आमतौर पर एक क्षेत्रीय राजनीतिक दल किसी निजी फर्म की तरह ही होता है। उसका अध्यक्ष जो पार्टी की स्थापना करता है, वही पार्टी की धुरी होता है। उसी के दम पर पार्टी आगे बढ़ती है, उसी के छवि के कारण पार्टी को सफलता मिलती है। यूँ तो पार्टी में बहुत से नेता होते हैं लेकिन किसी की भी हिम्मत नहीं होती की अध्यक्ष के फैसले के खिलाफ खुलकर चूं चपड़ कर सके। सबको नेता जी की ही बात माननी होती है, और नेता जी के खिलाफ मत रखने वाले या तो निकाल दिए जाते हैं, या निकल जाते हैं। उसके बाद धीरे धीरे नेता जी अपने परिवार को भी उसी पार्टी में शामिल करने लगते हैं, पत्नी, बेटा बेटी, भाई सब उसी पार्टी में शामिल हो जाते हैं। और एक नंबर के नीचे के बाद के सारे क्रम, नेता जी के परिवार के सदस्य के लिए आरक्षित हो जाता है, दूसरे नेताओं का क्रम उसी के अनुसार नीचे होता जाता है। उसके बाद वह पार्टी नेता जी के परिवार की पैतृक संपत्ति बनकर रह जाती है। अभी तक सक्रिय क्षेत्रीय दलों में समाजवादी पार्टी, बहुजन समाजवादी पार्टी, नेशनल लोकदल, बीजू जनता दल राष्ट्रीय लोकदल, तेलगु देशम पार्टी, द्रविड़ मुन्नेत्र कषगम को ही देख लीजिये। लोक जनशक्ति पार्टी में तो परिवार से भिन्न कोई नेता ही नहीं मिलेगा। यही हाल समाजवादी जनता पार्टी का है। राष्ट्रीय जनता दल में तो शुरू के टॉप टेन पोजीशन तो जैसे लालू परिवार के लिए ही आरक्षित है।
आम आदमी पार्टी में अभी तक परिवारवाद शुरू नहीं हुआ है, जनता दल यूनाइटेड भी परिवारवाद से अलग है फ़िलहाल। लेकिन सुप्रीमो व्यवस्था तो इन दोनों दलों में भी तो है। न तो अरविन्द केजरीवाल और न ही नीतिश कुमार के परिवार का कोइ सदस्य पार्टी में अहम् पद पर है। लेकिन आज नीतिश कुमार जी ने बड़ा ही ऐतिहासिक फैसला लिया, पार्टी को लेकर। मशहूर राजनीतिक रणनीतिकार, चुनाव प्रबंधक प्रशांत किशोर को पार्टी में नंबर दो की हैसियत दे दी नीतिश जी ने। लगभग 2005 से ही सत्ता में हैं वो। चाहते तो बेटे को पार्टी में शामिल कर लेते और नंबर दो की हैसियत दे देते, पार्टी में कोई विरोध नहीं होता। सबको पता है कि जेडीयू को वोट सिर्फ और सिर्फ नीतिश जी की वजह से ही मिलता है। लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। परिवारवाद का कलंक नहीं लगने दिया अपने ऊपर। अपने वस्त्र को धवल रखना बहुत मुश्किल होता है, राजनीति में। लेकिन उम्र के इस पड़ाव पर नीतिश जी ने वानप्रस्थ जाने से पहले एक कुशल व्यक्ति को अघोषित रूप से अपना उत्तराधिकारी बना दिया। अचानक से पार्टी की छवि बदल गई। अभी तक गरीब गुरबों, पिछडो, अति पिछडो, दलित महादलित के नाम पर राजनीति करने वाली पार्टी अचानक से विकास केंद्रित पार्टी बन गयी। नीतिश कुमार की विकासवादी छवि और चमक गयी।
नीतिश कुमार बेशक विकास पुरुष और सुशासन कुमार कहलाते हों लेकिन उनकी पार्टी अभी तक सोशल इंजीनियरिंग करके ही जीतती थी। ये बिहार की विशेषता कहिये या दुर्भाग्य कि जातिगत राजनीति कूट कूट कर भरी है इसकी राजनीति में। विकास के नाम पर चुनाव हो भी जाए लेकिन विकासोन्मुखी नतीजे नहीं आते चुनाव के। लोग जाति को ही वोट देना चाहते हैं। जातिगत झुकाव होता है लोगों का किसी भी राजनीतिक दल के प्रति। अगर विकास के आधार पर वोट देते लोग तो पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव का परिवार 15 साल तक निष्कंटक राज नहीं करता बिहार में।
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