28, सितम्बर, 2013
यही कहा गया था कल की प्रेस कान्फरेन्स में. अब सवाल यह उठता है कि जिस विधेयक को प्रधानमंत्री जी की अध्यक्षता वाली कैबिनेट ने पास कर दिया और मंजूरी के लिये महामहिम राष्ट्रपति जी के पास भेज दिया गया उसको अचानक एक राजनीतिक दल के उपाध्यक्ष, चाहे वह सत्ताधारी दल ही क्यों ना हो, कहते हैं कि यह बकवास है, इसको फाड देना चाहिये. अब कैबिनेट और प्रधानमंत्री जी की क्या प्रतिष्ठा रह जायेगी? प्रधानमंत्री या कैबिनेट किसी पार्टी का नहीं पूरे देश का होता है, पूरे देश की जनता का प्रतिनिध्त्व करता है.
आखिर इसको कंप्लीट नॉनसेंस और फाड़ने योग्य कहने की जरूरत क्यों पड़ी ? अब ऐसा तो है नहीं कि बगैर उपाध्यक्ष महोदय के संज्ञान में लाये इस विधेयक को तैयार भी कर लिया गया और राष्ट्रपति जी के पास भेज दिया गया. इस विधेयक की शुरु से ही आलोचना हो रही थी और जबरदस्त विरोध हो रहा था. लेकिन अंत समय तक कॉंग्रेस और सरकार इसका जोर शोर से समर्थन कर रही थी.
जब ये इतना ही नॉनसेन्स था तो विधेयक बनाते ही नहीं, सुप्रीम कोर्ट के आदेश को चुपचाप मान लेते. कल जब मिलिन्द देवडा जी ने इस विधेयक की मुखालफत की तो एक बार लगा कि उनको शायद महाराष्ट्र का केजरीवाल बनाने की चाल है, लेकिन आज तो स्थिति ही अलग है. आज तो पार्टी उपाध्यक्ष ही इसका विरोध कर रहे हैं, अब तो पार्टी के साथ साथ सरकार भी अचानक से यू टर्न लेगी. जिस जनता को आजतक समझा रहे थे कि यह विधेयक बहुत अच्छा है, भाजपा वाले कुप्रचार करके इसका विरोध कर रहे हैं, उसको अचानक से क्या कहोगे कि भाजपा वाले सही कह रहे थे, हम ही गलत थे ?
कह रहे हैं कि पहले भाजपा इसके समर्थन में थी और अब इसका विरोध कर रही है. उसको राजनीतिक फायदा नहीं मिल जाये इस लिये विधेयक वापस लिया जायेगा. भाजपा तो आपके हर अच्छे बुरे निर्णय का विरोध करती है. उसने तो प्रोन्नति में आरक्षण के मुद्दे पर भी राज्यसभा में समर्थन किया था और लोकसभा में विरोध, तो आपने विधेयक वापस ले लिया था क्या? भाजपा तो खाद्य सुरक्षा कानून का भी विरोध कर रही थी, लेकिन आपको लगा कि यह अच्छा कदम है तो आपने इसको जैसे भी हो सका पास करवाया संसद से. तब तो कदम पीछे नहीं हटा लिये थे.
अब इससे उनकी छवि उज्ज्वल होती है या धूमिल, ये तो वक्त ही बतायेगा.
अब इससे उनकी छवि उज्ज्वल होती है या धूमिल, ये तो वक्त ही बतायेगा.