21 अगस्त, 2016
जी हाँ, बड़े गर्व की बात है। ओलम्पिक में एक रजत और एक कांस्य पदक हासिल हुआ हमारे देश को। बहुत-बहुत बधाई दोनों विजेताओं को, उनके माता-पिता को एवं सम्पूर्ण देश को। बहुत खुशनुमा माहौल है, सब बहुत खुश हैं। सोशल मीडिया में उत्साह - अति उत्साह का माहौल है। कुछ लोग कह रहे हैं कि बेटियों ने हमारे देश की लाज रख ली। कुछ लोग कह रहे हैं कि हमारे देश में सब्जी से लेकर मेडल तक लेने महिलाओं को ही जाना पड़ता है। एक घटना पूरी धारणा को बदल कर रख देती है। क्या इस तरह की टिप्पणी होती, अगर दोनों ही पदक विजेता पुरुष होते ? क्या किसी में ये कहने की हिम्मत होती कि आखिर पुरुषों ने ही देश की लाज रखी ? शायद नहीं। क्या पुरुषों ने भारत के लिए कभी कोई मेडल नहीं जीता ?
खुशनुमा माहौल है। हम जब प्रशंसा करने पर आते हैं तो पराकाष्ठा कर देते हैं। 2 मेडल लाने में जिन लोगों का योगदान रहा उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा होनी चाहिए। कोच की प्रशंसा होनी चाहिए जिनके कुशल प्रशिक्षण के बिना मेडल मिलना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन था। विजेताओं के माता-पिता की प्रशंसा होनी चाहिए जिन्होंने, कैसे भी हालात हो, लेकिन अपनी बच्चियों के प्रशिक्षण में कोई कमी नहीं होने दी। इन बच्चियों की भी प्रशंसा होनी चाहिए जिन्होंने जी-तोड़ मेहनत की और अपने देश का मान बढ़ाया । दिल्ली सरकार द्वारा प्रोत्साहन-स्वरुप सिंधु को 2 करोड़ रुपए और साक्षी को 1 करोड़ रुपए नकद इनाम देने की घोषणा हुई है।
लेकिन सवाल उठता है कि 125 करोड़ की जनसंख्या वाले देश में सिर्फ 2 ही मेडल क्यों ? एक भरा-पूरा खेल मंत्रालय है हमारे देश में। पैसा पानी की तरह बहाया जाता है। लेकिन नतीजा क्या मिलता है ? मंत्री और बाबुओं के ठाट-बाट में ही खत्म हो जाता है पैसा ? सिर्फ क्रिकेट को छोड़कर कोई भी खेल लोकप्रिय नहीं है हमारे देश में। तो क्या खेल मंत्रालय का सारा ध्यान सिर्फ और सिर्फ क्रिकेट की तरक्की में ही है ? जिस किसी भी खिलाडी को देखो सबको संसाधनों के अभाव से दो-चार होने की खबर आती रहती है। आज कल सोशल मीडिया में प्रधान मंत्री मोदी जी का एक वीडियो खूब देखा और शेयर किया जा रहा है जिसमें वो कुछ तरीके बताते हैं जिससे 5-7 मेडल तो ऐसे ही आ जाते हमारे देश के हिस्से। अगर ये वीडियो सही है तो अब जब वो प्रधान मंत्री बन गए हैं तो उन उपायों को क्यों नहीं लागू करवाते हैं ?
संसाधनों का अभाव होते हुए भी जैसे-तैसे ये खिलाडी जब ओलंपिक जैसे प्रतियोगिता में हिस्सा लेने के योग्य खुद को बनाते हैं तब भी इनकी परेशानी कम नहीं होती। अभी ओलम्पिक के दौरान ही किसी खिलाडी का बयान सोशल मीडिया में आया था कि खिलाडियों के लिए इकोनॉमी क्लास के टिकट मुहैया करवाये गए थे। जबकि मैनेजर और बाबु लोग बिजनेस क्लास में सफर किए। मंत्री जी किस क्लास में सफर किए थे ? कितनी अजीब बात है ? जिसके प्रदर्शन को देखने लिए, जिसको प्रोत्साहित करने के लिए ये लोग रियो गए वो इकोनॉमी क्लास में और ये महानुभाव, जिनके गए बिना भी काम चल सकता है, बिजनेस क्लास में गए।
जिनको वहाँ जाकर अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन करना है वो 36 घंटे का सफर बिना अच्छी नींद किए हुए पूरा करे और कर-दाताओं के पैसे पर पलने वाले लोग आराम की नींद लें। ये मजाक नहीं तो क्या है ? 125 करोड़ की आबादी वाले देश में क्या कभी कोई खिलाड़ी खेल मंत्री बना ? क्या अच्छा नहीं होता कि शिक्षा मंत्री कोई शिक्षाविद होता, खेल मंत्री किसी महान खिलाडी को बनाया जाता, कृषि मंत्री, कृषि के क्षेत्र में महारत रखने वाले को बनाया जाता, वित्त मंत्री किसी महान अर्थशास्त्री को बनाया जाता । लेकिन नहीं, यहाँ तो सबकुछ इस बात पर निर्भर करता है कि सत्ता रूढ़ पार्टी में किसकी पहुँच कितनी है, किसका कद कितना बड़ा है।
पूर्व शिक्षा मंत्री की शैक्षणिक योग्यता देशजाहिर है, वित्त मंत्री कानून के बहुत बड़े ज्ञाता हैं, खेल मंत्री को किस खेल में महारत हासिल है मुझे नहीं पता। कृषि मंत्री का परिवार कृषक हो सकता है लेकिन उनको तो मैंने बीच के कुछ सालों को छोड़ कर 1990 से ही सांसद के रूप में ही देखा है। सिर्फ मंत्रालय ही नहीं प्रमुख खेल संघो के अध्यक्ष पद पर राजनीतिक व्यक्ति ही आसीन होते रहते हैं। बीसीसीआई के अध्यक्ष पद को मुझे याद नहीं कि कब किसी क्रिकेटर ने सुशोभित किया। वो तो थोड़ी मजबूरी है वरना ये कोच के पद पर भी राजनीतिक लोगों को ही बिठा दें। जैसे चिकित्सक की जगह किसी रेडियोलाजिस्ट को ले गए थे रियो ओलम्पिक में ।
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