ट्रेन में भी अगर किसी ने शराब पी तो उसकी खैर नहीं। ट्रेन में तो वैसे भी शराब पीना मना है, लेकिन बिहार वाला कानून लागू होने पर कड़ी सजा का प्रावधान है। पता नहीं बिहार के रास्ते ट्रकों में दूसरे राज्य जहाँ शराबबंदी नहीं है, माल सप्लाइ के लिए ले जाना जुर्म है या नहीं। खूब धर-पकड़ हो रही है, शराब पीने वालों की। शायद यही एक नीति थी नीतीश जी की, जिसकी सभी दलों नें मुक्तकंठ से प्रशंसा की थी। किसी ने विरोध नहीं किया। नीतीश जी बिहार में शराबबंदी की खूब तारीफ कर रहे हैं दूसरे राज्यों में जाकर।
शराब मिलनी मुश्किल हो गयी है बिहार में, लेकिन शायद नामुमकिन नहीं हुई है। कल ही एक न्यूज चैनल पर स्टिंग दिखाया गया कि कैसे रेफरेंस देने पर शराब मुहैया कराई जाती है खास लोगों को बिहार में। 2-4 दिन पहले ही सत्तारूढ़ गठबंधन के घटक दल राजद के विधायक वीरेंद्र ने आरोप लगाया कि राज्य में बड़े नेता और अधिकारी बाहर से शराब मँगा कर पी रहे हैं। इन सबके बाद तो यही लगता है कि बिहार में शराबबंदी सिर्फ गरीबों के लिए ही है। पैसे और रसूख वाले लोग अभी भी जाम छलका रहे हैं।
जब शराबबंदी लागू हुई थी तब भी बुद्धिजीवियों के एक वर्ग को अंदेशा था कि कहीं ऐसा ही न हो। तब इन सारी आशंकाओं को सिरे से ख़ारिज कर दिया गया था। लेकिन आज जिस नीति का प्रचार नीतीश जी दूसरे राज्यों में जाकर कर रहे हैं, उसी को कमजोर किया जा रहा है बिहार में। नीतीश जी उत्तर प्रदेश में रैली करते हैं तो अखिलेश जी को चुनौती देते हैं कि उत्तर प्रदेश में भी शराबबंदी लागू करें। बड़े शान से नीतीश जी कहते हैं कि बिहार की जनता शराबबंदी से खूब खुश है, खूब समर्थन कर रही है। नीतीश जी, जनता कितना समर्थन दे रही है सब पता चल जायेगा बस एक बार शराबबंदी के उल्लंघन से सजा का प्रावधान हटा कर देख लीजिये। बिहार के बॉर्डर इलाकों से शराब पीते हुए लोगों का पकड़ा जाना, समर्थन के दावे की हवा निकालने का प्रत्यक्ष प्रमाण है।
मैं भी शराब एवं किसी भी प्रकार के नशे के खिलाफ हूँ। मैं मानता हूँ कि इस तरह की चीजें प्रतिबंधित होनी चाहिए। शराबबंदी करके नीतीश जी ने बहुत अच्छा कदम उठाया है बिहार में। लेकिन जो लोग इस नेक कार्य की हवा निकलने में लगे हैं उनके खिलाफ कड़ी कार्रवाई होनी चाहिए। ऐसा नहीं कि यह मुहीम सिर्फ गरीबों के लिए ही लागू होकर रह जाए और अमीर लोग शराबबंदी को चिढ़ाते रहे।
शुक्रवार, 22 जुलाई 2016
अपमान का बदला अपमान से ?
22 जुलाई, 2016
परसों 20 जुलाई, 2016 को भाजपा के उत्तर प्रदेश की इकाई के उपाध्यक्ष दयाशंकर सिंह ने बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्षा मायावती जी की तुलना वेश्या से कर दिया था। इसके बाद उनको पहले तो पार्टी के सभी पदों से हटाया गया फिर उन्हें पार्टी से निष्कासित भी कर दिया गया। उनके खिलाफ बसपा द्वारा पुलिस में प्राथमिकी भी दर्ज कराई गई। पुलिस उनको गिरफ्तार करने के लिए ढूंढ रही है। कल बहुजन समाज पार्टी ने उत्तर प्रदेश में जबरदस्त विरोध प्रदर्शन भी किया। लेकिन कल बसपा की विधायक ने भी दयाशंकर के खिलाफ विवादित बयान दे दिया।
खबरों के मुताबिक बहुजन समाज पार्टी की विधायक उषा चौधरी ने कहा कि मुझे लगता है कि दयाशंकर के डीएनए में ही खराबी है और दयाशंकर खुद अवैध औलाद है, इसीलिए उसने बहन जी के खिलाफ इस तरह की टिप्पणी की है। अगर ये बात सत्य है तो इनका बयान भी उतना ही निंदनीय है। उसने बहन जी की तुलना वेश्या से कर दी और इन्होने दयाशंकर को अवैध औलाद कह दिया। अपमान के बदले अपमान की इजाजत तो नहीं दी जा सकती न ? क्या हो गया है आज कल के नेताओं को ? इतना बड़बोलापन किस लिए ? विरोध संयमित रहकर और मर्यादित भाषा का उपयोग करके भी तो किया जा सकता है।
परसों मायावती जी भी इस प्रकरण के बाद बहुत गुस्से में थी। लेकिन उन्होंने राज्यसभा में अपने भाषण के दौरान एक बार भी अमर्यादित शब्दों का प्रयोग नहीं किया। उन्होंने कड़े शब्दों में इसकी आलोचना की, अपने गुस्से एवं दर्द का इजहार किया लेकिन ओछी भाषा का प्रयोग नहीं किया। जब मायावती जी खुद संयमित रह कर बोल रही है, तो उनकी पार्टी की महिला विधायक से ऐसी बयानबाजी की उम्मीद कदापि नहीं की जा सकती। दयाशंकर सिंह ने मायावती जी का अपमान किया तो उसके खिलाफ पार्टी ने कार्रवाई की, पुलिस भी कार्रवाई कर रही है। क्या बहुजन समाज पार्टी अपनी विधायक के खिलाफ कोई कार्रवाई करेगी ? क्या भाजपा द्वारा इनके खिलाफ कोई पुलिस कम्प्लेन की जाएगी ?
इसी प्रकरण में बसपा के एक नेता ने दयाशंकर की जीभ लाने वाले को 50 लाख रुपये देने घोषणा कर दी। अतीत में भी जन प्रतिनिधियों द्वारा अनर्गल बयानबाजी की जा चुकी है। बिहार विधानसभा के चुनाव प्रचार के दौरान भी भाजपा के एक नेता द्वारा डीएनए वाली बयानबाजी हुई थी। इसका खामियाजा भाजपा को चुनाव परिणाम के रूप में भुगतना पड़ चूका है।सोचने वाली बात ये है कि राजनीति किस दिशा में जा रही है। जनता के प्रतिनिधि अपनी जुबान पर नियंत्रण क्यों नहीं रख पाते हैं ? क्या राजनीतिक महत्वाकांक्षा, शालीनता पर भारी पर रही है ? जनप्रतिनिधियों से तो समाज को राह दिखाने की उम्मीद की जाती है। कैसी राह दिखा रहे हैं ऐसे नेता ?
गुरुवार, 21 जुलाई 2016
राजनीति करना जरूरी है क्या राहुल जी ?
राजनीति की एक बात बड़ी ही निराली है। इसमें खानदानी परंपरा चलने की बड़ी आसानी होती है। पिताजी या माताजी या फिर घर का कोई सदस्य अगर राजनीति में हो तो दूसरे सदस्य की जमीन अपने आप बन जाती है। किसी और व्यवसाय में इतनी आजादी या सम्भावना नहीं होती। मसलन अगर डॉक्टर का बेटा, इंजीनियर का बेटा, कलक्टर का बेटा अपने पिता के व्यवसाय में जाना चाहे तो उसको बड़ी मेहनत करनी पड़ती है। उसके बाद भी उसको उस व्यवसाय में जगह मिल जाए ये जरूरी नहीं होता। लेकिन, राजनीति में ऐसा नहीं होता। बस एक कुरता पायजामा पहना और कूद पड़े भैया के व्यवसाय में। बस अपने परिवार के अन्य सदस्य के कार्यों को ही तो बताना होता है।
राजनीति धीरे-धीरे नेताओं के लिए एक पारिवारिक व्यवसाय सा बन कर रह गया है। कमोबेश हर पार्टी में यही हाल है, नई-नवेली पार्टी को छोड़ कर। ज्योंहि बेटा या बेटी बालिग हुई या फिर राजनीति में आने का मन बनाया, नेता जी अपने बचवा को आगे करना शुरू कर देते हैं। अगर सामान्य कार्यकर्त्ता के तौर पर पार्टी ज्वाइन करे फिर तो कोई बात ही नहीं। लेकिन इधर तो कहीं सीधे पत्नी को मुख्यमंत्री ही बना देते हैं या फिर बेटे-बेटी को पार्टी में शामिल कराते ही चुनाव का टिकट थमा देते हैं। कार्यकर्ता भी चाहते न चाहते हुए नेता पुत्र - पुत्री के लिए झंडा उठाके निकल पड़ते हैं। जनता भी पीछे नहीं हटती, सोचती है कि इनके बाबूजी को हम लोग इतना प्यार दिए हैं तो इनको कैसे नहीं दें। मतलब गुण-अवगुण नहीं देखना बस इमोशन काम कर जाता है।
ऐसा नहीं है कि सारे ही नेता पुत्र-पुत्री-पत्नी भाग्यशाली होते हैं, कुछ को हार का भी सामना करना पड़ता है। लेकिन राजनीति में एंट्री तो बहुत आसान और धमाकेदार तो हो ही जाती है। अब कांग्रेस पार्टी को ही ले लीजिए। इस पार्टी में तो पार्टी की कमान ही हमेशा से एक ही खानदान के हाथ रही है, अध्यक्ष कोई भी हो लेकिन चलती सिर्फ इसी खानदान की ही है। अब तो माता जी पार्टी अध्यक्ष हैं और बेटा पार्टी उपाध्यक्ष, बहन जी की पार्टी में आने की खबर आ रही है। यूँ तो राहुल गांधी जी पार्टी की सेवा काफी वर्षों से कर रहे हैं, लोकसभा सांसद भी हैं और अगर लोकसभा में कांग्रेस की संख्या पर्याप्त होती तो विपक्ष के नेता भी होते। लेकिन उनमें अभी भी उस राजनीतिक चातुर्य, कौशल का नितांत अभाव है जिसकी अपेक्षा कांग्रेस जैसी पुरानी और अनुभवी पार्टी के उपाध्यक्ष से की जाती है।
अतीत में राहुल गाँधी जी अपने भाषणों में कई बार ऐसे वाक्यों या तथ्यों का प्रयोग कर चुके हैं, जिसके कारण इनका बहुत मजाक सोशल मीडिया में उड़ाया जा चूका है। कुछ लोगों ने तो उनके भाषणों के अटपटे अंशों का संकलन करके उसका वीडियो भी यूट्यूब पर डाला हुआ है। ऐसे वीडियो को अच्छी*खासी व्यूअरशिप भी मिल रही है। अभी कल की ही बात है मीडिया की खबर के अनुसार राहुल गांधी लोकसभा में दलित अत्याचार सम्बन्धी मामले पर चर्चा के दौरान सोते हुए देखे गए। वैसे बाद में कांग्रेस नेताओं का कहना था कि वो चिंतन-मनन कर रहे थे, किसी ने कहा कि इनबॉक्स देख रहे थे।
वैसे से राहुल गाँधी जब से राजनीति में आये हैं पार्टी में कोई करिश्मा नहीं दिखा पाये हैं। पार्टी के लोकसभा सांसदों की संख्या अभी तक के न्यूनतम स्तर 44 पर पहुँच चुकी है। फिर भी कांग्रेस पार्टी इनके महिमा मंडन में पीछे नहीं रहती। कोई दूसरा चारा भी तो नहीं है। परन्तु राहुल गाँधी जी तो कुछ और कर सकते हैं। अगर कोई व्यक्ति किसी काम में सफल नहीं हो रहा है तो जरुरी नहीं न कि वही काम करता रहे। बहुत से नेता पुत्र -पुत्री हैं जो राजनीति में नहीं हैं और अपना व्यवसाय अच्छे से कर रहे हैं। दिवंगत भाजपा नेता प्रमोद महाजन जी के पुत्र राहुल महाजन से ज्यादा सटीक उदहारण क्या हो सकता है ? उनके पिता भारतीय राजनीति के उभरते सितारे थे।
भाजपा में अटल-अडवाणी के बाद प्रमोद महाजन जी तीसरे स्थान की तरफ तेजी से बढ़ रहे थे। राजनीति का हर कौशल उनमें कूट-कूट कर भरा था। अभी अगर जिन्दा होते तो शायद भारत के प्रधानमंत्री भी हो सकते थे। लेकिन राहुल महाजन जी को राजनीति में कोई दिलचस्पी नहीं हुई। वह दूसरे क्षेत्र में अपना पराक्रम दिखा रहे हैं। ऐसा ही तो राहुल जी कर सकते हैं कि अपनी दिलचस्पी वाले क्षेत्र में अपना कौशल दिखाएँ। लेकिन ऐसा मुमकिन नहीं है। अगर राहुल जी चाहेंगे तब भी कांग्रेसी उनको राजनीति से दूर नहीं जाने देंगे। क्योंकि कांग्रेसियों को अच्छी तरह पता है कि आज या कल, सत्ता गांधी परिवार के माध्यम से ही मिलनी है कांग्रेस को।
अतीत में राहुल गाँधी जी अपने भाषणों में कई बार ऐसे वाक्यों या तथ्यों का प्रयोग कर चुके हैं, जिसके कारण इनका बहुत मजाक सोशल मीडिया में उड़ाया जा चूका है। कुछ लोगों ने तो उनके भाषणों के अटपटे अंशों का संकलन करके उसका वीडियो भी यूट्यूब पर डाला हुआ है। ऐसे वीडियो को अच्छी*खासी व्यूअरशिप भी मिल रही है। अभी कल की ही बात है मीडिया की खबर के अनुसार राहुल गांधी लोकसभा में दलित अत्याचार सम्बन्धी मामले पर चर्चा के दौरान सोते हुए देखे गए। वैसे बाद में कांग्रेस नेताओं का कहना था कि वो चिंतन-मनन कर रहे थे, किसी ने कहा कि इनबॉक्स देख रहे थे।
वैसे से राहुल गाँधी जब से राजनीति में आये हैं पार्टी में कोई करिश्मा नहीं दिखा पाये हैं। पार्टी के लोकसभा सांसदों की संख्या अभी तक के न्यूनतम स्तर 44 पर पहुँच चुकी है। फिर भी कांग्रेस पार्टी इनके महिमा मंडन में पीछे नहीं रहती। कोई दूसरा चारा भी तो नहीं है। परन्तु राहुल गाँधी जी तो कुछ और कर सकते हैं। अगर कोई व्यक्ति किसी काम में सफल नहीं हो रहा है तो जरुरी नहीं न कि वही काम करता रहे। बहुत से नेता पुत्र -पुत्री हैं जो राजनीति में नहीं हैं और अपना व्यवसाय अच्छे से कर रहे हैं। दिवंगत भाजपा नेता प्रमोद महाजन जी के पुत्र राहुल महाजन से ज्यादा सटीक उदहारण क्या हो सकता है ? उनके पिता भारतीय राजनीति के उभरते सितारे थे।
भाजपा में अटल-अडवाणी के बाद प्रमोद महाजन जी तीसरे स्थान की तरफ तेजी से बढ़ रहे थे। राजनीति का हर कौशल उनमें कूट-कूट कर भरा था। अभी अगर जिन्दा होते तो शायद भारत के प्रधानमंत्री भी हो सकते थे। लेकिन राहुल महाजन जी को राजनीति में कोई दिलचस्पी नहीं हुई। वह दूसरे क्षेत्र में अपना पराक्रम दिखा रहे हैं। ऐसा ही तो राहुल जी कर सकते हैं कि अपनी दिलचस्पी वाले क्षेत्र में अपना कौशल दिखाएँ। लेकिन ऐसा मुमकिन नहीं है। अगर राहुल जी चाहेंगे तब भी कांग्रेसी उनको राजनीति से दूर नहीं जाने देंगे। क्योंकि कांग्रेसियों को अच्छी तरह पता है कि आज या कल, सत्ता गांधी परिवार के माध्यम से ही मिलनी है कांग्रेस को।
बुधवार, 20 जुलाई 2016
एक बार फिर भाजपा का दलित विरोधी चेहरा बेनकाब हुआ।
20 जुलाई, 2016
आम तौर पर यही धारणा है कि भारतीय जनता पार्टी अगड़ों की पार्टी है। इसमें ऊँचे-ऊँचे पदों पर सवर्ण जाति के लोग ही पदस्थापित हैं। समय-समय पर भाजपा इस मिथक को तोड़ने का प्रयास भी करती है। चुनाव के दिनों में तो इसका प्रयास कई गुणा ज्यादा ही हो जाता है। कभी पार्टी के कुछ मुस्लिम चेहरों को आगे करके, पार्टी मुस्लिमों की हितैषी होने का भी दावा करती है। कहने का मतलब कि पार्टी वो सब कुछ करती है जिससे इसको हर तबके का वोट मिले। लेकिन बेहद अफ़सोस की बात है कि इसकी सारी कवायद, वोट की राजनीति तक ही सिमट कर रह जाती है।
पिछले कुछ दिनों से सोशल मीडिया में एक वीडियो वायरल हो रही है और अब तो न्यूज चैनल पर भी दिखाई गयी है एक दो बार। इसमें कुछ लोगों की डंडे से जमकर पिटाई की जा रही है। बताया जा रहा है कि यह गुजरात की घटना है जिसमें दलितों की पिटाई की जा रही है। अगर यह सच है तो बहुत ही निंदनीय और अमानवीय कृत्य है यह। गुजरात, जहाँ भारतीय जनता पार्टी का आज से नहीं बल्कि कई सालों से एक छत्र राज है, और जिसके विकास मोडल की खूब मिसाल देते हैं गैर भाजपा शासित प्रदेशों में भाजपा वाले, वहाँ ऐसी घटना होना एक बदनुमा दाग ही है।
कुछ पुलिस वालों को सस्पेंड कर दिया गया है, जाँच भी शुरू कर दी गयी है शायद। ऐसा हर घटना के बाद किया जाता है सरकार द्वारा, इसमें कुछ खास नहीं है। हाँ अगर मुअत्तल किया जाता तो नई खबर होती। अगर विकास कार्यों की तारीफ सरकार को मिलती है तो ऐसी घटनाओं को रोकने में असफल होने की बदनामी किसको मिलेगी ? निश्चित रूप से भाजपा सरकार को ही। इस घटना की निंदा, विरोध प्रदर्शन हो ही रही थी कि आज उत्तर प्रदेश के भाजपा उपाध्यक्ष ने एक और निंदनीय कृत्य कर दिया। बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्षा मायावती जी के लिए अपशब्द का प्रयोग कर दिया उन्होंने, खुलेआम।
लोकतंत्र में राजनीतिक मतभेद चलते रहते हैं, विचारों का अंतर होता है, नीतिओं में फर्क होता है। लेकिन अपने विरोधी दल के नेता के लिए ऐसे शब्दों का प्रयोग ? ये भाजपा की नैतिकता किस ओर जा रही है ? मायावती जी एक सम्मानित महिला होने के साथ-साथ कई बार उत्तरप्रदेश की मुख्यमंत्री रह चुकी हैं। लोकसभा और राज्य सभा की भी सदस्य रह चुकी है कई बार। अभी भी वो सांसद हैं। उनके लिए ऐसे शब्दों का प्रयोग करते हुए उनको थोड़ी सी भी हिचकिचाहट नहीं हुई ?
दरअसल, भाषण करते हुए नेताओं को लगता है कि ऐसी बात करे कि पार्टी को खूब पसंद आए और पार्टी उनको प्रोमोशन दे। ये प्रोमोशन किसी चुनाव में टिकट या फिर पार्टी में बड़ा ओहदा हो सकता है। लेकिन, पार्टी को खुश करने के चक्कर में कुछ नेता कभी-कभी जोश में आकर होश खो बैठते हैं और कुछ ऐसा बोल जाते हैं जिससे उनके साथ-साथ पार्टी की किरकिरी तो होती ही है, किसी का अपमान तो किसी की भावना भी आहत हो जाती है। कई बार ऐसी बयानबाजी किसी गम्भीर अपराध की श्रेणी में भी आ जाती है।
मामला तूल पकड़ता देख उन्होंने माफ़ी भी माँग ली। लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी। वैसे तो बेतुकी बयानबाजी करने में भाजपा के कुछ नेता तो माहिर हैं ही। कई बार ऐसे नेता बेतुकी और बेवजह की बयान बाजी करके भाजपा के लिए मुसीबत खड़ी कर चुके हैं। कई बार पार्टी के दूसरे नेता इसकी लीपापोती करके मामला को ठंडा करने में कामयाब भी हो जाते हैं। लेकिन इस बार ऐसा न हो सका। बसपा के नेताओं ने इसकी कड़ी प्रतिक्रिया दी। स्वयं मायावती जी ने भी संसद में इसकी कड़े शब्दों में निंदा की। अरुण जेटली जी को सदन में बयान भी देना पड़ा। परन्तु मामला इतना ज्यादा बढ़ चूका था कि उपाध्यक्ष महोदय को अपनी कुर्सी गँवानी पड़ी। पार्टी के सारे पदों से मुक्त कर दिया गया है उन्हें।
लेकिन सवाल ये है कि अभी तक भाजपा ने इसके खिलाफ पुलिस में शिकायत क्यों नहीं की ? अगर भाजपा को मायावती जी के अपमान का इतना दुःख है तो खुद से ही पुलिस में प्राथमिकी दर्ज करानी चाहिए थी अपने नेता के खिलाफ। अगर यही कृत्य किसी दूसरी पार्टी के नेता ने किया होता तो अभी तक सलाखों के पीछे होता। लेकिन भाजपा सिर्फ उनको उपाध्यक्ष पद से हटाकर ही अपना फर्ज पूरा समझ रही है।
ये ठुल्ला - ठुल्लू क्या है ?
20 जुलाई, 2016
आज कल कुछ शब्द बड़े ही प्रचलन में आ गए हैं, जिसका कोई मतलब किसी डिक्शनरी में ढूंढें से भी नहीं मिल रहा है। बचपन में मेरे शिक्षक शरारती बच्चों को "चियाक" कहते थे। तब से लेकर अब तक इस शब्द के मायने ढूंढ रहा हूँ, कहीं ढूंढें नहीं मिल रहा है। फिल्मों में भी ऐसे अर्थहीन शब्द होते है, कई बार। "ओए-ओए", "ओले-ओले " जैसे शब्द फ़िल्मी दुनिया की ही देन है। कई बार तो फिल्मों में प्रयुक्त अर्थहीन शब्द लोगों की जुबान पर ऐसे चढ़ जाते हैं कि न चाहते हुए भी लोग इसको दुहराते रहते हैं।
ऐसे ही शब्दों में शुमार है "ठुल्ला" शब्द भी। कभी इसका मतलब समझ नहीं आया। किसी भी डिक्शनरी में इसका मतलब नहीं मिलता है, किसी को मिलता हो तो बताइए। सुना है कि अरविन्द केजरीवाल जी ने इस शब्द का प्रयोग कर दिया अपने किसी भाषण में। अब किसी साहेब की भावना आहत हो गयी और उन्होंने शिकायत कर दी न्यायालय में। मामला किसी की भावना से जुड़ा हुआ है तो न्यायालय द्वारा सुनवाई के लिए स्वीकार भी कर लिया गया। अब इस शब्द का कोई डिक्शनरी या पारम्परिक मायने हो तब तो कुछ निष्कर्ष भी निकले। लिहाजा जज साहेब ने केजरीवाल जी से ही पुछा है कि चूँकि आपने इस शब्द का प्रयोग किया है तो आपको इसका मतलब जरूर पता होगा। इसलिए आप इसका मतलब माननीय न्यायालय को बताइए।
अब ये भावना आहत होने वाली चीज भी बड़ी महत्त्वपूर्ण है। कब, किसकी, किस बात पर भावना आहत हो जाए, कोई नहीं जान सकता। वैसे "प्रिय" शब्द बुरा नहीं है मेरी नजर में लेकिन अगर मैं किसी को कह दूँ तो हो सकता है उसकी भावना आहत हो जाए। मुझे याद है, मेरे एक बॉस हम सबको "माय डियर" कहकर सम्बोधित करते थे और हमने कभी बुरा नहीं माना। वैसे तो हम अंग्रेजी सीखने के लिए बड़े उतावले रहते हैं, लेकिन जो शब्द अंग्रेजी में आम है उसका प्रयोग करने पर किसी किसी की भावना भी आहत हो जाती है।
हम बात कर रहे थे अर्थहीन शब्द की। कपिल शर्मा अपने एक शो में एक शब्द या शब्द-समूह कह लीजिए, उसका बड़ा प्रयोग करते थे। सही पकडे हैं , "बाबा जी का ठुल्लू " । यह शब्द अब बहुत से लोगो की जुबान पर चढ़ गया है। अब सोच लीजिए यह सुनकर किसी बाबा जी की भावना आहत हो जाए। अगर वो कपिल शर्मा या फिर प्रोडक्शन टीम पर ही मुकदमा कर दे तो क्या होगा ? हो सकता है कि उनको कोर्ट में जाकर इसका मायने बताना पड़े, क्योंकि डिक्शनरी में इसका मतलब मुझे नहीं मिल रहा है। यह देखना भी बड़ा दिलचस्प होगा कि कपिल शर्मा या प्रोडक्शन टीम इस के क्या मायने बताती है।
वैसे मैं भी बता दूँ, मेरा मकसद सिर्फ अपने विचार व्यक्त करना है, अगर मेरे लेख से या फिर इसमें प्रयुक्त किसी भी शब्द से किसी की भी भावना आहत होती हो या न्यायालय की अवमानना होती हो तो मैं पहले ही बिना शर्त माफ़ी माँग लेता हूँ।
ऐसे ही शब्दों में शुमार है "ठुल्ला" शब्द भी। कभी इसका मतलब समझ नहीं आया। किसी भी डिक्शनरी में इसका मतलब नहीं मिलता है, किसी को मिलता हो तो बताइए। सुना है कि अरविन्द केजरीवाल जी ने इस शब्द का प्रयोग कर दिया अपने किसी भाषण में। अब किसी साहेब की भावना आहत हो गयी और उन्होंने शिकायत कर दी न्यायालय में। मामला किसी की भावना से जुड़ा हुआ है तो न्यायालय द्वारा सुनवाई के लिए स्वीकार भी कर लिया गया। अब इस शब्द का कोई डिक्शनरी या पारम्परिक मायने हो तब तो कुछ निष्कर्ष भी निकले। लिहाजा जज साहेब ने केजरीवाल जी से ही पुछा है कि चूँकि आपने इस शब्द का प्रयोग किया है तो आपको इसका मतलब जरूर पता होगा। इसलिए आप इसका मतलब माननीय न्यायालय को बताइए।
अब ये भावना आहत होने वाली चीज भी बड़ी महत्त्वपूर्ण है। कब, किसकी, किस बात पर भावना आहत हो जाए, कोई नहीं जान सकता। वैसे "प्रिय" शब्द बुरा नहीं है मेरी नजर में लेकिन अगर मैं किसी को कह दूँ तो हो सकता है उसकी भावना आहत हो जाए। मुझे याद है, मेरे एक बॉस हम सबको "माय डियर" कहकर सम्बोधित करते थे और हमने कभी बुरा नहीं माना। वैसे तो हम अंग्रेजी सीखने के लिए बड़े उतावले रहते हैं, लेकिन जो शब्द अंग्रेजी में आम है उसका प्रयोग करने पर किसी किसी की भावना भी आहत हो जाती है।
हम बात कर रहे थे अर्थहीन शब्द की। कपिल शर्मा अपने एक शो में एक शब्द या शब्द-समूह कह लीजिए, उसका बड़ा प्रयोग करते थे। सही पकडे हैं , "बाबा जी का ठुल्लू " । यह शब्द अब बहुत से लोगो की जुबान पर चढ़ गया है। अब सोच लीजिए यह सुनकर किसी बाबा जी की भावना आहत हो जाए। अगर वो कपिल शर्मा या फिर प्रोडक्शन टीम पर ही मुकदमा कर दे तो क्या होगा ? हो सकता है कि उनको कोर्ट में जाकर इसका मायने बताना पड़े, क्योंकि डिक्शनरी में इसका मतलब मुझे नहीं मिल रहा है। यह देखना भी बड़ा दिलचस्प होगा कि कपिल शर्मा या प्रोडक्शन टीम इस के क्या मायने बताती है।
वैसे मैं भी बता दूँ, मेरा मकसद सिर्फ अपने विचार व्यक्त करना है, अगर मेरे लेख से या फिर इसमें प्रयुक्त किसी भी शब्द से किसी की भी भावना आहत होती हो या न्यायालय की अवमानना होती हो तो मैं पहले ही बिना शर्त माफ़ी माँग लेता हूँ।
सोमवार, 18 जुलाई 2016
आ गए गुरु, ठोको ताली।
19 जुलाई, 2016
आज भाजपा नेता एवं राज्यसभा सांसद नवजोत सिंह सिद्धू जी ने राज्य सभा से इस्तीफा दे दिया। कह रहे थे कि पंजाब का हित सबसे ऊपर है। उनकी बात पर यकीन करना होगा। क्योंकि ऐसी कोई सुविधा नहीं थी जो पार्टी ने उनको नहीं दे रखी थी। अभी थोड़े ही दिनों पहले 25 अप्रैल, 2016 को ही तो राज्यसभा के लिए मनोनीत किए गए थे। इससे पहले भी भारतीय जनता पार्टी के टिकट पर लगातार दो टर्म, 2004 से 2014 तक अमृतसर से लोकसभा सांसद रहे हैं। उनकी पत्नी भी पंजाब में विधायक और संसदीय सचिव के पद को सुशोभित कर रही हैं।
बहुत से लोग पार्टी द्वारा उपेक्षित होने के बाद ही पार्टी को छोड़ते हैं। उनके पास कोई दूसरा चारा ही नहीं होता है। लेकिन सिद्धू जी के साथ ऐसा नहीं है। लेकिन ऐसा भी नहीं था कि सबकुछ ठीक-ठाक ही था। व्यक्तिगत रूप से बेशक सिद्धू परिवार को पार्टी या सरकार से नाराजगी नहीं थी, लेकिन पंजाब में जिस तरह से एनडीए सरकार काम-काज कर रही है, उससे बहुत नाराज थे वो। अपनी नाराजगी उन्होंने कई बार उचित मंचों से प्रकट भी की थी। लेकिन पार्टी का रवैया ज्यों का त्यों ही रहा। मजबूरन निराश होकर ही उन्होंने इस पार्टी का त्याग करने का निश्चय किया होगा।
खबर है कि वो आम आदमी पार्टी में शामिल होने वाले हैं। अगर ऐसा होता है तो यह पंजाब की जनता के लिए बहुत ही सुखद सन्देश है। सिद्धू जैसा व्यक्तित्व अगर आम आदमी पार्टी में शामिल होकर पंजाब की जनता की सेवा करेंगे, तो पंजाब की भलाई को कोई नहीं रोक सकता। उनके पार्टी में आने से निश्चित रूप से अरविन्द केजरीवाल जी के हाथ मजबूत होंगे और भ्रष्टाचार, ड्रग्स मुक्त पंजाब की उनकी मुहिम को और बल मिलेगा, गति मिलेगी।
सिद्धू जी ही क्यों, पुरानी राजनीतिक पार्टियों के किसी भी नेता, जो अपनी पार्टी में रहकर भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी के खिलाफ लड़ने में, जनता की सेवा करने में, उनके दुःख-दर्द को दूर करने में खुद को असमर्थ समझते हों, उनके लिए पहले कोई विकल्प नहीं था। कमोबेश सारी ही पार्टियाँ एक जैसी थी। विपक्ष में रहकर जिस बात के लिए सरकार की आलोचना करती थी, कई-कई दिनों तक संसद, विधानसभा ठप्प करती थी, धारा 356 एवं सीबीआई के दुरूपयोग का आरोप लगाती थी, धरना प्रदर्शन करती थी, कभी भारत बंद तो कभी राज्य बंद का आह्वान करती थी, सत्ता में आने के बाद ठीक वही सब करती थी। लेकिन अब पिछले 2-3 सालों से आम आदमी पार्टी के रूप में एक बहुत ही बढ़िया विकल्प मिल गया है।
पहले भी आम आदमी पार्टी में दूसरी पार्टी से नेता आये हैं। अभी भी कांग्रेस और भाजपा में कई ऐसे नेता होंगे जो पार्टी के रवैये से दुखी होंगे एवं उचित वक्त पर आम आदमी पार्टी का दामन थाम सकते हैं। भाजपा में जैसे लाल कृष्ण आडवाणी जी, मुरली मनोहर जोशी जी या फिर यशवंत सिन्हा जी जैसे बुजुर्ग और अनुभवी नेताओं की उपेक्षा हो रही है, कोई ताज्जुब नहीं होगा कि निकट भविष्य में ये लोग भी कुछ ऐसा ही निर्णय ले लें। अभी भी भाजपा सांसद कीर्ति आजाद और शत्रुघ्न सिन्हा पार्टी एवं केंद्र सरकार के काम काज से ज्यादातर नाराज ही रहते हैं। शत्रुघ्न सिन्हा तो खुलकर पार्टी की आलोचना करते सुने गए हैं। ऐसे ईमानदार एवं जनसेवा के प्रति प्रतिबद्ध नेताओं के लिए आम आदमी पार्टी बहुत ही उचित मंच है और आम आदमी पार्टी के दरवाजे तो ऐसे ईमानदार नेताओं के स्वागत के लिए शुरू से ही खुले हुए हैं।
सिद्धू जी ने निश्चित रूप से, चाहे एक क्रिकेटर के रूप में हो या फिर राजनेता के रूप में, देश की बहुत सेवा की है। कई रियल्टी शो में सम्मिलित होकर जनता का मनोरंजन किया है। अब आम आदमी पार्टी के नेता के रूप में वो खुलकर काम कर सकेंगे और पंजाब की जनता की खूब सेवा करंगे, ऐसी कामना करता हूँ।
रविवार, 17 जुलाई 2016
किसी गैर-राजनीतिक व्यक्ति को राज्यपाल क्यों नहीं बनाया जाता ?
16 जुलाई, 2016
जब हमारा संविधान बना तो उसमें राज्यपाल के पद का प्रावधान किया गया जिनसे केंद्र या राष्ट्रपति जी का प्रतिनिधि के रूप में काम करने की अपेक्षा की गयी। किसी भी राज्य में राज्यपाल के कार्य और उनकी शक्तियाँ लगभग वही होती है जो केंद्र में राष्ट्रपति की होती है। राज्यपाल की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा केंद्र सरकार की अनुशंसा पर की जाती है। राज्यपाल का मुख्य कार्य सम्बध्द राज्य में संविधान की रक्षा करना होता है। राज्यपाल के पास कार्यपालिका एवं विधायिका सम्बन्धी अधिकार होते हैं। किसी भी राज्य में सारी सरकारी नियुक्तियाँ, नियुक्ति का रद्दीकरण राज्यपाल के नाम से ही होते हैं। कानून भी राज्यपाल के नाम से ही लागू किए जाते हैं।
संविधान की भावना थी कि सभी पदासीन लोग अपने कार्य पूरी ईमानदारी से करेंगे। वैसे तो सारे अधिकार राज्यपाल को ही दिए गए लेकिन उनको अपना काम मुख्यमंत्री और राज्य कैबिनेट की सलाह से ही करने होते हैं। हो सकता है कि कैबिनेट की कुछ अनुशंसा संविधानसम्मत न हो, इसलिए राज्यपाल के पास को कुछ डिस्क्रिशनरी पावर यानि विवेकाधीन शक्ति भी दिए गए। मसलन, अगर किसी पार्टी को पूर्ण बहुमत नहीं है तो राज्यपाल महोदय अपने विवेक से मुख्यमंत्री की नियुक्ति कर सकते हैं, लेकिन इसका मतलब ये तो नहीं कि सबसे बड़ी पार्टी के नेता को छोड़कर किसी दूसरे को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिला दे ? आपातकाल की स्थिति में राज्यपाल मंत्री परिषद की सलाह को मानने को भी बाध्य नहीं हैं।
अपने विवेक का इस्तेमाल करके राज्यपाल राज्य में संवैधानिक संकट के बारे में अपनी रिपोर्ट राष्ट्रपति जी को भेज सकते हैं और उसके आधार पर राज्य में राष्ट्रपति शासन भी लग सकता है। अपने विवेक के अनुसार राज्यपाल किसी भी बिल को अपनी स्वीकृति न देकर राष्ट्रपति के पास उनकी अप्रूवल के लिए भेज सकते हैं। इन सबके पीछे सिर्फ मंशा यही थी कि राज्यपाल का पद राजनीतिक नहीं होगा और राज्यपाल किसी राजनीतिक प्रभाव में काम नहीं करेंगे। शायद इसीलिए इस पद पर शुरू के कुछ सालों तक गैर राजनीतिक या पार्टी-निरपेक्ष व्यक्तियों की ही नियुक्ति की गयी । लेकिन जब से मैंने राजनीतिक होश सम्भाला है, राज्यपाल के पद पर केंद में सत्ता रूढ़पार्टी के नेता या फिर उससे घनिष्ठता रखने वाले व्यक्तियों की नियुक्ति होते देखा है।
ज्योंही केंद्र में सत्ता परिवर्तन होता है राज्यों के राज्यपाल के तबादले होने शुरू हो जाते हैं। जैसे राज्यों में सत्ता परिवर्तन होने पर अफसरों के तबादले होने लगते हैं। मतलब राज्यपाल की निष्ठा संदेह से परे नहीं है ? या फिर केंद्र की सत्ता में आसीन पार्टी अपने निष्ठावान लोगों को ही राज्यपाल बनाना चाहती है ? कांग्रेस जब सत्ता में आती है तो अपने पुराने नेताओं को राज्यपाल बनाती है, जब भाजपा सत्ता में आती है तो अपने नेता या संघ के लोगों को। मतलब कोई भी दल पीछे नहीं है।
2004 में जब एनडीए की सरकार थी तो मदन लाल खुराना जी को राजस्थान का राज्यपाल नियुक्त किया गया था, जबकि थोड़े दिन ही पहले वो केंद्रीय मंत्रीमंडल का हिस्सा थे। कांग्रेस सत्ता में आई तो उसने बहुत से राज्यपालों को हटाया लेकिन खुराना जी को नहीं। हो सकता है कांग्रेस को खुराना जी से कोई परेशानी नहीं रही हो या फिर उसको लगा कि अगर इनको हटाएंगे तो ये दिल्ली में आकर शीला सरकार के खिलाफ आवाज बुलंद करेंगे। उन दिनों खुराना जी भाजपा के बड़े नेताओं में शुमार थे। ये बात और है कि उनको राजभवन रास नहीं आया और वो इस्तीफा देकर वापस दिल्ली चले आए।
अभी जब 2014 में एनडीए की केंद्रीय सत्ता में वापसी हुई तो बहुत से राज्यपालों का तबादला किया गया। कुछ ने तो तबादला होने के कारण इस्तीफा ही दे दिया। इनमें दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित भी शामिल है जिनको दिल्ली विधानसभा चुनाव में करारी हार के बाद कांग्रेस सरकार ने जाते-जाते केरल का राज्यपाल बना दिया था। लेकिन दिल्ली के उप-राज्यपाल नजीब जंग का न तो तबादला हुआ और न ही वो बदले गए। अब आए दिन उनकी और राज्य सरकार की अनबन होती रहती है।
कहने का मतलब ये कि अगर किसी राजनीतिक पार्टी के प्रति निष्ठा रखने वालों को राज्यपाल बनाया जायेगा तो उनके फैसलों में राजनीतिक निरपेक्षता आ सकती है क्या ? कहीं न कहीं अपनी पुरानी पार्टी के प्रति निष्ठा तो झलक ही सकती है न ? मैं ये नहीं कहता कि सभी राज्यपाल ऐसे होते हैं। लेकिन क्या किसी के ऐसे होने से इंकार किया जा सकता है ? पिछले कई सालों से राज्यपाल के फैसलों पर उँगलियाँ उठाई जाने लगी हैं, कई फैसलों को तो माननीय न्यायालय के आदेश द्वारा पलटा भी गया है। ऐसे में हम जैसी आम जनता तो यही सोचती है कि किसी गैर-राजनीतिक व्यक्ति को राज्यपाल क्यों नहीं बनाया जाता ?
अपने विवेक का इस्तेमाल करके राज्यपाल राज्य में संवैधानिक संकट के बारे में अपनी रिपोर्ट राष्ट्रपति जी को भेज सकते हैं और उसके आधार पर राज्य में राष्ट्रपति शासन भी लग सकता है। अपने विवेक के अनुसार राज्यपाल किसी भी बिल को अपनी स्वीकृति न देकर राष्ट्रपति के पास उनकी अप्रूवल के लिए भेज सकते हैं। इन सबके पीछे सिर्फ मंशा यही थी कि राज्यपाल का पद राजनीतिक नहीं होगा और राज्यपाल किसी राजनीतिक प्रभाव में काम नहीं करेंगे। शायद इसीलिए इस पद पर शुरू के कुछ सालों तक गैर राजनीतिक या पार्टी-निरपेक्ष व्यक्तियों की ही नियुक्ति की गयी । लेकिन जब से मैंने राजनीतिक होश सम्भाला है, राज्यपाल के पद पर केंद में सत्ता रूढ़पार्टी के नेता या फिर उससे घनिष्ठता रखने वाले व्यक्तियों की नियुक्ति होते देखा है।
ज्योंही केंद्र में सत्ता परिवर्तन होता है राज्यों के राज्यपाल के तबादले होने शुरू हो जाते हैं। जैसे राज्यों में सत्ता परिवर्तन होने पर अफसरों के तबादले होने लगते हैं। मतलब राज्यपाल की निष्ठा संदेह से परे नहीं है ? या फिर केंद्र की सत्ता में आसीन पार्टी अपने निष्ठावान लोगों को ही राज्यपाल बनाना चाहती है ? कांग्रेस जब सत्ता में आती है तो अपने पुराने नेताओं को राज्यपाल बनाती है, जब भाजपा सत्ता में आती है तो अपने नेता या संघ के लोगों को। मतलब कोई भी दल पीछे नहीं है।
2004 में जब एनडीए की सरकार थी तो मदन लाल खुराना जी को राजस्थान का राज्यपाल नियुक्त किया गया था, जबकि थोड़े दिन ही पहले वो केंद्रीय मंत्रीमंडल का हिस्सा थे। कांग्रेस सत्ता में आई तो उसने बहुत से राज्यपालों को हटाया लेकिन खुराना जी को नहीं। हो सकता है कांग्रेस को खुराना जी से कोई परेशानी नहीं रही हो या फिर उसको लगा कि अगर इनको हटाएंगे तो ये दिल्ली में आकर शीला सरकार के खिलाफ आवाज बुलंद करेंगे। उन दिनों खुराना जी भाजपा के बड़े नेताओं में शुमार थे। ये बात और है कि उनको राजभवन रास नहीं आया और वो इस्तीफा देकर वापस दिल्ली चले आए।
अभी जब 2014 में एनडीए की केंद्रीय सत्ता में वापसी हुई तो बहुत से राज्यपालों का तबादला किया गया। कुछ ने तो तबादला होने के कारण इस्तीफा ही दे दिया। इनमें दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित भी शामिल है जिनको दिल्ली विधानसभा चुनाव में करारी हार के बाद कांग्रेस सरकार ने जाते-जाते केरल का राज्यपाल बना दिया था। लेकिन दिल्ली के उप-राज्यपाल नजीब जंग का न तो तबादला हुआ और न ही वो बदले गए। अब आए दिन उनकी और राज्य सरकार की अनबन होती रहती है।
कहने का मतलब ये कि अगर किसी राजनीतिक पार्टी के प्रति निष्ठा रखने वालों को राज्यपाल बनाया जायेगा तो उनके फैसलों में राजनीतिक निरपेक्षता आ सकती है क्या ? कहीं न कहीं अपनी पुरानी पार्टी के प्रति निष्ठा तो झलक ही सकती है न ? मैं ये नहीं कहता कि सभी राज्यपाल ऐसे होते हैं। लेकिन क्या किसी के ऐसे होने से इंकार किया जा सकता है ? पिछले कई सालों से राज्यपाल के फैसलों पर उँगलियाँ उठाई जाने लगी हैं, कई फैसलों को तो माननीय न्यायालय के आदेश द्वारा पलटा भी गया है। ऐसे में हम जैसी आम जनता तो यही सोचती है कि किसी गैर-राजनीतिक व्यक्ति को राज्यपाल क्यों नहीं बनाया जाता ?
शुक्रवार, 15 जुलाई 2016
पिटे हुए मोहरे के साथ जंग जीतने चली है कांग्रेस।
15 जुलाई, 2016
कल उत्तरप्रदेश में होने वाले आगामी विधानसभा चुनाव 2017 के लिए कांग्रेस ने दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित जी को मुख्यमंत्री का उम्मीदवार घोषित किया। मतलब कि कांग्रेस उनके नेतृत्व में चुनाव लड़ेगी। अब सोचने वाली बात ये है कि शीला जी के नेतृत्व में दिल्ली में कांग्रेस को अभूतपूर्व हार का सामना करना पड़ा, जबकि उनके पास विगत 15 वर्षों के शासन काल में किए गए कामों की लम्बी फेहरिस्त हो सकती थी। लेकिन राजनीति के नौसिखिए, अरविन्द केजरीवाल ने देश की सबसे पुरानी एवं सत्ता के लम्बे अनुभव वाली पार्टी को धराशायी कर दिया।
अब शीला जी उत्तर प्रदेश के लोगों को क्या कहेंगी, कि मैंने दिल्ली में 15 साल शासन करके दिल्ली का खूब विकास किया, अब उत्तर प्रदेश की जनता की सेवा करने का मौका दीजिए ? जनता पूछेगी नहीं कि आपने अगर इतना ही काम किया था तो दिल्ली में आपकी पार्टी को इतनी करारी हार क्यों मिली, और तो और आप अपनी सीट भी नए नवेले केजरीवाल जी से क्यों हार गयी ? क्या उत्तर प्रदेश की जनता उनसे पूछेगी नहीं कि आप तो कहती थी कि दिल्ली में यूपी-बिहार के लोगों की वजह से ही अव्यवस्था है, फिर आपको हम पर इतना प्यार क्यों आ रहा है , हम आपको क्यों वोट दें ?
अब कांग्रेस द्वारा प्रचारित किया जा रहा है कि शीला जी उत्तर प्रदेश की बहू है। जब तक वो दिल्ली की मुख्यमंत्री रही, कभी इस बात को नहीं कहा। दिल्ली को ही अपना घर बताती रही। राजनीति में तो यही होता है, जहाँ जाओ, जहाँ से चुनाव लड़ना हो वहाँ से अच्छा रिश्ता निकाल लो। कहो कि मैं यहाँ की बहु हूँ, यहाँ का बेटा हूँ, या फिर कोई रिश्ता न निकले तो कहो, "मित्रों, यहाँ से मेरा पुराना रिश्ता है"। जिस व्यवसाय के व्यक्ति से मिलो , उससे कहो कि मैं बचपन से यही बनना चाहता था।
लेकिन क्या जनता इस रिश्ते-नाते की राजनीति को स्वीकार करेगी ? सोनिया जी लगभग हर चुनाव में कहती है कि मैं उत्तरप्रदेश की बहू हूँ, मैं इंदिरा गांधी की बहू हूँ। लोकसभा में कुछ सीट तो कांग्रेस को मिल भी जाया करती थी, लेकिन विधानसभा चुनाव में तो बारी-बारी से सपा, बसपा की ही सरकार बन जाती है। इस बार तो लोकसभा चुनाव में भी कमाल हो गया, सिर्फ परिवार वाले ही जीत पाए।
दरअसल इस बार कांग्रेस ने जाति कार्ड खेलने की कोशिश की है। शीला जी को मुख्यमंत्री का उम्मीदवार बनाकर ब्राह्मण वोट को अपने साथ लाने की कोशिश की जा रही है, जो कि पिछले कुछ चुनाव से बसपा के वोट बैंक बन गए हैं। बसपा के दलित वोट बैंक में भी सेंधमारी करने से नहीं चूक रही है, कांग्रेस। राज बब्बर जी को उत्तर प्रदेश का अध्यक्ष इसी लिए तो बनाया गया है शायद। क्योंकि किसी न्यूज चैनल पर सुना कि राज बब्बर दलित हैं। इस बात को खूब प्रचारित कर रही है कांग्रेस। इससे पहले तो हमें उनकी जाति का पता भी नहीं था, और कोई जरुरत भी नहीं थी।
जरुरत तो अभी भी नहीं है हमें, लेकिन कांग्रेस को बहुत जरूरत है अपने इन दोनों नेता की जाति को प्रचारित करने की। यूपी और बिहार में जातिगत राजनीति होती है, यह बात किसी से छुपी नहीं है। हर पार्टी जातिगत समीकरण देखकर ही टिकट का बँटवारा करती है। कांग्रेस भी इन दोनों नेताओं को आगे करके ये सन्देश देना चाहती है कि ये दलितों और ब्राह्मणो, हमने तुम्हारी जाति के नेताओं को आगे किया है। अब तुम्हारी जाति का विकास हम करेंगे, हमारी नेता को 15 साल के शासन का तजुर्बा भी है।
वैसे, अगर कांग्रेस को किसी ब्राह्मण नेता को ही आगे करना था तो रीता बहुगुणा जोशी जी क्या बुरी थी ? उत्तर प्रदेश की अध्यक्ष भी रह चुकी है।शीला जी पर तो दिल्ली में कॉमनवेल्थ घोटाले के आरोप भी लगे हैं, पानी टैंकर घोटाले में भी आरोपी हैं। इस मामले में तो उनको शायद नोटिस भी भेजा जा चूका है या फिर भेजा जा सकता है। हो सकता है कांग्रेस को लगता हो कि उत्तर प्रदेश की जनता को दिल्ली के बारे में क्या पता ? लेकिन क्या जनता इस बहलावे में आएगी, और कांग्रेस को सत्ता सौंप देगी ? वैसे भी जब तक कोई ईमानदार पार्टी प्रदेश में चुनाव लड़ने आगे नहीं आती तब तक जनता की तो हार ही है, चाहे मुख्यमंत्री कोई भी बने।
गुरुवार, 14 जुलाई 2016
जब मुख्यमंत्री ही अटेंडिंग नॉन-अटेंडिंग हैं तो स्कूल तो होगा ही।
14 जुलाई, 2016
लगता है बिहार की गरिमा को तार-तार करके ही छोड़ेंगे नीतीश जी।पिछले दिनों बिहार के शिक्षा जगत में हो रहे बहुत बड़े लफड़े का पर्दाफाश हुआ। वैसे तो अभी भी लोग टॉपर घोटाला से हुई बेइज्जती से बाहर नहीं निकल पाए हैं। अब एक और जलालत हो गयी। कल-परसों एक समाचार चैनल पर स्टिंग ऑपरेशन में दिखाया गया कि कितना गड़बड़ झाला चल रहा है बिहार में। सीबीएससी बोर्ड के नियमों की धज्जियाँ उड़ाते हुए अटेंडिंग और नॉन अटेंडिंग कोर्स चलाया जा रहा है।
इसका मतलब कि विद्यालय में एक खास रकम देकर एडमिशन ले लो फिर क्लास करने की जरूरत नहीं है। साल भर आप कहीं भी रहो, आपकी हाजिरी लगती रहेगी। सिर्फ परीक्षा के समय आकर परीक्षा देना है। क्या प्रशासन इन सब बातों से बे-खबर है ? मोहल्ले में अच्छा या बुरा कुछ भी हो, सबसे पहले पुलिस वालों की इसको खबर लग जाती है। लेकिन होता क्या है ? अनैतिक कामों पर लगाम तो लग नहीं पाती है।
अब तो यहाँ सरकार भी अटेंडिंग और नान अटेंडिंग हो गयी है। नीतीश जी नॉन अटेंडिंग मुख्यमंत्री के तौर पर ज्यादा समय बिहार के बाहर रैली करने में बीता रहे हैं और तेजस्वी जी अटेंडिंग मुख्यमंत्री का कार्य भार सम्भाल रहे हैं। लेकिन शिक्षा जगत में इस तरह के खिलवाड़ का हक़ किसने दिया। प्राचीन काल से ही नालंदा विश्वविद्यालय की अपनी एक गरिमा रही है। यह विश्वविद्यालय सम्पूर्ण विश्व में बिहार का सम्मान बढ़ा रहा है। ऊपर से कुछ लोग इस गरिमा को तार-तार करने में लगे हैं।
जब मीडिया द्वारा कभी-कभी हौसला दिखा कर ऐसे मामलों की पोल खोली जाती है तो सम्बद्ध मंत्री एवं अन्य नेता द्वारा कड़ी कार्रवाई करने के बयान जारी कर दिए जाते हैं। बस हो गया कर्तव्य का निर्वाह। जब मामला ज्यादा बढ़ता है तो जाँच कमेटी बना दी जाती है जिसकी रिपोर्ट आने में ही सालों लग जाते हैं। हकीकत तो ये है कि बिहार की इज्जत, अस्मिता और गरिमा की किसी को फ़िक्र नहीं है। न सत्तानशीनों को और न ही नौकरशाहों को। जिसको जो मर्जी हो किए जा रहा है, कोई रोकने वाला नहीं है।
बुधवार, 13 जुलाई 2016
केंद्र सरकार की निरंकुशता पर सुप्रीम कोर्ट का करारा तमाचा।
7/13/2016 05:37:00 pm
केंद्र सरकार, सुप्रीम कोर्ट
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13 जुलाई, 2017
आज एक बार फिर माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया और अरुणाचल प्रदेश में 15 दिसंबर 2015 से पहले की स्थिति बहाल करने का आदेश दिया। केंद्र सरकार के इशारे पर किस तरह से अरुणाचल प्रदेश में लोकतंत्र की हत्या हुई थी यह सर्वविदित है। राजनीति की थोड़ी सी समझ रखने वाला भी समझ सकता है कि अरुणाचल प्रदेश में बहुत नाजायज हुआ था। कहने को तो ये राज्यपाल महोदय की अनुशंसा पर केंद्र सरकार के सलाह से राष्ट्रपति शासन लगा था। लेकिन इसमें पूरी तरह से लोकतंत्र के नियमों का उल्लंघन किया गया था।
अरुणाचल प्रदेश विधानसभा में कांग्रेस के 47 सदस्यों में से 20 सदस्य को भाजपा गैर-लोकतान्त्रिक तरीके से अपने साथ मिलाने में कामयाब हो गयी थी। सबको पता है कि कैसे महामहिम राज्यपाल महोदय द्वारा राज्य सरकार की इच्छा के विरुद्ध विधानसभा का सत्र आगे बढ़ा दिया गया था। फिर विधानसभा के अध्यक्ष महोदय को भी गलत तरीके से उनके पद से हटा दिया गया। माननीय उच्चतम न्यायालय ने भी अपने फैसले में राज्यपाल के निर्णय को असंवैधानिक करार दिया। न्यायालय के अनुसार विधानसभा अध्यक्ष को हटाने की प्रक्रिया भी गलत थी।
अब न्यायालय के फैसले का पालन करते हुए गलत तरीके से हटाई गयी कांग्रेस की सरकार फिर से बहाल हो जाएगी। एक बार फिर से न्यायपालिका में जनता का विश्वास मजबूत हुआ है। लेकिन इस सब से केंद्र सरकार की किरकिरी नहीं हुई है ? आखिर राजनीति में शुचिता की बात करने वाली भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार के होते हुए राज्यपाल इतने सुपर एक्टिव क्यों हो गए ? हमने बचपन में किताबों में पढ़ा है कि राज्यपाल का पद गैर-राजनीतिक होता है। राज्यपाल महोदय को सत्ता के खेल से कुछ लेना-देना नहीं होता।
राज्यपाल तो तटस्थ होकर राज्यहित में राज्य सरकार की सलाह से फैसले लेते हैं, ऐसी परंपरा रही है। लेकिन सत्ता के लोभ में अंधी होकर भारतीय जनता पार्टी ने इस पद की गरिमा को भी कम करवा दिया। जब न्यायालय द्वारा राज्यपाल के फैसले को गलत बताया जाता है तो राज्यपाल ने गरिमा पूर्ण काम थोड़े ही न किया ? इससे पहले उत्तराखंड में भी न्यायालय के आदेश के बाद ही कांग्रेस की सरकार दुबारा बनी, वर्ना अरुणाचल प्रदेश से उत्साहित होकर भाजपा ने वहाँ भी सत्ता का घिनौना खेल खेला था। केंद्र सरकार द्वारा वहाँ भी राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया था।
जब मोदी जी की सरकार केंद्र में बनी थी तो जनता को बड़ी उम्मीद थी कि अब राजनीति में शुचिता आएगी। कांग्रेस तो राजनीतिक चालों को चलने के लिए बदनाम थी ही। लेकिन मोदी जी स्वस्थ राजनीति करेंगे इसकी उम्मीद थी। मगर अफ़सोस कि अभी भी धारा 356 का दुरूपयोग गैर-भाजपा शासित राज्य सरकारों को अव्यवस्थित करने में हो रहा है। मोदी जी लोकसभा चुनाव में कहते थे, मैं देश नहीं झुकने दूंगा। मुझे नहीं लगता कि इन घटनाओं से देश का मान बढ़ा है।
बहुत हो चूका मन की बात, अब बतियाईये केजरीवाल के साथ।
13 जुलाई, 2016
सुना है कि 17 जुलाई, 2016 को सुबह 11:00 बजे से दिल्ली के मुख्यमंत्री श्री अरविन्द केजरीवाल जी जनता के सवालों का ऑनलाइन जवाब देंगे। बहुत ही अच्छा कदम है दिल्ली सरकार द्वारा, इसकी जितनी प्रशंसा की जाए उतना ही कम है। आज के ज़माने में जहाँ छोटे से छोटे नेता भी जनता के सवालों से बचकर निकलना चाहते हैं, चुनाव जीतने के बाद जनता के करीब भी जाना नहीं चाहते हैं, ऐसे में मुख्यमंत्री द्वारा जनता का सवाल देना बहुत ही ख़ुशी का विषय है।
वैसे तो दिल्ली में मुख्यमंत्री आवास पर बुधवार से शुक्रवार तक जनता संवाद आयोजित किया जाता है। वहाँ दिल्ली सरकार के जनता से सम्बंधित सभी विभाग के बड़े अधिकारी मौजूद होते हैं। लोग अपनी शिकायतें लेकर आते हैं, उन पर विचार करके सम्बद्ध विभाग को उसी समय उचित दिशा-निर्देश दे दिए जाते हैं। जब मुख्यमंत्री जी को समय मिलता है तो वो भी मौजूद रहते हैं। इससे दिल्ली की जनता की समस्याओं का समाधान त्वरित गति से हो रहा है। लोग बड़ी संख्या में अपनी गुहार लेकर पहुँच रहे हैं।
विरोधी दल जो इस बात का हंगामा मचाते हैं और सरकार की आलोचना करते हैं कि मुख्यमंत्री आवास में बहुत से एयर कंडीशनर लगे हुए हैं, उनको वास्तविकता नहीं पता है। ये बहुत से एयर कंडीशन जनता संवाद के परिसर में ही लगे हुए हैं, ताकि पहले से ही परेशान जनता को मुख्यमंत्री आवास में भी मौसम की मार न झेलनी पड़े। लेकिन विरोधियों को तो विरोध करना है, उनको वास्तविकता से क्या लेना देना ? उनको तो हर बात कर ओछी राजनीति करने का कोई न कोई मौका चाहिए।
जब प्रधानमंत्री मोदी जी ने हर महीने रेडियो, टेलीविजन द्वारा जनता से "मन की बात" करने की शुरुआत की तो इसकी बहुत प्रशंसा हुई थी। लेकिन इस एक तरफ़ा संवाद से लोगों का मन धीरे-धीरे हटने लगा। मोदी जी अपनी बात तो कह लेते हैं लेकिन जनता को अपनी बात कहने का, अपनी शंका का समाधान करने का, अपना सवाल पूछने का कोई मौका नहीं मिलता है। लेकिन टॉक-टू-एके में जनता सीधे अपने सवाल अरविन्द केजरीवाल जी को ऑनलाइन भेज सकेगी और वो 17 जुलाई 2016 को ऑनलाइन जवाब देंगे।
इससे संवाद एक तरफ़ा और बोरियत भरा नहीं बल्कि दो तरफ़ा और रेस्पॉन्सिव होगा। सरकार को इस की सफलता को लेकर बड़ी उम्मीद है और जनता भी खूब उत्साहित है।
मंगलवार, 12 जुलाई 2016
सुशासन तड़ीपार हो गया।
7/12/2016 07:58:00 pm
नीतीश कुमार, बिहार, बिहार सरकार
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12 जुलाई, 2016
बड़ी उम्मीदों से बिहार के लोगों ने नीतीश जी की सत्ता में वापसी करवाई। यह जानते हुए भी कि उनके साथ ऐसे लोग हैं जिनके शासन काल को जंगलराज कहा जाता रहा है। दूसरों की क्या बात, नीतीश जी खुद ही कहते थे। लेकिन राजनीति में कुछ भी हमेशा के लिए नहीं होता। चीजे बदलती रहती है और रिश्ते - नाते भी। लेकिन जनता को नीतीश जी पर पूरा भरोसा था। उनके सुशासन पर लोगों को एतबार था, हो भी क्यों नहीं, जंगलराज के 15 साल के दंश को उन्होंने ही तो ख़त्म किया था और समूचे बिहार में विकास की बयार बहाई थी। लेकिन शायद नीतीश जी को खुद पर ही यकीन नहीं था। तभी तो राजद और कांग्रेस के साथ मिल गए। लोकसभा चुनाव में हुई अप्रत्याशित हार से नीतीश जी बुरी तरह से घबरा गए थे। उनको अपना राजनीतिक अस्तित्व खतरे में नजर आने लगा।
लेकिन जनता को यकीन था कि अगर सरकार के मुखिया नीतीश जी होंगे तो फिर से सुशासन ही होगा। अब भोली-भाली जनता को क्या पता कि एक समय विकास के पर्याय समझे जाने वाले "सुशासन कुमार जी " इतने कमजोर साबित होंगे। अरे नहीं नहीं, कमजोर का ये मतलब नहीं कि ये लालू जी से डरते हैं या फिर अगर ये कुछ करना चाहेंगे तो लालू जी मना कर देंगे। लालू जी इतने नासमझ थोड़े न हैं कि अपने ही पैर पर कुल्हाड़ी मारेंगे। आखिर नीतीश जी के कारण ही तो उनके परिवार का बिहार में 10 साल पुराना सत्ता का वनवास ख़त्म हुआ है। एक बेटा उपमुख्यमंत्री, दूसरा स्वास्थ्य मंत्री बने और बिटिया राज्यसभा सदस्य बनी है।
नीतीश जी के सहयोग के बिना ये सब संभव था क्या ? लेकिन लालूजी को एक अच्छे पिता की तरह अपने बच्चों का भविष्य उज्जवल भी तो करना है न। अब सामने से तो कुछ कह नहीं सकते हैं अपने लाड़ले छोटे भाई को। इसीलिए उन्होंने छोटका भैया के दिमाग में एक बात अच्छे से भर दिया कि भाई, जब ये मोदी प्रधानमंत्री बन सकता है तो तुम क्यों नहीं ? ये भी तो एक राज्य का मुख्यमंत्री ही था, तुम भी 2019 तक 14 साल पुराने मुख्यमंत्री हो जाओगे। अब प्रशंसा किसको अच्छी नहीं लगती, वो भी जब इतने साल रहा धूर विरोधी व्यक्ति करे तो ? खुश हो गए सुशासन बाबू और थमा दिए अपना खड़ाऊँ अपने दोनों भतीजा को कि तुम राज-काज देखो, हम प्रधानमंत्री मैटेरियल हो गया हूँ।
जब इन दोनों का सुलह-मेल हुआ था तो लोग कहते थे कि ये जंगलराज और सुशासन का अद्भुत संगम हो रहा है। इससे मंगलराज का उदय होगा। लेकिन सुशासन को तो बहला फुसलाकर बिहार से तड़ीपार कर दिया गया, और सूबे में रह गया जंगलराज। बिहार की जनता ठगी रह गयी। जम के अपराधियों का तांडव हो रहा है बिहार में। ऐसा लगता है मानो कि अपराधियों को कानून का डर बिलकुल ही नहीं रह गया है। लालू - राबड़ी राज की पुनरावृति ही हो रही है। और सुशासन बाबू कोने में बैठ कर प्रधानमंत्री बनने के सपने संजोने में लगे हैं।
जब इन दोनों का सुलह-मेल हुआ था तो लोग कहते थे कि ये जंगलराज और सुशासन का अद्भुत संगम हो रहा है। इससे मंगलराज का उदय होगा। लेकिन सुशासन को तो बहला फुसलाकर बिहार से तड़ीपार कर दिया गया, और सूबे में रह गया जंगलराज। बिहार की जनता ठगी रह गयी। जम के अपराधियों का तांडव हो रहा है बिहार में। ऐसा लगता है मानो कि अपराधियों को कानून का डर बिलकुल ही नहीं रह गया है। लालू - राबड़ी राज की पुनरावृति ही हो रही है। और सुशासन बाबू कोने में बैठ कर प्रधानमंत्री बनने के सपने संजोने में लगे हैं।
रविवार, 10 जुलाई 2016
सोशल मीडिया, सोसाइटी से दूर तो नहीं ले जा रहा ?
7/10/2016 03:58:00 pm
टविटर, फेसबुक, व्हाट्सप्प, समाज, Facebook, Society, Twitter, Whatsapp
2 comments
आज कल सोशल मीडिया का युग हो गया है। जिसको देखिये, व्हाट्सप्प, फेसबुक और टविटर पर व्यस्त है। पहले ये अमीरों का ही फैशन हुआ करता था, लेकिन अब गरीब तबका भी इसके गिरफ्त में तेजी से आता जा रहा है। कुछ भी हो लोग झट से फोटो खींच कर फेसबुक पर डाल देते हैं और दोस्तों को व्हाट्सप्प कर देते हैं। इंसान के पास दो वक्त की रोटी हो न हो लेकिन फेसबुक और व्हाट्सप्प से लैस मल्टीमीडिया वाला फोन जरूर होना चाहिए। कई लोग तो ऐसे हैं जो इसका इस्तेमाल भी करना नहीं जानते हैं, लेकिन दूसरों की देखा-देखी फेसबुक और व्हाट्सप्प उनको भी चाहिए। दूसरों से पूछ-पूछ कर स्टेटस अपडेट करते रहते हैं।
कोई गाना सुन रहा है तो उसका भी स्टेटस डाल देता है। फीलिंग हैप्पी, फीलिंग सैड, गेटिंग मैरिड जैसे स्टेटस की भी कमी नहीं है। और हाँ, स्टेटस अपडेट करने के बाद 10 लोगों को टैग करना भी नहीं भूलते कुछ लोग। मेरे एक दोस्त हैं, कुछ साल पहले हर रोज सुबह गुड मॉर्निंग और रात को गुड नाईट का स्टेटस डालते और हम जैसे 50 दोस्तों को टैग कर देते। अब जितनी बार भी उस स्टेटस पर कमेंट आता, हम 50 लोगों के मोबाईल में टिंग-टिंग की घंटी के साथ नोटिफिकेशन आता। परेशान ही हो गए थे हम लोग। बाद में शायद उनको भी हमारी परेशानी समझ आई तो उन्होंने ऐसा करना बंद कर दिया।
कई बार तो स्थिति हास्यास्पद भी हो जाती है टैग की वजह से। किसी ने अपडेट किया "Feeling alone" और टैग कर दिया 50 लोगों को। अब उनके दोस्तों को स्टेटस दिखता है, "Feeling alone with XYZ and 50 more". अब भाई जब 50 लोगों के साथ हो तो अकेला कैसे महसूस कर रहे हो ? Geting married का स्टेटस डाल कर 50 लोगों को टैग कर देते हैं, स्टेटस हो जाता है "Geting married with XYZ and 50 more". लोग पूछते हैं, 50 लोगों के साथ शादी कर रहे हो क्या ?
ये तो हुई हंसी मजाक की बात, लेकिन सोशल मीडिया का अब गलत असर भी दिख रहा है। लोग सोशल मीडिया में फोटो शेयर करने के चक्कर में सेल्फी भी खूब ले रहे हैं। दूसरे शब्दों में कहिए तो सेल्फी के मरीज बन रहे हैं लोग। घर में ही तरह-तरह के मुंह बना कर, कभी मुंह घुमाकर, कभी जुबान टेढ़ी करके तो कभी गर्दन ही टेढ़ी करके सेल्फी लेते हैं लोग। बात यहीं तक रहे फिर भी गनीमत है। लेकिन अब तो कुछ लोगों को सेल्फी का दौरा सा पड़ने लगा है। कही जा रहे हैं, झट से रुक गए, लेने लगे सेल्फी। कोई मौका या जगह का विचार नहीं करते, बस हो जाते हैं शुरू।
सेल्फी की बीमारी से ग्रस्त लोग आज कल अडवेंचरस भी बहुत हो गए हैं। छत के बिलकुल किनारे जाकर , समंदर या नदी के किनारे जाकर या फिर नदी या समंदर के अंदर दूर जाकर सेल्फी लेने की बीमारी भी ज्यादा ही फ़ैल रही है। सेल्फी लेने के चक्कर में कई दुर्घटना भी हो चुकी है, कई लोगों को अपनी जान या फिर अपने हाथ या पैर भी गंवानी पड़ गयी है। लेकिन इससे सबक नहीं सीख रहे हैं लोग। आधुनिकता के दौर में दिखावा करने के लिए जान की बाजी भी लगा रहे हैं कुछ लोग। मतलब कि तकनीक का पूरा दुरूपयोग होने लगा है।
सोशल मीडिया का बुरा असर लोगो के सामाजिक और पारिवारिक जीवन पर भी खूब पड़ने लगा है। कई बार घर के लोग या फिर दोस्तों की मण्डली साथ में ही बैठी रहती है, लेकिन कोई भी आपस में बात करता नहीं दीखता। बस सबकी उँगलियाँ मोबाईल पर चलती रहती है। देखने वालो को लगता है जैसे कोई बहुत बड़ी मीटिंग चल रही है, अंतर्राष्ट्रीय मुद्दे सुलझाए जा रहे हैं। जो लोग सोशल मीडिया की गिरफ्त में नहीं आये हैं उनको बड़ी कोफ़्त होती है। जिससे वो मिलने आये या फिर जो इनसे मिलने आया वो इनसे तो बात कर नहीं रहा, बस मोबाईल पर उँगलियाँ चला रहा है। अब सामने वाले को ज्यादा बुरा न लग जाए तो बीच बीच में उनका हाल भी पूछते रहते हैं।
पहले घर में कोई उत्सव या समारोह होता था तो लोग घर जाकर निमंत्रण देते थे। इसी बहाने मिलना-जुलना भी हो जाता था, दूसरे का कुशल क्षेम भी पूछ लिया करते थे। इससे लोगों में आत्मीयता बढ़ती थी। लेकिन अब तो व्हाट्सप्प पर मेसेज लिखा और भेज दिया सारे दोस्तों और रिश्तेदारों को। कोई पिता भी बनता है तो मिठाई बाद में बांटता है स्टेटस अपडेट पहले करता है। सेकंडो में ही पूरी दुनिया को पता चल गया कि भाई साहेब अब पिता बन गए हैं। लोगों का आपस में मिलना-जुलना तो कम ही हो गया है इस मुए सोशल मीडिया की वजह से।
सच में इस वर्चुअल दुनिया के चक्कर में असली दुनिया से दूर होते जा रहे हैं हम। अनजानों से दोस्ती निभाने के चक्कर में अपने रिश्तों को ठीक से नहीं निभा पा रहे हैं हम लोग।
राष्ट्रपति से भी ज्यादा कमाने वाले मजदूर।
10 जुलाई, 2016
हम बचपन से ही सामान्य ज्ञान और नागरिक की पुस्तकों में पढ़ते रहे हैं कि राष्ट्रपति जी हमारे देश के प्रधान होते हैं और उनका वेतन सरकार के किसी भी व्यक्ति से ज्यादा होता है। लेकिन सुना है कि कुछ लोग ऐसे हैं जिनको राष्ट्रपति जी से भी ज्यादा तनख्वाह मिलती है। इसमें कोई चौंकने वाली बात नहीं है। फ़ूड कारपोरेशन ऑफ़ इंडिया में करीब 370 ऐसे मजदूर हैं जो महामहिम से भी ज्यादा तनख्वाह पाते हैं। कुल 4,50,000 (साढ़े चार लाख) रुपए तनख्वाह मिलती है 370 विभागीय मजदूरों को। क्या इसमें किसी बड़े घोटाले की बू नहीं आ रही है ?
दिल्ली के नगर निगम में भी पिछले कुछ सालों से "घोस्ट एम्प्लॉयी" नामक शब्द चर्चा में है। इसका आशय ऐसे लोगो से है जो हर महीने तनख्वाह तो पाते हैं लेकिन, जमीनी स्तर पर कहीं नहीं दीखते। हमने बिहार, मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में करोड़पति चपरासियों के बारे में भी सुना और पढ़ा है। लेकिन ये तो हुआ गैर-कानूनी मामला। परन्तु भारतीय खाद्य निगम के मजदूर तो कानूनी रूप से इतनी तनख्वाह ले रहे हैं। क्यों ले रहे हैं किसी को पता नहीं। या पता भी होगा तो इसको जस्टिफाई नहीं कर पा रहे हैं।
मजे की बात ये है कि ये मजदूर नवाबी ठाट में रह रहे हैं। खुद काम नहीं करते बल्कि 7,000 - 8,000 रुपये प्रति माह पर मजदूर रखे हैं जो इनके बदले काम करते हैं और पूरी तनख्वाह इनके जेब में जाती है। अब माननीय उच्च्तम न्यायालय के निर्देश पर केंद्र सरकार ने इसको हटाने का फैसला लिया है। लेकिन मुद्दा ये है कि क्या केंद्र सरकार को इस बात का इल्म नहीं था कि ये मजदूर इतनी तनख्वाह ले रहे हैं ? क्या पूरे पैसे सिर्फ इन मजदूरों की जेब में ही जा रहे हैं ?
बहुत मुमकिन है कि इसमें बहुत बड़ा भ्रष्टाचार है। इसी कारण यह बात आज तक छिपी रही। अभी भी माननीय न्यायालय के संज्ञान लेने पर ही केंद्र सरकार इनको हटाने की सोच रही है। वरना ये खेल चलता ही रहता और किसी को पता भी नहीं चलता। अगर सही से नजर रखा जाए तो लगभग हर महकमे में ऐसा गड़बड़ झाला देखने को मिल सकता है। लेकिन इस पर नजर रखे कौन ? जिसको जब तक मलाई मिलती रहती है, आँख बंद किये रहता है। अब तो सिर्फ न्यायपालिका से ही उम्मीद है।
शुक्रवार, 8 जुलाई 2016
जाकिर नाईक की जगह अगर आपिया होता तो कब का अंदर होता।
8 जुलाई, 2016
आज कल पुलिस और सरकार धर्मगुरु जाकिर नाईक के वीडियो को बारीकी से देख रही है और उसका अध्ययन कर रही है। उसके खिलाफ सबूत जुटा रही है, लेकिन अभी तक कोई नोटिस या गिरफ़्तारी नहीं हुई है। पुलिस आराम से काम करती है, तसल्ली से करती है। करना भी चाहिए, हड़बड़ी में कोई ऐसा निर्णय नहीं ले लेना चाहिए या ऐसा कोई कदम नहीं उठाना चाहिए जिससे बाद में कोई परेशानी हो। लेकिन अगर मामला आम आदमी पार्टी और उसके नेता से जुड़ा हो तो पुलिस या सरकार इतने संयम और धीरज से काम क्यों नहीं ले पाती ?
सोमनाथ भारती जी की पत्नी ने उनपर घरेलु हिंसा और मारपीट के आरोप लगाए और दिल्ली पुलिस निकल पड़ी उनको पूरी तत्परता से ढूँढ़ने। ऐसा खोज अभियान चलाया गया जैसे कोई बहुत बड़े आतंकवादी को ढूँढा जा रहा है। वैसे जब उनकी जमानत याचिका न्यायालय से ख़ारिज हो गयी तो उन्होंने खुद ही आत्मसमर्पण कर दिया था।
पिछले दिनों दिनेश मोहनिया जी पर किसी बुजुर्ग को थप्पड़ मारने का आरोप लगा। बीच प्रेस कांफ्रेंस से दिल्ली पुलिस उनको गिरफ्तार कर के ले गई। तस्वीरों को देखकर ऐसा लग रहा था जैसे किसी दुर्दांत अपराधी को छापा मारकर गिरफ्तार करके ले जाया जा रहा हो। उनके दोनों तरफ एक एक पुलिस वाले हाथ को पकड़ कर ले जा रहे थे, मानो उनको कसकर नहीं पकड़ा गया तो वो गिरफ्त से भाग जायेंगे। किसी जनप्रतिनिधि को ऐसे गिरफ्तार किया जाता है ?
अभी थोड़े दिन पहले ही पंजाब में धार्मिक ग्रन्थ के अपमान के आरोपी ने नरेश यादव जी का नाम ले दिया कि उनके कहने पर उसने ऐसा किया, हो गयी पंजाब पुलिस उनके खिलाफ भी सक्रिय। कहने का मतलब कि किसी भी मामले में अगर आम आदमी पार्टी का नाम जुड़ा हो तो पुलिस की सक्रियता कई गुणा बढ़ जाती है।
अगर जाकिर नाईक की जगह किसी आम आदमी पार्टी के नेता या कार्यकर्त्ता का नाम होता तो क्या पुलिस इतनी तसल्ली से काम करती ? झट से उसको गिरफ्तार कर नहीं कर लेती ?
बुधवार, 6 जुलाई 2016
क्यूँ मिनिमम गवर्नमेंट से पीछे हट गए मोदी जी।
7/06/2016 12:53:00 pm
नरेंद्र मोदी, भाजपा, भारतीय जनता पार्टी, मोदी
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कल केंद्रीय मंत्रिमंडल का विस्तार हुआ। जब 2 साल पहले मोदी सरकार का गठन हुआ था तो छोटा मंत्रिमंडल रखा गया था। सिर्फ 66 मंत्री बनाए गए थे उस समय। इसकी तारीफ करते हुए कहा गया था कि जी हम मिनिमम गवर्नमेंट मैक्सिमम गवर्नेंस में यकीन रखते हैं। बढ़िया भी है छोटा मंत्रिमंडल रखना, सरकार के पैसे बचते हैं। कल के विस्तार के बाद अब मोदी सरकार में मंत्रियों की संख्या बढ़कर 80 हो गयी है। नियम के अनुसार सर्वाधिक 82 मंत्री ही हो सकते हैं केंद्रीय मंत्री मंडल में।
मनमोहन सिंह सरकार में मंत्रियों की संख्या 78 थी। लोकसभा चुनाव 2014 में भारतीय जनता पार्टी खूब प्रचार करती थी कि हम छोटा मंत्रिमंडल रखेंगे। मोदी जी मिनिमम गवर्नमेंट मैक्सिमम गवर्नेंस का नारा देते थे। आखिर क्या हुआ कि दूसरा साल पूरा होते-होते मोदी जी को अपने ही वायदे और इरादे से पीछे हटना पड़ा ? इसको कहते हैं राजनीतिक मजबूरी। असंतोष को कम करने के लिए नेतृत्व को मजबूरी में अनचाहे फैसले लेने पड़ते हैं। राजनीति में एक कहावत है कि हर कोई केजरीवाल बनकर ही आता है मगर हालात उसको मनमोहन बना देता है।
ठीक यही हुआ मोदी जी के साथ। ज्यादा संख्या में सांसद चुनकर आये तो सही लेकिन महत्वाकांक्षा किसकी नहीं होती मंत्री बनने की ? लेकिन बनाए गए सिर्फ 66 मंत्री। कुछ लोगो की महत्वाकांक्षा दबी ही रह गई, पूरी नहीं हुई। बिहार में 2015 में विधान सभा चुनाव होने थे तो वहां से खूब मंत्री बनाए गए। राजनीतिक सहयोगियों को भी मंत्रीपद दिया गया। दिल्ली से सिर्फ हर्षवर्धन जी को ही मंत्री बनाया गया था, इससे कुछ कद्दावर नेता असंतुष्ट ही रह गए। अब कोई बड़ा नेता मुंह खोल कर थोड़े न कहेगा कि हमको मंत्री बनाइये। कुछ शर्म-लिहाज और अनुशासन भी होता है न।
बड़े नेता तो चुनाव आने पर पार्टी को अपनी औकात दिखा देते हैं, या फिर कभी-कभी औकात पर आ जाते हैं। दिल्ली में यही हुआ, एक बड़े नेता जी को मंत्री बनाया गया और दूसरे मुंह देखते ही रह गए। ऐसे थोड़े न होता है कि जिसको अनुभव नहीं हो, उसको बना दिए और जो अनुभवी है उसको छोड़ दिए। वो ईमानदार हैं तो ये नेताजी भी कौन से बे-ईमान हैं, याद है न इन्ही नेता जी ने दिल्ली से लॉटरी को ख़त्म करवाया था ? नेता जी भी विधानसभा चुनाव 2015 में पार्टी को औकात दिखा दिए। अब इतना अपमान थोड़े न कोई सहेगा, जी।
लेकिन फिर भी मोदी जी की कृपा नहीं हुई उन पर। कोई मंत्रिमंडल विस्तार नहीं हुआ इनके लिए। अब इस साल फिर नेता जी को मौका मिल गया। दिल्ली में नगर निगम के उप-चुनाव हुए मई में ही। ले आये भाजपा को तीसरे नंबर पर। सिर्फ 3 सीट मिल पाई भाजपा को। मृतप्राय सी पार्टी , कांग्रेस में भी जबरदस्त जान आ गयी, लेकिन भाजपा सबसे पीछे। अब मोदी जी को समझ आ गया कि भैया कुछ करना पड़ेगा। नेताजी का गुस्सा धीरे-धीरे पार्टी के लिए ज्यादा नुकसानदेह साबित हो रहा है। अब जल्दी से इनको मंत्री नहीं बनाए तो कहीं अगले साल के नगर निगम चुनाव में नेताजी जीरो की खोज न कर दे पार्टी के लिए।
ये तो सिर्फ दिल्ली की बात हुई, हर राज्य का यही हाल है। पार्टी में महत्वाकांक्षी नेताओं की कमी नहीं होती। हर कोई पहले सांसद फिर मंत्री बनना चाहता है। अगले साल उत्तरप्रदेश में विधान सभा चुनाव होना है तो इस राज्य को खूब प्रतिनिधित्व मिला है मंत्रिमंडल में। मतलब साफ़ है कि विकास की बात करने वाले मोदी जी भी परंपरागत राजनीति पर उतर आये।
मनमोहन सिंह सरकार में मंत्रियों की संख्या 78 थी। लोकसभा चुनाव 2014 में भारतीय जनता पार्टी खूब प्रचार करती थी कि हम छोटा मंत्रिमंडल रखेंगे। मोदी जी मिनिमम गवर्नमेंट मैक्सिमम गवर्नेंस का नारा देते थे। आखिर क्या हुआ कि दूसरा साल पूरा होते-होते मोदी जी को अपने ही वायदे और इरादे से पीछे हटना पड़ा ? इसको कहते हैं राजनीतिक मजबूरी। असंतोष को कम करने के लिए नेतृत्व को मजबूरी में अनचाहे फैसले लेने पड़ते हैं। राजनीति में एक कहावत है कि हर कोई केजरीवाल बनकर ही आता है मगर हालात उसको मनमोहन बना देता है।
ठीक यही हुआ मोदी जी के साथ। ज्यादा संख्या में सांसद चुनकर आये तो सही लेकिन महत्वाकांक्षा किसकी नहीं होती मंत्री बनने की ? लेकिन बनाए गए सिर्फ 66 मंत्री। कुछ लोगो की महत्वाकांक्षा दबी ही रह गई, पूरी नहीं हुई। बिहार में 2015 में विधान सभा चुनाव होने थे तो वहां से खूब मंत्री बनाए गए। राजनीतिक सहयोगियों को भी मंत्रीपद दिया गया। दिल्ली से सिर्फ हर्षवर्धन जी को ही मंत्री बनाया गया था, इससे कुछ कद्दावर नेता असंतुष्ट ही रह गए। अब कोई बड़ा नेता मुंह खोल कर थोड़े न कहेगा कि हमको मंत्री बनाइये। कुछ शर्म-लिहाज और अनुशासन भी होता है न।
बड़े नेता तो चुनाव आने पर पार्टी को अपनी औकात दिखा देते हैं, या फिर कभी-कभी औकात पर आ जाते हैं। दिल्ली में यही हुआ, एक बड़े नेता जी को मंत्री बनाया गया और दूसरे मुंह देखते ही रह गए। ऐसे थोड़े न होता है कि जिसको अनुभव नहीं हो, उसको बना दिए और जो अनुभवी है उसको छोड़ दिए। वो ईमानदार हैं तो ये नेताजी भी कौन से बे-ईमान हैं, याद है न इन्ही नेता जी ने दिल्ली से लॉटरी को ख़त्म करवाया था ? नेता जी भी विधानसभा चुनाव 2015 में पार्टी को औकात दिखा दिए। अब इतना अपमान थोड़े न कोई सहेगा, जी।
लेकिन फिर भी मोदी जी की कृपा नहीं हुई उन पर। कोई मंत्रिमंडल विस्तार नहीं हुआ इनके लिए। अब इस साल फिर नेता जी को मौका मिल गया। दिल्ली में नगर निगम के उप-चुनाव हुए मई में ही। ले आये भाजपा को तीसरे नंबर पर। सिर्फ 3 सीट मिल पाई भाजपा को। मृतप्राय सी पार्टी , कांग्रेस में भी जबरदस्त जान आ गयी, लेकिन भाजपा सबसे पीछे। अब मोदी जी को समझ आ गया कि भैया कुछ करना पड़ेगा। नेताजी का गुस्सा धीरे-धीरे पार्टी के लिए ज्यादा नुकसानदेह साबित हो रहा है। अब जल्दी से इनको मंत्री नहीं बनाए तो कहीं अगले साल के नगर निगम चुनाव में नेताजी जीरो की खोज न कर दे पार्टी के लिए।
ये तो सिर्फ दिल्ली की बात हुई, हर राज्य का यही हाल है। पार्टी में महत्वाकांक्षी नेताओं की कमी नहीं होती। हर कोई पहले सांसद फिर मंत्री बनना चाहता है। अगले साल उत्तरप्रदेश में विधान सभा चुनाव होना है तो इस राज्य को खूब प्रतिनिधित्व मिला है मंत्रिमंडल में। मतलब साफ़ है कि विकास की बात करने वाले मोदी जी भी परंपरागत राजनीति पर उतर आये।
मंगलवार, 5 जुलाई 2016
ये कैसी जंग है दिल्ली और केंद्र की सरकारों के बीच ?
7/05/2016 02:35:00 pm
आम आदमी पार्टी, दिल्ली सरकार
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5 जुलाई, 2016
जब से दिल्ली में प्रचण्ड और अभूतपूर्व बहुमत से दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सरकार बनी है, शायद ही कोई दिन होगा जब केंद्र और दिल्ली की सरकारों के बीच टकराव न ह हुआ हो। जब 49 दिनों की सरकार दिल्ली में थी, भ्रष्टाचार पर पूरी तरह लगाम लग गया था। सरकारी कर्मचारियों में अजीब सा भय व्याप्त हो गया था। बिना रिश्वत के काम काज होने लगे थे। उतने ही दिनों में सरकार ने अपने कई सारे वादे भी पूरे कर दिए थे। दिल्ली की जनता बहुत खुश थी, लेकिन पूर्ण बहुमत नहीं था। लिहाजा सरकार को इस्तीफा देना पड़ा।
जनता में आम आदमी के प्रति कितना प्यार और आस्था थी यह भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस के साथ-साथ केंद्र सरकार को भी पता था। दुबारा चुनाव कराने में करीब एक साल की देरी हुई। भाजपा और कांग्रेस को उम्मीद थी कि चुनाव में जितनी देरी होगी, जनता का आम आदमी पार्टी और केजरीवाल के प्रति प्यार कम होता जाएगा। इस दौरान और चुनाव प्रचार के दौरान इन दोनों पार्टियों ने आम आदमी पार्टी और केजरीवाल जी की छवि धूमिल करने में अपनी तरफ से कोई कमी नहीं छोड़ी। खूब चरित्र हनन किया गया केजरीवाल जी का, इनको भगोड़ा कहते थे भाजपा और कांग्रेस वाले। लेकिन इससे जनता का विश्वास रत्ती भर भी कम नहीं हुआ।
चुनाव में प्रचण्ड बहुमत के साथ फिर से आम आदमी पार्टी की सरकार बनी और केजरीवाल जी मुख्यमंत्री बने। सत्ता सँभालते ही केजरीवाल जी ने अपने वादे पूरे करने शुरू कर दिए। लेकिन दिल्ली की समस्या यह है कि कुछ सरकारी मशीनरी तो राज्य सरकार के अंतर्गत और कुछ केंद्र सरकार के अंतर्गत। सरकार बनने के बाद से ही दिल्ली सरकार के काम काज में केंद्र सरकार के दखल के आरोप लगने शुरू हो गए। भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो के चीफ के रूप में मुकेश मीणा जी की नियुक्ति उप-राज्यपाल महोदय द्वारा की गई।
अब राज्य सरकार कोई नियुक्ति करती है तो उप-राज्यपाल महोदय द्वारा उसको निरस्त कर दिया जाता है। दिल्ली सरकार कोई आदेश पारित करती है तो उप-राज्यपाल महोदय द्वारा उसको Null and Void कर दिया जाता है। हो सकता है कि इन सबका उप-राज्यपाल महोदय को कानूनन अधिकार हो, लेकिन टकराव तो है ही। अभी थोड़े दिनों पहले ही दिल्ली विधानसभा द्वारा पारित 14 बिल केंद्र सरकार द्वारा वापस भेज दिए गए। अगर ये बिल कानून बना दिए गए होते तो दिल्ली की जनता के वारे-न्यारे हो गए होते।
छोटे से छोटे मामले में भी दिल्ली पुलिस आम आदमी पार्टी के विधायकों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करती है। लेकिन इतना कड़ापन भाजपा विधायकों के खिलाफ शिकायत मिलने पर नहीं दिखती। इसी साल की शुरुआत में भाजपा विधायक अदालत परिसर में एक व्यक्ति की जम कर पिटाई करते दिखे थे, उसकी तस्वीर भी सोशल मीडिया में वायरल हो रही है। उस पर कड़ी कार्रवाई नहीं हुई थी, लेकिन आम आदमी पार्टी के विधायक दिनेश मोहनिया के खिलाफ शिकायत मिलते ही उनको बीच प्रेस कांफ्रेंस से किसी दुर्दांत अपराधी की तरह पकड़ कर ले गयी दिल्ली पुलिस।
टैंकर घोटाला शीला दीक्षित सरकार के कार्यकाल के दौरान हुआ था, लेकिन नोटिस भेज दिया गया केजरीवाल जी एवं कपिल मिश्रा को। अभी कल ही मुख्यमंत्री कार्यालय के 2 अधिकारी गिरफ्तार कर लिए गए 3 का तबादला हो चूका है। जो अधिकारी दिल्ली सरकार के साथ सहयोग करने लगता है उसका तबादला कर दिया जाता है। दिल्ली सरकार कोई जाँच आयोग बनाती है तो उप-राज्यपाल महोदय द्वारा उसको Null and Void कर दिया जाता है।
इन सब बाधाओं के बावजूद दिल्ली सरकार ईमानदारी से काम कर रही है और जम के काम कर रही है।