जब से मैंने होश संभाला है, पहली बार अटल बिहारी वाजपेयी जी के बारे में सुना कि वो अनशन पर बैठे हैं। शायद 1998 की बात है, जब वो उत्तर प्रदेश के राज्यपाल के एक फैसले से नाराज होकर अनशन पर बैठे थे। राज्य पाल रोमेश भंडारी ने कल्याण सिंह सरकार को बिना बहुमत साबित करने का मौका दिए ही बर्खास्त कर दिया था और जगदम्बिका पाल को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलवा दी थी। मामला सीधे जनता से जुड़ा नहीं था इसलिए जनसमर्थन नहीं मिला था वाजपेयी जी को। इसके 13 साल बाद 2011 जनलोकपाल आंदोलन की माँग को लेकर अन्ना जी के जंतर मंतर पर अनशन के बारे में सुनने और जानने का मौका मिला जिसने तो एक इतिहास ही रच दिया।
उसके बाद अरविन्द केजरीवाल जी 16 दिन तक अनशन पर रहे, बाबा रामदेव के रामलीला मैदान में हुए अनशन को कौन भूल सकता है जिसका समापन बहुत ही नाटकीय अंदाज में हुआ। बाबा को सलवार सूट पहनना पड़ा था, पुलिस से बचने के लिए। कहने का मतलब कि जब मुद्दा जनता से जुड़ा हुआ हो तो जनता का भरपूर समर्थन मिलता है, जैसा कि अन्ना जी, बाबा जी और केजरीवाल जी को मिला था। अनशन ख़त्म करने के बाद केजरीवाल जी ने राजनीतिक पार्टी बनाने की घोषणा की थी, उस पार्टी को भी दिल्ली विधानसभा चुनाव में अच्छा जनसमर्थन मिला। अब कुछ दिनों पहले, दिल्ली सरकार में मंत्री पद से हटाए जाने के बाद कपिल मिश्रा अनशन पर बैठे। उनकी माँग थी कि दिल्ली सरकार के कुछ मंत्रियों और आम आदमी पार्टी के कुछ नेताओं की विदेश यात्रा से सम्बंधित जानकारी सार्वजनिक की जाए।
अब अनशन करना, सत्याग्रह करना, शांति-पूर्वक धरना प्रदर्शन करना, लोकतंत्र में सरकार के प्रति विरोध प्रकट करने का उचित तरीका बताया गया है। अगर मुद्दा सीधे जनता से जुड़ा हो तो जनता का भी भरपूर समर्थन मिलता है। अब किसी के विदेश यात्रा की जानकारी माँगने के लिए अनशन करना किस तरह से जनहित में है, यह मेरे तुच्छ मस्तिष्क के अलावा शायद आम जनता के समझ में भी नहीं आया। लिहाजा जनसमर्थन भी उसी मात्रा में मिलता रहा। उसके बाद तो हर रोज ही नया खुलासा और नए आरोप लगाए जाने लगे दिल्ली मुख्यमंत्री और उनके मंत्री पर। अब हर रोज नए नए खुलासे हुए तो पहले उप मुख्यमंत्री जी ने सरकार की तरफ से और प्रवक्ताओं ने पार्टी की तरफ से जवाब देने का मोर्चा संभाला।
इससे बात बनती न दिखी तो विधायक संजीव झा अनशन के खिलाफ अनशन पर बैठ गए। मतलब कि दिल्ली पूरी तरह से अनशनमय हो गई। आम तौर पर अनशन किया तो किसी माँग लेकर जाता है लेकिन इसकी सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि माँग कितने प्रतिशत पूरी हुई ? जनता का समर्थन कितना रहा ? अगर माँग पूरी तरह से नहीं भी पूरी हुई लेकिन अगर जनसमर्थन भारी मात्रा में हो तो अनशनकारी नेता गदगद हो जाते हैं। लेकिन इधर तो कुछ भी नहीं हुआ ऐसा। न तो दिल्ली के मुख्यमंत्री ने जानकारी सार्वजनिक की और न ही जनता का ऐसा समर्थन मिला कि अनशन को सफल कहा जा सके। और आज तो अनशन ख़त्म भी हो गया। बमुश्किल 5 दिन अनशन चल पाया।
इससे साबित होता है कि मुद्दा अगर सीधे जनता के दुःख-दर्द से सम्बंधित न हो तो जनता भी समर्थन नहीं देती। आखिर जनता को भी तो अपनी रोजी-रोटी का जुगाड़ करना है न ? या फिर अनशन के इस फैशन से जनता भी ऊब गई है अब। जनता को भी अब लगने लगा है कि इन नेताओं का जनता के हित से कोई लेना-देना नहीं है। सिर्फ इनको अपनी राजनीति की पड़ी है और अपनी राजनीति चमकाने के लिए नेता अनशन पर बैठ जाते हैं।