आज पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के नतीजे आ गए। परसों ही दिल्ली नगर निगम उपचुनाव के भी नतीजे आये थे। जिसमें आम आदमी पार्टी को 5, कांग्रेस को 4 और भारतीय जनता पार्टी को 3 सीटें मिली थी। दोनों राष्ट्रीय पार्टियां गद-गद हुए जा रही थी। फूले नहीं समा रही थी। कांग्रेस पार्टी के एक वरिष्ठ नेता ने तो इसका श्रेय सीधे-सीधे राहुल गांधी जी को दे दिया , हालाँकि वो खुद दिल्ली कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष हैं। लेकिन उन्होंने इसका श्रेय खुद नहीं लिया।
अब आज के नतीजे देख लीजिए। सिर्फ पुडुचेरी में ही कांग्रेस सम्मानजनक सीटें प्राप्त कर पाई है और सरकार भी बना सकती है। पुडुचेरी में 30 में से कुल 15 सीट मिली है इस पार्टी को। वर्ना असम में 126 में से सिर्फ 26, पश्चिम बंगाल में 294 में से सिर्फ 44, केरल में 140 में से सिर्फ 22, तमिलनाडु में 234 में से सिर्फ 8 सीटें इसकी झोली में आई है। आज किसी ने इसका श्रेय राहुल जी को नहीं दिया। मतलब कहीं भी जीत होती हो तो इसका श्रेय राहुल जी को, उनके परिश्रम को, उनकी नीतियों को और अगर हार हो तो सामूहिक जिम्मेदारी की बात करते हैं कांग्रेसी।
आज एक बात और याद आई। जब दिल्ली के विधानसभा चुनाव 2015 में कांग्रेस को 0 सीट मिली थी तो इसने कहा था कि हम आम आदमी पार्टी से सीखेंगे। लेकिन अभी तक क्या सीखा है इस पार्टी ने वो आसानी से समझा जा सकता है। दिन-प्रतिदिन सिमटता ही जा रहा है इसका जनाधार। जहाँ कहीं भी गलती से इसको जीत मिल जाती है तो राहुल जी बड़े ही गर्व से प्रधानमंत्री जी को सलाह देने लगते हैं। आजकल तो कांग्रेस की जीत का सीधा मतलब भाजपा की हार और कांग्रेस की हार मतलब भाजपा की जीत कही समझी जाती है।
जहाँ तक भाजपा की बात है तो इसको तो शुरू से ही हिन्दी भाषी प्रदेशों की पार्टी कहा जाता रहा है। लेकिन इस बार यह असम में सरकार बनाने के करीब है। इसको 125 में से 60 सीटें मिली है। ये लोग भी इसको मोदी जी के सफल नेतृत्व और 2 साल में किये गए अनगिनत विकास कार्य का फल बताते नहीं थक रहे हैं। लेकिन दूसरे प्रदेशों में इसका बड़ी मुश्किल से खाता खुलता दिख रहा है। केरल में 140 में से 1, पश्चिम बंगाल में 294 में से 3, तमिलनाडु में 234 में से 0 , पुडुचेरी में 30 में से 0 सीटें मिली है भारतीय जनता पार्टी को। पार्टी नेता इस बात का संतोष मना रहे होंगे कि चलो इन प्रदेशों में पार्टी का खाता तो खुला। लेकिन क्या सिर्फ खाता खुलने के लिए ही चुनाव लड़ रही थी भाजपा ? इतना जोरदार चुनाव प्रचार अभियान क्या सिर्फ इतनी ही सीटों के लिए चलाया जा रहा था।
सच तो यह है कि इन दोनों ही पार्टियों से जनता का मोह भंग हो चूका है और चाहे दिल्ली हो या बिहार या अन्य प्रदेश, जिधर भी जनता को तीसरा विकल्प मिलता है, जनता उसको दिल से चुन लेती है। हाँ, जहाँ कोई जोरदार तीसरा विकल्प नहीं मिलता है वहां इन्ही दोनों में से किसी एक को कुछ-कुछ अंतराल पर चुनना पड़ता है। इसका कारण बिलकुल साफ़ है। इन दोनों पार्टियों में कोई खास अंतर नहीं रह गया है अब। दोनों एक ही सिक्के के दो पहलु-से बन गए है अब। लेकिन अब जबकि इनकी हर चुनाव में दुर्गति-सी हो रही है तो क्या ये इससे कुछ सीखेंगे और बेकार की बयानबाजी को छोड़कर जनहित के कार्य करेंगे ? लगता तो नहीं है।
अब आज के नतीजे देख लीजिए। सिर्फ पुडुचेरी में ही कांग्रेस सम्मानजनक सीटें प्राप्त कर पाई है और सरकार भी बना सकती है। पुडुचेरी में 30 में से कुल 15 सीट मिली है इस पार्टी को। वर्ना असम में 126 में से सिर्फ 26, पश्चिम बंगाल में 294 में से सिर्फ 44, केरल में 140 में से सिर्फ 22, तमिलनाडु में 234 में से सिर्फ 8 सीटें इसकी झोली में आई है। आज किसी ने इसका श्रेय राहुल जी को नहीं दिया। मतलब कहीं भी जीत होती हो तो इसका श्रेय राहुल जी को, उनके परिश्रम को, उनकी नीतियों को और अगर हार हो तो सामूहिक जिम्मेदारी की बात करते हैं कांग्रेसी।
आज एक बात और याद आई। जब दिल्ली के विधानसभा चुनाव 2015 में कांग्रेस को 0 सीट मिली थी तो इसने कहा था कि हम आम आदमी पार्टी से सीखेंगे। लेकिन अभी तक क्या सीखा है इस पार्टी ने वो आसानी से समझा जा सकता है। दिन-प्रतिदिन सिमटता ही जा रहा है इसका जनाधार। जहाँ कहीं भी गलती से इसको जीत मिल जाती है तो राहुल जी बड़े ही गर्व से प्रधानमंत्री जी को सलाह देने लगते हैं। आजकल तो कांग्रेस की जीत का सीधा मतलब भाजपा की हार और कांग्रेस की हार मतलब भाजपा की जीत कही समझी जाती है।
जहाँ तक भाजपा की बात है तो इसको तो शुरू से ही हिन्दी भाषी प्रदेशों की पार्टी कहा जाता रहा है। लेकिन इस बार यह असम में सरकार बनाने के करीब है। इसको 125 में से 60 सीटें मिली है। ये लोग भी इसको मोदी जी के सफल नेतृत्व और 2 साल में किये गए अनगिनत विकास कार्य का फल बताते नहीं थक रहे हैं। लेकिन दूसरे प्रदेशों में इसका बड़ी मुश्किल से खाता खुलता दिख रहा है। केरल में 140 में से 1, पश्चिम बंगाल में 294 में से 3, तमिलनाडु में 234 में से 0 , पुडुचेरी में 30 में से 0 सीटें मिली है भारतीय जनता पार्टी को। पार्टी नेता इस बात का संतोष मना रहे होंगे कि चलो इन प्रदेशों में पार्टी का खाता तो खुला। लेकिन क्या सिर्फ खाता खुलने के लिए ही चुनाव लड़ रही थी भाजपा ? इतना जोरदार चुनाव प्रचार अभियान क्या सिर्फ इतनी ही सीटों के लिए चलाया जा रहा था।
सच तो यह है कि इन दोनों ही पार्टियों से जनता का मोह भंग हो चूका है और चाहे दिल्ली हो या बिहार या अन्य प्रदेश, जिधर भी जनता को तीसरा विकल्प मिलता है, जनता उसको दिल से चुन लेती है। हाँ, जहाँ कोई जोरदार तीसरा विकल्प नहीं मिलता है वहां इन्ही दोनों में से किसी एक को कुछ-कुछ अंतराल पर चुनना पड़ता है। इसका कारण बिलकुल साफ़ है। इन दोनों पार्टियों में कोई खास अंतर नहीं रह गया है अब। दोनों एक ही सिक्के के दो पहलु-से बन गए है अब। लेकिन अब जबकि इनकी हर चुनाव में दुर्गति-सी हो रही है तो क्या ये इससे कुछ सीखेंगे और बेकार की बयानबाजी को छोड़कर जनहित के कार्य करेंगे ? लगता तो नहीं है।
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