बुधवार, 31 अगस्त 2016
शराब को आदिकाल से ही ख़राब माना गया है। यह सर्वथा सत्य है कि इसका सेवन स्वास्थ्य और समाज के लिए हानिकारक है। लेकिन फिर भी बहुत से लोग इसका सेवन करते हैं। शराब पीने वालों का जो नुकसान हो सो हो, लेकिन इसको बनाने और बेचने वाले बहुत फायदे में रहते हैं। अपने विजय माल्या साहेब को ही ले लीजिये। शराब का धंधा करके अरबपति बने बैठे हैं। हवाई जहाज का भी काम शुरू किये थे, ऐसा घाटा लगा कि लिया हुआ लोन भी नहीं चूका पाए। कंपनी दिवालिया हो गयी और अभी विदेश गए हैं कि वापस आने का नाम ही नहीं ले रहे हैं। लेकिन शराब का धंधा अभी भी चकाचक है।
शराब के धंधे में कोई मंदी नहीं, सालो भर बसंत बहार, कभी पतझड़ नहीं। भाई चीज ही ऐसी है। जिसको आदत नहीं वो इसको हाथ ही न लगाए, इसकी बदबू से ही दूर से भागे। जिसको एक बार आदत लग जाए वो इसको छोड़े ही न, चाहे कंगाल ही क्यों न हो जाए। और तो और, ख़ुशी के मौके पर भी शराब और ग़म हो तो भी शराब का ही सहारा। शराब ने शायरों, गायकों का भी खूब वारा-न्यारा किया है। खूब ग़ज़ल लिखी और गायी गयी है शराब के ऊपर। शराब की शान में खूब शायरी की है शायरों ने। कुछ शायरों ने तो महबूबा की आँखों की तुलना भी शराब के प्यालों से कर दी है।
अब जब शराब सबके वारे-न्यारे कर ही रही है तो राजनेता इससे पीछे कैसे रहे ? तो शराब पर राजनीति भी शुरू हो गयी। आज कल तो शराब की राजनीति ज्यादा ही जोर पकड़ रही है। वैसे राजनीति शराब की नहीं हो रही बल्कि शराबबंदी की हो रही है। अतीत में आंध्र प्रदेश, हरियाणा, मिजोरम और तमिलनाडु जैसे राज्यों में शराबबंदी हुई थी लेकिन इसको हटा लिया गया। गुजरात, नागालैंड, मणिपुर और लक्षद्वीप में शराबबंदी पहले से ही है। केरल में 2014 से चरणबद्ध तरीके से शराबबंदी लागू की जा रही है। लेकिन सबसे गजब और अनोखे तरीके से शराबबंदी बिहार में हुई है।
बहुत साल पहले 1996 में बंसीलालजी की हरियाणा विकास पार्टी और भारतीय जनता पार्टी ने एक साथ हरियाणा विधानसभा का चुनाव लड़ा था। तब चुनाव प्रचार के दौरान बंसीलाल जी ने हरियाणा में शराबबंदी का वादा किया था। शराबबंदी का नारा इतना बुलंद हुआ कि इस गठबंधन को बहुमत मिला और बंसीलाल जी ने मुख्यमंत्री बनते ही पूर्ण शराबबंदी लागू कर दी पूरे हरियाणा में। हरियाणा में शराब बनाना, बेचना, खरीदना और पीना, सबकुछ गैरकानूनी हो गया। कुछ दिन तक खूब अच्छा चला, लोग खूब खुश हुए। खास कर महिलाएँ बहुत खुश थी शराबबंदी से। उनके पति जो भी पैसा शराब में बर्बाद करते थे, वो सब की अब बचत हो रही थी।
लेकिन पता नहीं क्या हुआ कि 1 अप्रैल 1998 से शराबबंदी ख़त्म करनी पड़ी सरकार को। इससे पहले बंसीलाल जी 3 बार और मुख्यमंत्री बन चुके थे हरियाणा के। लेकिन शराबबंदी के बाद फिर कभी मुख्यमंत्री नहीं बने। अब ऐसी ही शराबबंदी नीतीश कुमार जी बिहार में 1 अप्रैल 2016 से लागू किए हैं। पूर्ण शराबबंदी हुआ है बिहार में। मतलब कि शराब बनाना, बेचना, खरीदना और पीना, सब गैरकानूनी है बिहार में। किसी घर में शराब मिला तो घर के सारे वयस्कों पर मुकदमा चलेगा और सजा मिलेगी। और तो और, वैसे तो ट्रेन में शराब पीना या पीकर यात्रा करना वैसे भी जुर्म है, लेकिन अगर ट्रेन बिहार से गुजर रही है तो बिहार वाला कानून लागू होगा।
बंसीलाल जी की तरह नीतीश जी भी 3-4 बार मुख्यमंत्री बनने के बाद कुछ अलग वादा जनता से किए बिहार विधानसभा चुनाव 2015 में कि सत्ता में आये तो पूर्ण शराबबंदी लागू कर देंगे बिहार में। जनता ने खूब वोट दिया और इनकी सत्ता में वापसी हो गई, किसी ने ये नहीं पुछा कि नीतीश जी 10 साल के शासन में शराबबंदी क्यों नहीं किए, जो इसके लिए एक और टर्म चाहिए। अब नीतीश जी वादा निभा रहे हैं। शराबबंदी के कारण बिहार को अरबों रूपए के राजस्व की हानि हो रही है, लेकिन वादा तो वादा है। लेकिन जनता का मूड धीरे-धीरे बदल रहा है बिहार में भी। कहीं ऐसा न हो कि इसके बाद नीतीश जी की सत्ता में वापसी ही न हो। वैसे भी अब वो मुख्यमंत्री बन बन कर ऊब गए से लगते हैं, तभी तो अब प्रधानमंत्री बनने की तैयारी कर रहे हैं।
शराब पर राजनीति दिल्ली में भी खूब हो रही है। विपक्षी दल कह रहे हैं कि शराब की दुकान काहे खोली केजरीवाल सरकार ने, इसको बंद करो। अरे, शराब की दुकान खोलने या शराब पीने-पिलाने की रीत केजरीवाल सरकार ने थोड़े ही न शुरु की है। शराब की दुकाने तो पहले से ही खुली हुई है और हर साल नई दुकाने खुलती रही है। केजरीवाल सरकार ने क्या नया कर दिया है इसमें ? इससे पहले जब खुलती थी तब इतना विरोध करते थे क्या ? भारतीय जनता पार्टी को शराब की दुकान से ज्यादा परेशानी है दिल्ली में। शराब बुरी चीज है, लेकिन शराब की 2-4 दुकानें बंद कर देने से क्या होगा ? जिसको पीना होगा वो किसी और दुकान से लेकर पी लेंगे।
जितनी मेहनत शराब की चंद दुकान बंद करवाने में लगा रहे हैं उतनी मेहनत इसकी बुराइयों, इससे होने वाले नुकसानों के प्रति जनता को जागरूक करने में करते तो दुकान अपने आप ही बंद हो जाती। जब कोई खरीदेगा ही नहीं, कोई पियेगा ही नहीं तो दुकानदार कब तक घाटे में दुकान को चलाएगा ? या फिर केंद्र में आपके ही पार्टी की सरकार है कर दीजिये शराब निर्माण का लाइसेंस कैंसल, लगा दीजिये पूरे देश में शराब निर्माण पर प्रतिबन्ध। फिर न शराब बनेगी न बिकेगी, फिर लोग भी नहीं पियेंगे। लेकिन नहीं, इनको तो राजनीति करनी है और केजरीवाल सरकार को बदनाम करना है।
( नोट : लेख या लेखक का मकसद किसी भी तरह से शराब को प्रोमोट करना नहीं है क्योंकि शराब पीना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। )
मंगलवार, 30 अगस्त 2016
माइक्रोसॉफ्ट एक्सेल 2007 में कोई सीरीज ऐसे बनाएं
30 अगस्त, 2016
माइक्रोसॉफ्ट एक्सेल में अगर हमें कोई सीरीज बनानी हो तो कैसे बना सकते हैं यही इस विडियो में बताया गया है। जैसे किसी कॉलम की लाइनों में 1 से लेकर 100 तक या फिर उससे भी आगे तक के अंक लिखने हो तो कैसे करेंगे, ये इस विडियो में बताया गया है। अगर हमें विभिन्न लाइनों में सप्ताह या महीने के दिन लिखने हो तो हर लाइन में अलग अलग टाइप करने की बजाय कुछ तरीके अपनाकर लिखा जा सकता है। इस विडियो में ऐसे ही तरीके बताये गए हैं। और हाँ, इंस्ट्रक्शन्स हिंदी भाषा में है।
( ऊपर विडियो को क्लिक करके देखिये )
( ऊपर विडियो को क्लिक करके देखिये )
लालू प्रसाद यादव, आत्मविश्वास से लबरेज एक व्यक्तित्व।
8/30/2016 01:17:00 pm
लालू जी, लालू प्रसाद, Lalu Prasad Yadav. Laloo Prasad Yadav
No comments
मैं कभी लालू जी या बिहार में उनके शासनकाल का प्रशंसक नहीं रहा, न ही उनकी पार्टी का समर्थक हूँ। लेकिन उनके आत्मविश्वास का प्रबल प्रशंसक हूँ। राजनीति अपनी जगह, लेकिन लालूजी का व्यक्तित्व अपनी जगह है। मुझे याद है जब 1990 में उन्होंने बिहार की सत्ता संभाली थी, जनता कांग्रेस के लंबे शासन काल से मुक्ति पाना चाहती थी। विकास के कोई कार्य तो नहीं हो रहे थे, लेकिन भ्रष्टाचार अपने चरम पर था। उस समय बिहार में दलितों और पिछड़ी जाति के लोगों की हालत बड़ी ही दयनीय थी। लालू जी ने सबसे पहले इसी को सुधारने का प्रयास किया। दबे-कुचले लोगों को आवाज दी उन्होंने।
अगड़े-पिछड़े की राजनीति उनके ही शासनकाल में शुरू हुई थी जो आज तक चली आ रही है। बड़े ही आत्मविश्वास के साथ उन्होंने पिछडो का मुद्दा उठाया। उन्होंने वो सब कुछ किया जो पिछडो के विकास के लिए कर सकते थे। उन्होंने नारा भी दिया था, "पढ़ना लिखना सीखो वो पशु चराने वालों"। जब उन पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे तब भी उन्होंने धैर्य से काम लिया। जब उनकी गिरफ़्तारी हुई तब भी उनका आत्म विश्वास देखते ही बनता था। अगर कोई और होता तो उसके गिरफ्तार होते ही उसका राजनीतिक भविष्य चौपट हो जाता। पार्टी के वरिष्ठ नेताओं को दरकिनार करके उन्होंने अपनी पत्नी को बिहार का मुख्यमंत्री बनवाया।
कहीं से किसी भी नेता का कोई विरोध नहीं। सबने एक मत से उनके फैसले को मान लिया। ये लालू जी के आत्म विश्वास का ही नतीजा था की एक गैर-राजनीतिक महिला ने इतने सालों तक बिहार की सत्ता संभाली। जब भी उन पर आरोप लगा, न तो वो कभी घबड़ाये और न ही कभी बौखलाहट में कोई अनाप-शनाप बयानबाजी ही की। हर मुसीबत का सामना अपने चुटीले अंदाज में किया। लालू जी पर अनगिनत चुटकुले बने और सोशल मीडिया में शेयर भी खूब किये जाते हैं। लेकिन कभी उन्होंने इसका बुरा नहीं माना। कभी भी उन्होंने किसी पर मुकदमा नहीं किया, कभी भी किसी से गुस्सा नहीं हुए। हमेशा ऐसे मौकों पर उन्होंने अपने बड़े दिल का परिचय दिया। लालू जी की नक़ल कर कर के कॉमेडी कलाकारों ने बहुत पैसे भी कमाए हैं।
जब 2005 में इनकी पार्टी 15 साल पुरानी सत्ता से बेदखल हुई तब भी उन्होंने धैर्य नहीं खोया। खुश ही रहे, मस्त रहे। पार्टी की हालत बद से बदतर होती गयी लेकिन लालू जी का आत्मविश्वास कम नहीं हुआ। हर मुसीबत को हँस कर झेलते रहे। ऐसा, साधारण व्यक्तित्व के व्यक्ति के बस की बात नहीं। कुछ साल ऐसे भी बीते हैं जब इनके परिवार से एक भी व्यक्ति जन प्रतिनिधि नहीं था। एक समय बिहार विधानसभा में राजद के विधायकों की संख्या इतनी भी नहीं थी कि विपक्ष के नेता का पद दिया जा सके। फिर भी पार्टी पर से इनकी पकड़ कम नहीं हुई। हर आरोप का जवाब अपने चुटीले अंदाज में देकर मुंह बंद कराने का हुनर लालू जी में ही है।
कहीं से किसी भी नेता का कोई विरोध नहीं। सबने एक मत से उनके फैसले को मान लिया। ये लालू जी के आत्म विश्वास का ही नतीजा था की एक गैर-राजनीतिक महिला ने इतने सालों तक बिहार की सत्ता संभाली। जब भी उन पर आरोप लगा, न तो वो कभी घबड़ाये और न ही कभी बौखलाहट में कोई अनाप-शनाप बयानबाजी ही की। हर मुसीबत का सामना अपने चुटीले अंदाज में किया। लालू जी पर अनगिनत चुटकुले बने और सोशल मीडिया में शेयर भी खूब किये जाते हैं। लेकिन कभी उन्होंने इसका बुरा नहीं माना। कभी भी उन्होंने किसी पर मुकदमा नहीं किया, कभी भी किसी से गुस्सा नहीं हुए। हमेशा ऐसे मौकों पर उन्होंने अपने बड़े दिल का परिचय दिया। लालू जी की नक़ल कर कर के कॉमेडी कलाकारों ने बहुत पैसे भी कमाए हैं।
जब 2005 में इनकी पार्टी 15 साल पुरानी सत्ता से बेदखल हुई तब भी उन्होंने धैर्य नहीं खोया। खुश ही रहे, मस्त रहे। पार्टी की हालत बद से बदतर होती गयी लेकिन लालू जी का आत्मविश्वास कम नहीं हुआ। हर मुसीबत को हँस कर झेलते रहे। ऐसा, साधारण व्यक्तित्व के व्यक्ति के बस की बात नहीं। कुछ साल ऐसे भी बीते हैं जब इनके परिवार से एक भी व्यक्ति जन प्रतिनिधि नहीं था। एक समय बिहार विधानसभा में राजद के विधायकों की संख्या इतनी भी नहीं थी कि विपक्ष के नेता का पद दिया जा सके। फिर भी पार्टी पर से इनकी पकड़ कम नहीं हुई। हर आरोप का जवाब अपने चुटीले अंदाज में देकर मुंह बंद कराने का हुनर लालू जी में ही है।
पिछले दिनों किसी ने बिहार में पाकिस्तान का झंडा फहरा दिया तो लालू जी बोले, कश्मीर में तो ऐसा रोज ही होता रहता है, लेकिन केंद्र सरकार इस पर चुप्पी साधे बैठी है। है कोई नेता जो ऐसा तर्क दे सके ? कोई दूसरा नेता होता तो उससे जवाब देते नहीं बनता, कहता कि कानूनी कार्रवाई की जाएगी। अभी बिहार में बाढ़ का जबरदस्त प्रकोप है, लोग खूब परेशान हैं। लेकिन लालू जी का तर्क देखिए। जनता से कह रहे हैं कि आप खुशनसीब हैं कि गंगा मैया आपके घर तक आई है। उनके वोटरों और समर्थकों को खूब लुभाते भी हैं उनके ऐसे ऐसे तर्क। लोग उनकी चुटीली बातों को सुनकर खूब हँसते भी हैं।
एक बार एक कार्यक्रम में उन्होंने कहा भी था कि टेंशन लेने से ब्रेन हेमरेज होता है, हँसते मुस्कुराने से समस्या दूर होती है। ऐसे ही हँसते-हँसाते रहें लालू जी, बाकि राजनीति तो चलते रहेगी।
सोमवार, 29 अगस्त 2016
नेताओं का निकम्मापन, या बिहार का दुर्भाग्य ?
बिहार प्राकृतिक संपदाओं से परिपूर्ण राज्य है। जल, जंगल, जमीन में से किसी की भी कमी नहीं है। उपजाऊ खेत हैं, बहुत सी नदियाँ इस राज्य से बहती हैं। लोगों में मेहनत की भी कमी नहीं है। जब और जहाँ बिहारियों को मौका मिला, उन्होंने अपनी प्रतिभा का परिचय दिया है। और क्या चाहिए एक राज्य के सर्वांगीण विकास के लिए ? लेकिन अभी भी बिहार में गरीबी रेखा के नीचे रहने वालों की संख्या बहुत ज्यादा है। एक बहुत बड़ा वर्ग ऐसा है जिसको दो जून की रोटी भी बड़ी मुश्किल से नसीब होती है। बहुत से लोग कुपोषण के शिकार हैं। स्वास्थ्य सेवा का बुरा हाल है। गरीब जनता का निजी क्लिनिकों और अस्पतालों में जमकर शोषण हो रहा है।
बिहार में शायद ही कोई ऐसी राजनीतिक पार्टी है जो कभी सत्ता में हिस्सेदार नहीं रही हो। कांग्रेस का तो कई दशकों तक अकंटक राज रहा है। उसके बाद जनता दल की सरकार बनी तो लालू जी मुख्यमंत्री बने, राबड़ी जी मुख्यमंत्री बनी, उसके बाद नीतीश कुमार, जीतन राम मांझी, और फिर से नीतीश कुमार। भाजपा भी 2005 से 2013 तक सत्ता में भागीदार रही। प्रदेश में मुख्यमंत्री बदलते गए, सरकारें बदलती गयी लेकिन बिहार और बिहारियों की स्थिति में कोई खास बदलाव नहीं आया। जब भी चुनाव होता है, जो पार्टी सत्ता में रहती है वो बड़े सारे कामों की लिस्ट तैयार कर लेती है और दुबारा सत्ता में आने पर इनको करने का वादा करती है।
जो पार्टी विपक्ष में रहती है वो सत्ता पक्ष को निकम्मा साबित करने में लगी रहती है और सत्ता में आने पर खूब विकास करने का वादा करती है। सरकार द्वारा समय-समय पर विकास कार्य के दावे भी किये जाते रहते हैं। लेकिन अभी तक हुआ क्या है ? नीतीश कुमार जब 2005 में मुख्यमंत्री बने तब जनता को बहुत से सपने दिखाकर सत्ता में आए थे। सड़कों का खूब निर्माण हुआ भी। नियोजित शिक्षकों की भी नियुक्ति हुई। और क्या हुआ ? आज मुख्यमंत्री जी अपने 7 निश्चय को पूरा करने की बात करते हैं। इन सात निश्चयों में से एक है "हर घर बिजली लगातार", दूसरा है "हर घर नल का जल", तीसरा है "घर तक पक्की गली नालियाँ", चौथा है "शौचालय निर्माण घर का सम्मान" ।
मतलब कि इन 4 निश्चयों में से कुछ भी विलासिता संबंधी निश्चय नहीं है। मूलभूत सुविधा वाली बात कही गयी है निश्चयों में। खूब तारीफ हो रही है सत्ता पक्ष द्वारा कि नीतीश जी जनता को मूलभूत सुविधा देने के लिए कृत- संकल्प हैं। महागठबंधन के वोटर और सपोर्टर भी खूब खुश होंगे अपने नेताजी के कदम से। लेकिन कोई ये पूछे कि 1990 से ही दोनों भाइयों में से ही किसी एक की पार्टी सरकार रही है बिहार में, तो अभी तक जनता को ये मूलभूत सुविधा क्यों नहीं मिली ? बुराई नहीं है इसमें कि जनता को ये सुविधा मिलने वाली है। लेकिन नीतीश जी को 10 साल लग गए ये सोचने में कि जनता को ये सब सुविधा मिलनी चाहिए। ये 7 निश्चय पहले कार्यकाल में ही पूरे क्यों नहीं हुए ?
भाजपा भी शायद ही कोई ऐसा दिन गुजरने देती है, जिस दिन सरकार की आलोचना नहीं की हो। उनके लिए तो सरकार बनने के दिन से ही गलत काम कर रही है। एक भी काम की तारीफ नहीं करती कभी भाजपा, शायद शराबबंदी की की हो (मजबूरी में)। भाजपा के शीर्ष से लेकर निचली पदों के नेता और समर्थक, राज्य सरकार को कोसने में लगे रहते हैं। सरकार ये नहीं कर रही, सरकार वो नहीं कर रही। सरकार को ऐसे करना चाहिए सरकार को वैसा करना चाहिए। भाजपा वालों को ये सब बात अब क्यों याद आ रही है ? जब सत्ता में भागीदार थे तब क्यों याद नहीं आई ? अरे, जब आप इतने ही कार्यकुशल हो तो ये सब 2005-2013 के दौरान क्यों नहीं करवा पाए ? 8 साल का समय कम नहीं होता। अगर भाजपा वालों में इच्छा शक्ति होती तो बहुत कुछ विकास हो सकता था एनडीए के शासन काल के दौरान।
आज भी अच्छे स्वास्थ्य के लिए समर्थ लोग बिहार से बाहर, दिल्ली, मुम्बई आदि का ही रुख करते हैं। उच्च शिक्षा के लिए भी लोग अपने बच्चों को कोटा, दिल्ली, बंगलोर आदि ही भेजना पसंद करते हैं। नौकरी के लिए तो पलायन जारी ही है। अच्छी तकनीकी शिक्षा प्राप्त लोगों को बिहार में अच्छी नौकरी भी नहीं मिलती। कौन जिम्मेदार है इस बदहाली के लिए ? क्यों नहीं हो रहा बिहार का विकास ? कब तक चलेगा ऐसा ? कब होगी इस बदहाली का अंत। जाहिर है बिहार की दुर्दशा के लिए बिहार के नेता ही जिम्मेदार हैं। अगर इनमें प्रदेश के विकास की ललक होती तो बिहार और बिहारियों की स्थिति ऐसी नहीं होती।
लेकिन नेता तो चुनाव जीतते ही अपनी प्रगति में लग जाते हैं। जनता की प्रगति का ध्यान नहीं रहता उनको। बस नित-नयी बयानबाजी में लगे रहते हैं। पांचवी बार प्रदेश के मुख्यमंत्री बने नीतीश कुमार भी इस बार अपनी प्रगति करने के प्रयास में ही लगे हैं। भिन्न-भिन्न राज्यों में दौरा कर रहे हैं। अपने को अगला प्रधानमंत्री बनाने के लिए विभिन्न दलों के बीच सहमति बनाने में लगे हुए हैं और राज्य को अपने दो नौसिखिये भतीजो के हवाले कर दिया है। न प्रदेश में प्राकृतिक संसाधन की कमी है और न ही सरकार के पास पैसे की कमी है। सिर्फ अभाव है, तो बस इच्छा शक्ति की।
गुरुवार, 25 अगस्त 2016
"केजरीवाल" सिर्फ एक सरनेम नहीं बल्कि एक सोच, एक विचार धारा, एक युग का नाम हो गया है।
2012 के अन्ना आंदोलन से पहले "केजरीवाल" भारत में मौजूद अनेको जातियों में से एक जाति का सरनेम मात्र था। जैसे झा, पाण्डेय, मिश्रा, वर्मा, शर्मा, श्रीवास्तव, अग्रवाल, गुप्ता, यादव सरनेम होता है वैसे ही केजरीवाल भी एक सरनेम है। लेकिन अन्ना आंदोलन के दौरान एक नया सितारा जन मानस के बीच उदित हुआ, "अरविन्द केजरीवाल"। वैसे तो यह सितारा काफी पहले ही उदित हो चूका था और बहुत से लोग इसके प्रकाश से परिचित भी थे, लेकिन इसका दायरा सीमित था। अन्ना आंदोलन के बाद देश-विदेश में अरविन्द केजरीवाल के नाम की चर्चा हुई, लोग इनके बारे में जानने, सुनने और खोजने लगे।
अन्ना आंदोलन के पहले देश में निराशा का माहौल था। आम आदमी हर तरह से परेशान था। महँगाई बढ़ती जा रही थी, भ्रष्टाचार नित नए कीर्तिमान स्थापित करते जा रहा था। देश के ईमानदार लोगों में यह बात घर कर गयी थी कि इस देश का अब कुछ नहीं हो सकता। गरीबों की जिंदगी बद से बदतर हो रही थी। ऐसे में जनलोकपाल के लिए जंतर मंतर पर आंदोलन करने के लिए अन्ना जी दिल्ली आये। उनको लाने वाले थे अरविन्द केजरीवाल और उनकी टीम। इस आंदोलन को भ्रष्टाचार से परेशान लोगों का खूब समर्थन मिला। लोगों को लगा कि अभी नहीं तो कभी नहीं।
उसी दौरान अरविन्द केजरीवाल जी के व्यक्तित्व से भी लोगों को परिचित होने का मौका मिला। लोग उनके जादुई व्यक्तिव को देखकर मंत्र-मुग्ध हो गए। एक साधारण सा दिखने वाले आदमी में उनको अपनी बहुत सी आशा और उम्मीद पूरी होती दिखी। जब आम आदमी पार्टी बनी तो जैसे हर कोई इससे जुड़ने के लिए बेताब था। भ्रष्टाचार और महँगाई से निजात दिलाने वाला एक ही शख्स नजर आता था, अरविन्द केजरीवाल। अब निराश और परेशान लोगों को उम्मीद जगी कि इस देश का बहुत कुछ हो सकता है। अब गरीब नहीं, गरीबी दूर होगी देश से। हिंदुस्तान फिर से सोने की चिड़िया बन सकता है।
आज कोई ईमानदारी की बात करता है तो लोग उसको केजरीवाल कहते हैं। कोई भ्रष्टाचार के विरुद्ध आवाज उठाता है तो उसको केजरीवाल कहते हैं। कोई रिश्वत न लेने और देने की बात करता है तो उसको केजरीवाल कहते हैं। अब केजरीवाल शब्द सिर्फ एक सरनेम ही नहीं बल्कि उससे बहुत ज्यादा हो गया है। आज केजरीवाल एक सोच का नाम हो गया है। ईमानदारी की सोच, भ्रष्टाचार को बर्दाश्त न करने की सोच। आज केजरीवाल नाम हो गया है अन्याय को न सहने की सोच का। चौक चौराहों पर लोगों के मुंह से कहते हुए सुना जा सकता है कि ज्यादा केजरीवाल न बन।
आज केजरीवाल एक ऐसी विचारधारा बन गया है जिसका उद्देश्य भ्रष्टाचार को मिटाना है। जिसका उद्देश्य अमीरी और गरीबी के बीच की खाई को पाटना है। जिसका उद्देश्य दलित उत्प्रीड़न को ख़त्म करना है। जिसका उद्देश्य भयमुक्त समाज बनाना है। जिसका उद्देश्य चोर, लुटेरों, अपराधियों से समाज को मुक्त करना है। जिसका उद्देश्य वीआईपी संस्कृति को ख़त्म करना है। जिसका उद्देश्य जनप्रतिनिधियों को शासक से सेवक बनाना है। जिसका उद्देश्य राजनीति को विलासिता और वैभव पाने का साधन नहीं बल्कि जनसेवा का माध्यम बनाना है। जिसका उद्देश्य जनता को सर्वोपरि बनाना है न कि जनप्रतिनिधियों को।
आज केजरीवाल एक ऐसे युग का नाम बन गया है जब भय-भूख मुक्त समाज होगा। एक ऐसे युग का नाम जब जनता पुलिस से डरेगी नहीं बल्कि उसको अपना साथी समझेगी। जब सरकारी अधिकारी जनता की सुनेंगे, जनता का काम ईमानदारी पूर्वक करेंगे। सरकारी कार्यालय में बिना रिश्वत के काम होगा। कोई किसी का हक़ नहीं मारेगा। कोई किसी के अधिकारों पर अतिक्रमण नहीं करेगा। किसी को सबकुछ, किसी को बहुत कुछ, किसी को कुछ और किसी को कुछ नहीं, वाली बात नहीं रहेगी। हर तरफ खुशहाली होगी। सबको प्रगति के समान अवसर मिलेंगे। समाज में भ्रष्टाचार का नामोनिशान नहीं रहेगा। महँगाई पर लगाम लगेगी।
केजरीवाल युग की शुरुआत दिल्ली से हो चुकी है, जरूरत है कि हम केजरीवाल का साथ दें। अपनी बेहतरी के लिए, अपने अपनों की बेहतरी के लिए।
उसी दौरान अरविन्द केजरीवाल जी के व्यक्तित्व से भी लोगों को परिचित होने का मौका मिला। लोग उनके जादुई व्यक्तिव को देखकर मंत्र-मुग्ध हो गए। एक साधारण सा दिखने वाले आदमी में उनको अपनी बहुत सी आशा और उम्मीद पूरी होती दिखी। जब आम आदमी पार्टी बनी तो जैसे हर कोई इससे जुड़ने के लिए बेताब था। भ्रष्टाचार और महँगाई से निजात दिलाने वाला एक ही शख्स नजर आता था, अरविन्द केजरीवाल। अब निराश और परेशान लोगों को उम्मीद जगी कि इस देश का बहुत कुछ हो सकता है। अब गरीब नहीं, गरीबी दूर होगी देश से। हिंदुस्तान फिर से सोने की चिड़िया बन सकता है।
आज कोई ईमानदारी की बात करता है तो लोग उसको केजरीवाल कहते हैं। कोई भ्रष्टाचार के विरुद्ध आवाज उठाता है तो उसको केजरीवाल कहते हैं। कोई रिश्वत न लेने और देने की बात करता है तो उसको केजरीवाल कहते हैं। अब केजरीवाल शब्द सिर्फ एक सरनेम ही नहीं बल्कि उससे बहुत ज्यादा हो गया है। आज केजरीवाल एक सोच का नाम हो गया है। ईमानदारी की सोच, भ्रष्टाचार को बर्दाश्त न करने की सोच। आज केजरीवाल नाम हो गया है अन्याय को न सहने की सोच का। चौक चौराहों पर लोगों के मुंह से कहते हुए सुना जा सकता है कि ज्यादा केजरीवाल न बन।
आज केजरीवाल एक ऐसी विचारधारा बन गया है जिसका उद्देश्य भ्रष्टाचार को मिटाना है। जिसका उद्देश्य अमीरी और गरीबी के बीच की खाई को पाटना है। जिसका उद्देश्य दलित उत्प्रीड़न को ख़त्म करना है। जिसका उद्देश्य भयमुक्त समाज बनाना है। जिसका उद्देश्य चोर, लुटेरों, अपराधियों से समाज को मुक्त करना है। जिसका उद्देश्य वीआईपी संस्कृति को ख़त्म करना है। जिसका उद्देश्य जनप्रतिनिधियों को शासक से सेवक बनाना है। जिसका उद्देश्य राजनीति को विलासिता और वैभव पाने का साधन नहीं बल्कि जनसेवा का माध्यम बनाना है। जिसका उद्देश्य जनता को सर्वोपरि बनाना है न कि जनप्रतिनिधियों को।
आज केजरीवाल एक ऐसे युग का नाम बन गया है जब भय-भूख मुक्त समाज होगा। एक ऐसे युग का नाम जब जनता पुलिस से डरेगी नहीं बल्कि उसको अपना साथी समझेगी। जब सरकारी अधिकारी जनता की सुनेंगे, जनता का काम ईमानदारी पूर्वक करेंगे। सरकारी कार्यालय में बिना रिश्वत के काम होगा। कोई किसी का हक़ नहीं मारेगा। कोई किसी के अधिकारों पर अतिक्रमण नहीं करेगा। किसी को सबकुछ, किसी को बहुत कुछ, किसी को कुछ और किसी को कुछ नहीं, वाली बात नहीं रहेगी। हर तरफ खुशहाली होगी। सबको प्रगति के समान अवसर मिलेंगे। समाज में भ्रष्टाचार का नामोनिशान नहीं रहेगा। महँगाई पर लगाम लगेगी।
केजरीवाल युग की शुरुआत दिल्ली से हो चुकी है, जरूरत है कि हम केजरीवाल का साथ दें। अपनी बेहतरी के लिए, अपने अपनों की बेहतरी के लिए।
मंगलवार, 23 अगस्त 2016
रसगुल्ला किसका ?
23 अगस्त, 2016
हमारे देश में दो राज्यों के बीच किसी बात पर विवाद होना कोई नहीं बात नहीं है। किसी बड़े राज्य को दो भागों में बाँट कर जब एक नया राज्य बनाया जाता है तब दोनों के बीच राजधानी को लेकर विवाद होना आम बात है। नये राज्य की जनता चाहती है कि ये हमारे राज्य की राजधानी बने और पुराना राज्य इस पर से अपना हक़ छोड़ने को राजी नहीं होता। जब पंजाब से हरियाणा को अलग किया गया तो मामला ऐसा ही हो गया। दोनों ही राज्य चंडीगढ़ में राजधानी बनाना चाहते थे और अपने हिस्से में रखना चाहते थे। मामला सुलझते न देखकर दोनों ही राज्यों को अपनी राजधानी चंडीगढ़ में बनाने की इजाजत दे दी गयी और चंडीगढ़ को केंद्र शासित प्रदेश बना दिया गया।
कौन सा जिला किसके पास रहेगा, इस पर भी विवाद हो जाता है। जब उत्तर प्रदेश के एक हिस्से को अलग करके उत्तराखंड बनाया गया तो उधमसिंह नगर को लेकर विवाद हुआ था। कुछ लोग इसको उत्तर प्रदेश का हिस्सा ही बनाए रखना चाहते थे। राज्यों के बीच नदियों के जल बँटवारे को लेकर भी विवाद होता रहता है। तमिलनाडु और कर्नाटक के बीच कावेरी नदी के जल को लेकर विवाद न जाने कितने सालों तक चला। नदियों के जल को लेकर विवाद हरियाणा और पंजाब के बीच भी है।
लेकिन अब एक नया विवाद हो गया है दो राज्यों के बीच। पश्चिम बंगाल और ओडिशा दोनों ही रसगुल्ले पर अपना अपना दावा कर रहे हैं। रसगुल्ला का उद्भव स्थल कहाँ है इस पर विवाद अब कोर्ट में पहुँच गया है। पश्चिम बंगाल सरकार ने रसगुल्ले पर अपना दावा करते हुए भौगोलिक संकेत ( GI Tag ) के लिए कोर्ट में अपील की है। अगर इस तरह से खाने-पीने की चीजों को लेकर दो राज्यों के बीच विवाद शुरू हो जाए तो स्थिति बड़ी ही मुश्किल हो जाती है। शुक्र है पश्चिम बंगाल सरकार ने इस पर पेटेंट के लिए आवेदन नहीं किया। वरना दूसरे राज्य के लोग रसगुल्ला बना भी नहीं पाते।
क्या हो जब खाने-पीने की अन्य चीजों को लेकर भी राज्यों के बीच विवाद हो जाए ? दही-चूरा बिहार में खूब चाव से खाया जाता है, अब बिहार सरकार इसके उद्भव स्थल होने का दावा करे, तो ? बिरयानी पर हैदराबाद दावा करे, घुघनी पर बिहार दावा करे। बाटी चूरमा पर राजस्थान दावा करे, मक्की की रोटी सरसों के साग पर पंजाब दावा करे, लस्सी - छांछ पर हरियाणा दावा करे। ढोकला, फाफड़ा पर गुजरात दावा करे, वड़ा पाव पर महाराष्ट्र दावा करे। आसानी से समझा जा सकता है कि स्थिति कितनी मुश्किल हो जायेगी।
और माननीय न्यायालय के लिए कितना मुश्किल हो जाएगा फैसला करना अगर मामला न्यायालय में पहुँच गया तो ?
सोमवार, 22 अगस्त 2016
गरीब की गरीबी दूर हो, पूंजीपतियों को कैसे मंजूर हो ?
22 अगस्त, 2016
इस साल दिल्ली के मुख्यमंत्री श्री अरविन्द केजरीवाल जी ने स्वतंत्रता दिवस के मौके पर दिल्ली के गरीबों को बहुत बड़ा तोहफा दिया। न्यूनतम मजदुरी में लगभग 50% की वृद्धि करने की घोषणा कर दी। स्वतंत्रता दिवस के मौके पर छत्रसाल स्टेडियम में आयोजित समारोह में बोलते हुए केजरीवाल जी ने कहा कि हमारी सरकार अमीर, मध्यम वर्ग और गरीब, सबका ख्याल रखती है। सिर्फ अमीरों के हित को ध्यान में रखकर बनाई गयी नीति सफल नहीं होती है।
श्री केजरीवाल जी द्वारा घोषित न्यूनतम मजदूरी की नई दर निम्न प्रकार से है।
अकुशल व्यक्ति के लिए : 9,568/- से बढाकर 14,052 /- प्रति माह।
अर्ध-कुशल व्यक्ति के लिए : 10,582/- से बढाकर 15,471 /- प्रति माह।
कुशल व्यक्ति के लिए : 11,622/- से बढाकर 17,033/- प्रति माह।
सुनते ही गरीबों-मजदूरों की ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा। उनको लगा जैसे बरसों की आस पूरी हो गयी। जी भर के दुआएं देने लगे केजरीवाल को। पहले बिजली की दर आधी कर दी और पानी मुफ्त कर दिया, फिर अच्छी स्वास्थ्य सेवा, मुफ्त दवाई और जांच के साथ घर के नजदीक कर दिया। और अब वेतन में अप्रत्याशित वृद्धि। एक आम जनता को और क्या चाहिए एक अच्छी, सच्ची और ईमानदार सरकार से ? दरअसल पिछले कुछ सालों से महँगाई बेतहाशा बढ़ती चली जा रही है। दूध, फल, दाल, चावल, नमक, मसाला, सब्जी, मतलब रोजमर्रा की हर एक वस्तु की कीमत बढ़ती ही जा रही है।
सरकारी नौकरी करने वालों के लिए तो वेतन आयोग है, हर साल वेतन वृद्धि होती है, साल में दो बार महँगाई भत्ता भी बढ़ाया जाता है लेकिन निजी संस्थानों में काम करने वालों के पास महँगाई की चक्की में पिसने के अलावा और कोई चारा नहीं। न्यूनतम मजदूरी की वर्तमान दर से इनका काम बिलकुल नहीं चल रहा है और बहुत परेशान हैं ये लोग। ऐसे में केजरीवाल जी की ये घोषणा, मरुस्थल में प्यासे घूम रहे व्यक्ति के लिए मीठे जल के जलाशय की तरह प्रकट हुआ।
लेकिन कुछ लोगों को गरीबों की इस खुशी से बिल्कुल भी खुशी नहीं हुई। कुछ पूंजीपतियों, उद्योगपतियों में बिलकुल निराशा दौड़ गई। अवाक् रह गए ये लोग। पता नहीं, गरीबों की खुशी में इनको क्या परेशानी दिख रही है। लगे इसका विरोध करने। तरह-तरह के तर्क भी दे रहे हैं, इस वृद्धि को रोकने के लिए। कह रहे हैं की मंदी का दौर है काम धंधा चौपट हो जाएगा। गरीब को थोड़ा ज्यादा मिल जाएगा तो इनका धंधा चौपट हो जाएगा ? आजादी के बाद से ही गरीब और गरीब एवं अमीर और अमीर होता जा रहा है।
मजदूर अपनी पूरी जिंदगी किराये के मकान, झुग्गियों में गुजार देता है और मालिक की कोठी और फैक्ट्री एक से बढ़कर दो तीन चार होती जाती है। जो मजदूर अपने खून पसीने की मेहनत की बदौलत मालिक के व्यापार को आगे बढ़ाता है उसके वेतन में थोड़ी सी वृद्धि से क्या अर्थ-व्यवस्था हिल जायेगी ? हड़ताल और बंद की भी धमकी दी जा रही है। लेकिन ये केजरीवाल और उसकी सरकार है। आम आदमी का साथ और दुआ लेकर बनी है ये सरकार। केजरीवाल जी अपने किसी भी फैसले से पलटने वाले व्यक्ति नहीं हैं और गरीबों-मजदूरों को एक अच्छी जिंदगी और सम्मान-जनक आय दिलाकर ही रहेंगे।
पूंजीपतियों और उद्योगपतियों को भी चाहिए कि अपना दिल थोड़ा और बड़ा करे एवं सरकार के इस फैसले को खुशी खुशी स्वीकार करे।
निजी क्लिनिकों में कतार है, बिहार में बहार है।
22 अगस्त, 2016
बिहार में लगभग 1 साल से मंगलराज चल रहा है। बड़े और छोटे भाई की मिली-जुली सरकार है जिसके मुखिया छोटे भाई हैं, कांग्रेस तो बड़े भाई के साथ पहले भी रह चुकी है। वैसे तो 1990 से ही इन भाइयों की सरकार रही है। कभी लालू जी मुख्यमंत्री बने कभी राबड़ी जी तो कभी नीतीश जी, लगभग 1 साल के लिए जीतन राम माझी जी भी मुख्यमंत्री थे। 2005 में जब नीतीश जी मुख्यमंत्री बने तो बड़े भैया एवं भाभी के शासन काल को खूब कोस कर सत्ता में आए थे। तब वो भाजपा के साथ गठबंधन में सरकार के मुखिया थे। 1990 से आज तक करीब 26 साल से इन दोनों भाइयों की सरकार रही है, लेकिन बिहार की दुर्दशा में कोई ज्यादा कमी नहीं आई है। मजे की बात ये है कि जितना भी विकास कार्य हुआ है इसका श्रेय लेने में दोनों भाई पीछे कभी नहीं हटते लेकिन जहाँ जहाँ ये कुछ नहीं कर पाए हैं, जिस भी क्षेत्र में प्रगति नहीं हुई है उसका बड़ी बखूबी से दूसरे के सिर पर ठीकरा फोड़ देते हैं।
बिहार में स्वास्थ्य सेवा की दुर्दशा किसी से छिपी नहीं है। लोग बीमार पड़ते ही निजी क्लिनिकों की तरफ रुख करते हैं। सरकारी अस्पताल या प्राथमिक सेवा केंद्र में जाना किसी के दिमाग में भी कभी नहीं आता है। बीमार व्यक्ति एवं उसके परिजन के दिमाग में सिर्फ और सिर्फ अच्छा इलाज पाना होता है, खर्च नहीं देखते बीमारी के समय। लोग इलाज करवा करवा के कंगाल हो रहे हैं और ये निजी क्लिनिक और अस्पताल वाले मालामाल हो रहे हैं। कारण, सरकार द्वारा उपलब्ध स्वास्थ्य सेवा सस्ती या फिर मुफ्त तो है लेकिन गुणवत्ता के मामले में बिलकुल जीरो है। कुछ लोग ज्यादा पैसे खर्च नहीं कर पाने की स्थिति में सरकारी अस्पतालों या स्वास्थ्य सेवा केंद्रों कर रुख करते भी हैं तो उनका अनुभव ऐसा ही होता है कि "मर्ज बढ़ता गया ज्यों-ज्यों दवा की"।
ऐसा नहीं है कि सरकार के पास खर्च करने के लिए पैसा नहीं है। स्वास्थ्य सेवा पर सरकार खूब पैसा खर्च कर रही है। डॉक्टरों, नर्सों, एवं गैर चिकित्सीय कर्मचारियों के वेतन और भत्तों पर पैसा पानी की तरह बहा रही है सरकार। यहाँ तक कि बिजली न रहने की स्थिति में रोगियों के इलाज , उनके देख-रेख में कोई परेशानी नहीं आये इसके लिए जेनरेटर एवं डीजल के पैसे भी खर्च करती है सरकार। लेकिन जनता को इसका कोई फायदा नहीं मिल पा रहा है। कभी डॉक्टर नदारद तो कभी दवाई ही मौजूद नहीं। कभी मेहरबानी करके डॉक्टर साहेब आ भी गए तो कर्मचारियों का व्यवहार ऐसा होता है कि लोग हारकर निजी क्लिनिक का ही रुख करते हैं।
अगर सरकारी स्वास्थ्य सेवा अच्छी होती तो लोग निजी क्लिनिकों और अस्पतालों में जाकर पैसा क्यों खर्च करते ? दोनों भाइयों के 26 साल से ज्यादा के शासन काल के बावजूद अगर बिहार की जनता को स्वास्थ्य लाभ के लिए निजी क्लिनिकों और अस्पतालों में जाना पड़ता है तो ये किसकी असफलता है ? कभी किसी डॉक्टर के निजी क्लिनिक का भ्रमण कर लीजिए। मरीजों की ऐसी भीड़ लगी होती है जैसे वहाँ मुफ्त की खैरात बाँटी जा रही हो। ऐसी भीड़ सरकारी अस्पतालों एवं प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों पर लगनी चाहिए।
निजी क्लिनिकों एवं अस्पतालों में मरीजो को आराम तो मिलता है लेकिन आर्थिक दोहन भी कम नहीं होता। मनमाने फ़ीस लेते हैं ये लोग। गैर-जरूरी जाँच भी खूब करवाये जाते हैं। अभी कुछ दिनों पहले ही खबर आई थी कि एक निजी अस्पताल में मरीज की मृत्यु के बाद भी सिर्फ बिल बढ़ाने के उद्देश्य से उसका इलाज जारी रखा जा रहा था। शिक्षित चिकित्सकों की क्या कहिए ऐसे झोला छाप डॉक्टर भी जिनको बीमारी और दवाओं में प्रयुक्त रसायनों के बारे में कोई प्रामाणिक ज्ञान नहीं है वो भी चाँदी काट रहे हैं।
यूँ तो साल के बारहो महीनो इनके लिए कमाई का ही मौसम रहता है लेकिन मानसून के महीनों में तो निजी क्लिनिकों और अस्पतालों तथा झोला छाप डॉक्टरों के लिए जैसे बसंत का मौसम आ जाता है। खूब कमाई होती है इनकी। सरकार सरकारी अस्पतालों की स्थिति सुधारने में कड़ाई क्यों नहीं बरतती ? वैसे बिहार के ज्यादा राजनेताओं के बच्चे बच्चियाँ डॉक्टर ही हैं। इनमें से बहुतों के निजी अस्पताल भी हैं। फिर यहाँ तो हितों का टकराव का ही मामला है। अगर सरकारी अस्पताल स्वस्थ हो जाए तो निजी क्लिनिक और अस्पताल बीमार नहीं हो जाएंगे ?
लोग निजी क्लिनिकों और अस्पतालों के हाथों लुट रहे हैं और सरकार चुप चाप देख रही है। और हाँ, सुशासन बाबू तो प्रधान मंत्री बनने में व्यस्त हैं।
रविवार, 21 अगस्त 2016
खुश हो जाओ, 2 मेडल आ गए।
21 अगस्त, 2016
जी हाँ, बड़े गर्व की बात है। ओलम्पिक में एक रजत और एक कांस्य पदक हासिल हुआ हमारे देश को। बहुत-बहुत बधाई दोनों विजेताओं को, उनके माता-पिता को एवं सम्पूर्ण देश को। बहुत खुशनुमा माहौल है, सब बहुत खुश हैं। सोशल मीडिया में उत्साह - अति उत्साह का माहौल है। कुछ लोग कह रहे हैं कि बेटियों ने हमारे देश की लाज रख ली। कुछ लोग कह रहे हैं कि हमारे देश में सब्जी से लेकर मेडल तक लेने महिलाओं को ही जाना पड़ता है। एक घटना पूरी धारणा को बदल कर रख देती है। क्या इस तरह की टिप्पणी होती, अगर दोनों ही पदक विजेता पुरुष होते ? क्या किसी में ये कहने की हिम्मत होती कि आखिर पुरुषों ने ही देश की लाज रखी ? शायद नहीं। क्या पुरुषों ने भारत के लिए कभी कोई मेडल नहीं जीता ?
खुशनुमा माहौल है। हम जब प्रशंसा करने पर आते हैं तो पराकाष्ठा कर देते हैं। 2 मेडल लाने में जिन लोगों का योगदान रहा उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा होनी चाहिए। कोच की प्रशंसा होनी चाहिए जिनके कुशल प्रशिक्षण के बिना मेडल मिलना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन था। विजेताओं के माता-पिता की प्रशंसा होनी चाहिए जिन्होंने, कैसे भी हालात हो, लेकिन अपनी बच्चियों के प्रशिक्षण में कोई कमी नहीं होने दी। इन बच्चियों की भी प्रशंसा होनी चाहिए जिन्होंने जी-तोड़ मेहनत की और अपने देश का मान बढ़ाया । दिल्ली सरकार द्वारा प्रोत्साहन-स्वरुप सिंधु को 2 करोड़ रुपए और साक्षी को 1 करोड़ रुपए नकद इनाम देने की घोषणा हुई है।
लेकिन सवाल उठता है कि 125 करोड़ की जनसंख्या वाले देश में सिर्फ 2 ही मेडल क्यों ? एक भरा-पूरा खेल मंत्रालय है हमारे देश में। पैसा पानी की तरह बहाया जाता है। लेकिन नतीजा क्या मिलता है ? मंत्री और बाबुओं के ठाट-बाट में ही खत्म हो जाता है पैसा ? सिर्फ क्रिकेट को छोड़कर कोई भी खेल लोकप्रिय नहीं है हमारे देश में। तो क्या खेल मंत्रालय का सारा ध्यान सिर्फ और सिर्फ क्रिकेट की तरक्की में ही है ? जिस किसी भी खिलाडी को देखो सबको संसाधनों के अभाव से दो-चार होने की खबर आती रहती है। आज कल सोशल मीडिया में प्रधान मंत्री मोदी जी का एक वीडियो खूब देखा और शेयर किया जा रहा है जिसमें वो कुछ तरीके बताते हैं जिससे 5-7 मेडल तो ऐसे ही आ जाते हमारे देश के हिस्से। अगर ये वीडियो सही है तो अब जब वो प्रधान मंत्री बन गए हैं तो उन उपायों को क्यों नहीं लागू करवाते हैं ?
संसाधनों का अभाव होते हुए भी जैसे-तैसे ये खिलाडी जब ओलंपिक जैसे प्रतियोगिता में हिस्सा लेने के योग्य खुद को बनाते हैं तब भी इनकी परेशानी कम नहीं होती। अभी ओलम्पिक के दौरान ही किसी खिलाडी का बयान सोशल मीडिया में आया था कि खिलाडियों के लिए इकोनॉमी क्लास के टिकट मुहैया करवाये गए थे। जबकि मैनेजर और बाबु लोग बिजनेस क्लास में सफर किए। मंत्री जी किस क्लास में सफर किए थे ? कितनी अजीब बात है ? जिसके प्रदर्शन को देखने लिए, जिसको प्रोत्साहित करने के लिए ये लोग रियो गए वो इकोनॉमी क्लास में और ये महानुभाव, जिनके गए बिना भी काम चल सकता है, बिजनेस क्लास में गए।
जिनको वहाँ जाकर अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन करना है वो 36 घंटे का सफर बिना अच्छी नींद किए हुए पूरा करे और कर-दाताओं के पैसे पर पलने वाले लोग आराम की नींद लें। ये मजाक नहीं तो क्या है ? 125 करोड़ की आबादी वाले देश में क्या कभी कोई खिलाड़ी खेल मंत्री बना ? क्या अच्छा नहीं होता कि शिक्षा मंत्री कोई शिक्षाविद होता, खेल मंत्री किसी महान खिलाडी को बनाया जाता, कृषि मंत्री, कृषि के क्षेत्र में महारत रखने वाले को बनाया जाता, वित्त मंत्री किसी महान अर्थशास्त्री को बनाया जाता । लेकिन नहीं, यहाँ तो सबकुछ इस बात पर निर्भर करता है कि सत्ता रूढ़ पार्टी में किसकी पहुँच कितनी है, किसका कद कितना बड़ा है।
पूर्व शिक्षा मंत्री की शैक्षणिक योग्यता देशजाहिर है, वित्त मंत्री कानून के बहुत बड़े ज्ञाता हैं, खेल मंत्री को किस खेल में महारत हासिल है मुझे नहीं पता। कृषि मंत्री का परिवार कृषक हो सकता है लेकिन उनको तो मैंने बीच के कुछ सालों को छोड़ कर 1990 से ही सांसद के रूप में ही देखा है। सिर्फ मंत्रालय ही नहीं प्रमुख खेल संघो के अध्यक्ष पद पर राजनीतिक व्यक्ति ही आसीन होते रहते हैं। बीसीसीआई के अध्यक्ष पद को मुझे याद नहीं कि कब किसी क्रिकेटर ने सुशोभित किया। वो तो थोड़ी मजबूरी है वरना ये कोच के पद पर भी राजनीतिक लोगों को ही बिठा दें। जैसे चिकित्सक की जगह किसी रेडियोलाजिस्ट को ले गए थे रियो ओलम्पिक में ।
सुनिये गुरु जी, विद्यार्थी विद्यालय नहीं आया तो वेतन काट लेंगे।
चौंकने की बात नहीं है। एक और तुगलकी आदेश आ गया है बिहार सरकार का। आखिर बिहार सरकार समझती क्या है शिक्षकों को ? शिक्षकों से गैर-शिक्षण कार्य तो करवाये ही जाते थे। मसलन, मतदाता सूची का पुनरीक्षण कार्य भी शिक्षक करेंगे, जनगणना का कार्य भी शिक्षक ही करेंगे। जब मतदान होगा तो इसके लिए भी अन्य सरकारी कर्मचारियों के साथ -साथ इनकी सेवा भी ली जाएगी। इसके साथ-साथ अन्य कोई कार्य भी होगा तो शिक्षक को ही करना है। और हाँ, इन सबके साथ-साथ गुरु जी, आपको बच्चों को शिक्षा तो देना ही है।
बिहार में जब से मध्याह्न भोजन बनाने का कार्य स्कूल में ही करवाने का फैसला लिया गया है, तब से इसकी जिम्मेदारी भी प्रधान-शिक्षक की ही हो गयी है। अब माध्यमिक विद्यालय में कोई चपरासी तो होता नहीं है, तो गुरु जी आपको ही सब्जी, मसाला खरीद कर लाना होगा। हाँ, चावल जरूर मुहैया कराया जाएगा आपको। हर दूसरे तीसरे-दिन कोई न कोई सूचना अधिकारियों को चाहिए होती है। ये भी गुरू जी ही तैयार करें। इतना सब करने के बाद शिक्षण कार्य में कोई बाधा या रुकावट नहीं आनी चाहिए गुरु जी।
आपके ऊपर देश के भविष्य के निर्माण की जिम्मेदारी है, इसको आपको बहुत कुशलता से निभाना होगा। अब इतने सारे गैर-शिक्षण कार्य करने के बाद गुरु जी के पास कितना समय और कितनी ऊर्जा बचेगी कि वो शिक्षण कार्य में लगाएंगे। लेकिन सरकार का आदेश है, पालन करना तो पड़ेगा ही। दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सरकार ने आते ही निर्णय लिया कि शिक्षकों को किसी भी गैर-शिक्षण कार्यों में नहीं लगाया जाएगा। बस, इसी आदेश के साथ दिल्ली में शिक्षा के क्षेत्र में क्रांति की शुरुआत हो गयी। लेकिन बिहार सरकार शिक्षक और शिक्षा के महत्त्व को गंभीरता से नहीं समझ रही है।
कोई भी काम हो, करवा लो शिक्षकों से ही। आखिर शिक्षा को इतने हलके में क्यों ले रही है बिहार सरकार ? इतना सब क्या कम था जो महीने के शुरुआत में ही एक नया तुगलकी आदेश ले आयी बिहार सरकार ? अब इस आदेश के मुताबिक अगर किसी विद्यालय में छात्रों की उपस्थिति 75% से कम हुई तो प्रधान-शिक्षक और शिक्षक का परम कर्तव्य है कि अनुपस्थित छात्र-छात्राओं के अभिभावक से मिले और बच्चे को विद्यालय में लाए। अब ये काम किस समय करे गुरूजी ? अगर स्कूल के समय करे तो बच्चों को कौन पढाये ? अगर स्कूल के समय के बाद करे, तो क्यों करे ? क्या इस काम के लिए गुरू जी को अतिरिक्त वेतन मिलेगा ?
अगर तीन बार निरीक्षण के दौरान विद्यार्थियों की उपस्थिति 75% से कम पायी जाती है, तो प्रधान-शिक्षक और शिक्षकों के वेतन से निरीक्षण के दिन का वेतन काटा जाएगा। अब क्या करे गुरु जी ? विद्यालय में रहकर उपस्थित विद्यार्थियों को शिक्षा दे या घर-घर जाकर लोगों को समझाए कि आप अपने बच्चों को विद्यालय भेजिए। नहीं भेजियेगा तो हमारा वेतन कट जाएगा। सरकार इन सब कामों के लिए एक पद क्यों नहीं सृजित कर देती ? सुना है, बिहार के कुछ स्कूलों में टोला-सेवक का भी एक पद है।
क्यों नहीं टोला-सेवक को इस बात की जिम्मेदारी दे दी जाती है कि विद्यालय में छात्र-छात्राओं की उपस्थिति को सुनिश्चित करे ? विद्यालय प्रबंध समिति में भी बहुत से लोग होंगे, क्यों नहीं उन्ही को इसकी भी जिम्मेदारी दे देती है सरकार ? लेकिन नहीं, वेतन तो गुरु जी को ही मिलता है इसलिए सारे काम गुरूजी ही करेंगे। क्यों नहीं सरकार सरकारी विद्यालयों में शिक्षा का स्तर बढाती है ? किसी भी अभिभावक को अपने बच्चों को कहीं न कहीं पढ़वाना ही है। उनको जहाँ शिक्षण-स्तर अच्छा लगेगा वही अपने बच्चों को भेजेंगे। लेकिन, इतना सोचने समझने की फुर्सत किसको है ? प्रधानमंत्री बनने की तैयारी से फुर्सत मिले, तब न ये सब सोचे नीतीश जी।
आपके ऊपर देश के भविष्य के निर्माण की जिम्मेदारी है, इसको आपको बहुत कुशलता से निभाना होगा। अब इतने सारे गैर-शिक्षण कार्य करने के बाद गुरु जी के पास कितना समय और कितनी ऊर्जा बचेगी कि वो शिक्षण कार्य में लगाएंगे। लेकिन सरकार का आदेश है, पालन करना तो पड़ेगा ही। दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सरकार ने आते ही निर्णय लिया कि शिक्षकों को किसी भी गैर-शिक्षण कार्यों में नहीं लगाया जाएगा। बस, इसी आदेश के साथ दिल्ली में शिक्षा के क्षेत्र में क्रांति की शुरुआत हो गयी। लेकिन बिहार सरकार शिक्षक और शिक्षा के महत्त्व को गंभीरता से नहीं समझ रही है।
कोई भी काम हो, करवा लो शिक्षकों से ही। आखिर शिक्षा को इतने हलके में क्यों ले रही है बिहार सरकार ? इतना सब क्या कम था जो महीने के शुरुआत में ही एक नया तुगलकी आदेश ले आयी बिहार सरकार ? अब इस आदेश के मुताबिक अगर किसी विद्यालय में छात्रों की उपस्थिति 75% से कम हुई तो प्रधान-शिक्षक और शिक्षक का परम कर्तव्य है कि अनुपस्थित छात्र-छात्राओं के अभिभावक से मिले और बच्चे को विद्यालय में लाए। अब ये काम किस समय करे गुरूजी ? अगर स्कूल के समय करे तो बच्चों को कौन पढाये ? अगर स्कूल के समय के बाद करे, तो क्यों करे ? क्या इस काम के लिए गुरू जी को अतिरिक्त वेतन मिलेगा ?
अगर तीन बार निरीक्षण के दौरान विद्यार्थियों की उपस्थिति 75% से कम पायी जाती है, तो प्रधान-शिक्षक और शिक्षकों के वेतन से निरीक्षण के दिन का वेतन काटा जाएगा। अब क्या करे गुरु जी ? विद्यालय में रहकर उपस्थित विद्यार्थियों को शिक्षा दे या घर-घर जाकर लोगों को समझाए कि आप अपने बच्चों को विद्यालय भेजिए। नहीं भेजियेगा तो हमारा वेतन कट जाएगा। सरकार इन सब कामों के लिए एक पद क्यों नहीं सृजित कर देती ? सुना है, बिहार के कुछ स्कूलों में टोला-सेवक का भी एक पद है।
क्यों नहीं टोला-सेवक को इस बात की जिम्मेदारी दे दी जाती है कि विद्यालय में छात्र-छात्राओं की उपस्थिति को सुनिश्चित करे ? विद्यालय प्रबंध समिति में भी बहुत से लोग होंगे, क्यों नहीं उन्ही को इसकी भी जिम्मेदारी दे देती है सरकार ? लेकिन नहीं, वेतन तो गुरु जी को ही मिलता है इसलिए सारे काम गुरूजी ही करेंगे। क्यों नहीं सरकार सरकारी विद्यालयों में शिक्षा का स्तर बढाती है ? किसी भी अभिभावक को अपने बच्चों को कहीं न कहीं पढ़वाना ही है। उनको जहाँ शिक्षण-स्तर अच्छा लगेगा वही अपने बच्चों को भेजेंगे। लेकिन, इतना सोचने समझने की फुर्सत किसको है ? प्रधानमंत्री बनने की तैयारी से फुर्सत मिले, तब न ये सब सोचे नीतीश जी।
शनिवार, 6 अगस्त 2016
तो उप-राज्यपाल ही दिल्ली के प्रशासक हैं।
8/06/2016 09:42:00 am
दिल्ली पूर्ण राज्य, दिल्ली सरकार
2 comments
6 अगस्त, 2016
परसों ही माननीय उच्च न्यायालय का फैसला आ गया है, साफ़-साफ़ कहा गया है कि दिल्ली अभी भी केंद्र-शासित प्रदेश (यूनियन टेरिटरी) है और उपराज्यपाल ही दिल्ली के प्रशासक हैं। एलजी साहेब की मर्जी के बिना कोई भी फैसला नहीं लिया जा सकता। एलजी साहेब, कैबिनेट के फैसले को मानने के लिए बाध्य नहीं है। निश्चित रूप से माननीय उच्च न्यायालय का फैसला ऐतिहासिक है। इसमें साफ़-साफ़ एलजी साहेब के अधिकारों की व्याख्या की गई है।
वैसे तो जब से दिल्ली को (अपूर्ण) राज्य का दर्जा दिया गया, तभी से ही उप-राज्य पाल और मुख्यमंत्री के अधिकारों की बात की जाती रही है। मदन लाल खुराना या साहिब सिंह वर्मा का तो याद नहीं लेकिन अपने 15 साल के कार्यकाल के दौरान शीला दीक्षित ने कई बार दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा न होने के कारण अपनी विवशता जाहिर कर चुकी हैं। दोनों ही पार्टियाँ अपने-अपने चुनावी घोषणापत्र में दिल्ली को पूर्ण राज्य कर दर्जा दिए जाने का संकल्प करते देखी गई है। लेकिन केंद्र की सत्ता में आने के बाद किसी ने इस दिशा में पहल नहीं की, कोई फैसला नहीं लिया। बहाने जरूर बनाए गए।
वैसे तो मीडिया और विरोधी दलों ने इस फैसले को केजरीवाल को झटका कहकर खूब प्रचारित किया, लेकिन इससे केजरीवाल और दिल्ली सरकार को कोई झटका नहीं लगा है। झटका तो जनता को लगा है जो केजरीवाल को ही दिल्ली का सबकुछ समझ रही थी। हर समस्या का समाधान केजरीवाल को ही समझ रही थी। झटका तो विरोधी दलों को लगा है जो दिल्ली की हर समस्या चाहे वह दिल्ली सरकार के कार्य क्षेत्र में हो या न हो, के लिए दिल्ली सरकार को ही जिम्मेदार ठहराती थी और हर दूसरे दिन केजरीवाल सरकार को हर मोर्चे पर विफल साबित करने की असफल कोशिश करती थी। विरोधियों के दुष्प्रचार का ये आलम था कि दिल्ली की जनता के कुछ वर्ग को समझाने में ये कुछ हद तक कामयाब भी हो गए थे कि दिल्ली सरकार बहुत निकम्मी है।
अब जनता को साफ़ साफ़ समझ आ गया होगा कि भैया केजरीवाल के हाथ में तो कुछ भी नहीं है, जो करेंगे वो एलजी साहेब ही करेंगे। उम्मीद है कि अब जनता इन भाजपाइयों और कांग्रेसियों के बहकावे में आकर केजरीवाल या मंत्रियों का घेराव या उनके घर पर धरना प्रदर्शन नहीं करेगी। जब केजरीवाल के फैसले को मानने के लिए उपराज्यपाल साहेब बाध्य ही नहीं हैं और न ही इनसे सलाह लेने के लिए बाध्य हैं तो दिल्ली की बदहाली के लिए केजरीवाल या दिल्ली सरकार जिम्मेदार कैसे हो सकती है ?
शुक्रवार, 5 अगस्त 2016
नितिन पटेल नहीं, विजय रूपानी होंगे गुजरात के अगले मुख्यमंत्री ?
5 अगस्त, 2016
आज बड़ा ही चौंकाने वाला फैसला किया भारतीय जनता पार्टी ने। विजय रूपानी का नाम गुजरात के नए मुख्यमंत्री के लिए घोषित किया गया भाजपा द्वारा। पार्टी का बहुत बड़ा जनाधार है पटेलों के रूप में। शुरू से ही भाजपा इस समुदाय को खुश करके चल रही है। नरेन्द्र मोदी जी से पहले गुजरात के मुख्यमंत्री केशु भाई पटेल ही थे। जब नरेन्द्र मोदी जी प्रधानमंत्री बन गए तब उनके उत्तराधिकारी के रूप में गुजरात में मुख्यमंत्री पद के लिए आनंदी बेन पटेल को ही चुना गया। पिछले वर्ष पटेल आरक्षण के मुद्दे पर सरकार से नाराज पटेल समुदाय, हार्दिक पटेल के नेतृत्व में गुजरात में गोलबंद हो गया।
आनंदी बेन पटेल इस मुद्दे को सफलता पूर्वक हल करने में बुरी तरह से नाकाम साबित हुई थी। शायद, यही कारण है कि उनको मुख्यमंत्री पद छोड़ना पड़ा। अब उनके उत्तराधिकारी के रूप में भी किसी पटेल को ही चुनने की चर्चा जोरों पर थी। इनमें नितिन पटेल का नाम सबसे आगे चल भी रहा था। लेकिन आज अचानक भारतीय जनता पार्टी ने विजय रूपानी जी के नाम की घोषणा करके सबको चौंका दिया और सारी अटकलों पर विराम लगा दिया।
खबर है कि आधिकारिक घोषणा होने के पहले से ही नितिन पटेल के समर्थक उनको लगातार बधाइयाँ दे रहे थे और खुशी-खुशी नेताजी इसको स्वीकार भी कर रहे थे। शायद यही बात पार्टी नेतृत्व को बुरी लग गयी और इनको उप-मुख्यमंत्री बनाने की बात कही गयी। वैसे तो यह भारतीय जनता पार्टी का अंदरूनी मामला है, लेकिन अगर यह सच है तो लोकतंत्र के लिए बड़ी अच्छी बात है। पार्टी कोई भी हो, लेकिन आंतरिक अनुशासन तो होना ही चाहिए। बेशक, परिणाम सबको पता हो लेकिन आधिकारिक घोषणा करने का अधिकार सिर्फ और सिर्फ पार्टी नेतृत्व को ही है। आधिकारिक घोषणा से पहले ही किसी भी तरीके से परिणाम का इशारा देना, अनुशासनहीनता ही कही जायेगी। ऐसा करके भारतीय जनता पार्टी ने बहुत अच्छा किया है और संकेत दे दिया है कि पार्टी में अनुशासनहीनता बर्दाश्त नहीं की जायेगी।
काफी दिनों बाद भारतीय जनता पार्टी के किसी कदम पर खुशी महसूस हुई है, देखते हैं कब तक टिकी रहती है।
गुरुवार, 4 अगस्त 2016
दिल्ली सरकार ने दो निजी स्कूलों का अधिग्रहण किया।
4 अगस्त, 2016
कल ही दिल्ली सरकार ने शहर के दो नामी स्कूल का संचालन अपने हाथों में लेने का फैसला किया। दरअसल ये एक ही स्कूल के दो ब्रांच हैं। हालाँकि इस पर माननीय उच्च न्यायालय द्वारा अभी रोक लगा दी गई है। ये सच है कि आज कल शिक्षा प्रदान करना एक व्यवसाय बन गया है। इसको शिक्षा उद्योग कहना गलत नहीं होगा। अब स्कूलों का उद्देश्य सिर्फ और सिर्फ पैसा कमाना ही रह गया है। बच्चों को शिक्षित करना अब इनका ध्येय नहीं रहा। पूंजीपति लोग सरकार से नगण्य कीमत पर प्राइम लोकेशन पर जमीन ले लेते हैं, यह कहकर कि हम गरीबों को मुफ्त में शिक्षा देंगे। अगर मार्किट रेट पर लेते तो इन जमीनों की कीमत करोडों में होती। ऐसा ही कुछ प्राइवेट हॉस्पिटल्स भी करते हैं, ये एक अलग चर्चा का विषय है।
एक बार जमीन ले लेने के बाद इनका एक-सूत्री कार्यक्रम सिर्फ पैसा कमाना रह जाता है। गरीबों को शिक्षा देने का मकसद बिना सरकार की कड़ाई के पूरा ही नहीं होता है। जब मन किया फ़ीस बढ़ा दिया। मैनेजमेंट कोटा के नाम पर बहुत सारी सीटों को रिजर्व रख लेने के मामले भी आते रहते हैं। उन सीटों को बाद में मोटे डोनेशन लेकर बेचने की खबर भी आती रहती है। गरीबों को एडमिशन देने के मामले में भी झोल चलता रहता है इनका। कई बार तो गरीबों के कोटे में से ही फर्जी दस्तावेज बनवाकर समर्थ लोगों के बच्चों को एडमिशन देने की खबर भी आती रहती है।
ऐसा नहीं है कि ये गड़बड़ झाला इस सरकार के आने के बाद ही शुरू हुआ है। पहले भी ऐसा होता था, लेकिन खबर बाहर नहीं आ पाती थी। आती भी थी तो कुछ खास कार्रवाई नहीं होती थी। सुना है कि भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस के बहुत से नेताओं के अपने प्राइवेट स्कूल हैं। अब कानून बनाना और लागू करना भी इनके ही जिम्मे हो तो ये अपने खिलाफ कार्रवाई क्यों करेंगे ? निहित स्वार्थ के कारण कड़ी कार्रवाई हो नहीं पाती थी, ऐसा आरोप लगता रहा है। लेकिन जब से आम आदमी पार्टी की सरकार आयी है, भ्रष्टाचार के खिलाफ सरकार के कड़े रुख ने इनकी नींदें हराम कर दी है।
अब इनके खातों की जांच की बात करो तो कहते हैं कि ये गैर-कानूनी है। इसको फ़ीस बढ़ाने का आधार पूछो तो नाराज हो जाते हैं। साफ़ है कि नई सरकार के आने के बाद से इनको गड़बड़ी करने का मौका नहीं मिल रहा है। ऐसा ही कुछ आरोप इन स्कूलों के खिलाफ भी है। संतोष जनक जवाब नहीं मिलने पर ही सरकार ने इसका संचालन अपने हाथों में लेने का फैसला किया है। अब चूँकि मामला अदालत में है, तो इंतजार करना होगा कि फैसला क्या आता है। मैं तो कहता हूँ कि इनसे मार्किट रेट पर जमीन की कीमत वसूल की जाए, गरीबों के बच्चे सरकारी स्कूल में पढ़ लेंगे। अब सरकारी स्कूल में भी शिक्षा का स्तर बहुत सुधर गया है और दिनोंदिन सुधर ही रहा है।
इससे इनको गरीब बच्चों को मुफ्त में शिक्षा देने के नाम पर गड़बड़ी करने का मौका तो नहीं मिलेगा।
शराब पीकर गाड़ी चलाये तो जुर्माना अब 10,000 रुपये होगा।
नया मोटर बिल मंजूर हो गया है कैबिनेट द्वारा। मोटर बिल का मकसद होता है ऐसे प्रावधान करना जिससे गाड़ी चलाने वाले, सड़क पर चलने वाले एवं सड़क पर दुर्घटनाग्रस्त होने वाले के हितों की रक्षा हो सके। इसके लिए नियम बनाए जाते हैं और नियम तोड़ने वालों को हतोत्साहित करने के लिए सजा एवं जुरमाना का प्रावधान भी किया जाता है। ऐसा ही कुछ हुआ है इस बिल में भी। वैसे नियम तो पहले भी थे लेकिन शायद बढ़ती महँगाई के कारण जुरमाना नगण्य सा हो गया था और नए प्रावधानों की जरूरत पड़ गयी थी इसलिए नया बिल लाया गया जो कि अभी कैबिनेट से ही मंजूर हुआ है। इसको कानून बनने में अभी लंबा सफर तय करना है।
बिल के मुख्य बिंदु इस प्रकार है। ड्राइविंग लाइसेंस और गाड़ी रेजिस्ट्रेशन के लिए अलग-अलग एक नया राष्ट्रीय रजिस्टर बनाने की बात कही गयी है। इससे पूरे देश में गाड़ी और वाहक के बारे में जानकारी पाना आसान हो जायेगा। फर्जी लाइसेंस और रेजिस्ट्रेशन पर भी रोक लग सकेगी। गाड़ियों की रजिस्ट्रेशन प्रक्रिया को सुधारने हेतु डीलर द्वारा ही रेजिस्ट्रेशन किये जाने देने की बात कही गयी है।
हिट एन्ड रन के मामलों में हर्जाना 25,000/- से बढाकर 2,00,000/- करने का प्रस्ताव है। बिना लाइसेंस के गाड़ी चलाने पर जुरमाना 500/- से बढाकर 5,000/- करने का प्रस्ताव है। अयोग्यता के बावजूद गाड़ी चलाने पर जुरमाना 500/- से बढाकर 10,000/- करने का प्रस्ताव है। शराब पीकर गाड़ी चलाने पर जुरमाना 2000/- से बढाकर 10,000/- करने का प्रस्ताव है। लाइसेंस की शर्तों का उल्लंघन करने पर 25,000/- से 1,00,000/- तक जुरमाना का प्रस्ताव है। ये नया नियम बना है। यात्रियों की ओवरलोडिंग करने पर 1000/- प्रति यात्री जुरमाना का प्रस्ताव है। सीट बेल्ट न लगाने पर जुरमाना 100/- से बढाकर 1,000/- करने का प्रस्ताव है। बाइक-स्कूटर पर तीसरी सवारी बिठाने पर जुरमाना 100/- से बढाकर 2,000/- करने का प्रस्ताव है और लाइसेंस 3 महीने के लिये अयोग्य होगा । बगैर हेलमेट बाइक-स्कूटर चलाने पर जुरमाना 100/- से बढाकर 1,000/- करने का प्रस्ताव है और लाइसेंस 3 महीने के लिये अयोग्य होगा ।
बिल की सबसे बड़ी बात है कि नाबालिग द्वारा अपराध किये जाने के मामलों में उसके अभिभावक / गाड़ी के मालिक को भी दोषी माना जायेगा एवं 25,000/- जुरमाना के साथ 3 साल की कैद हो सकती है। गाड़ी का रेजिस्ट्रेशन भी रद्द किया जाएगा। आपात गाड़ी को रास्ता ने देने वालों के लिए नया नियम बना है और जुरमाना 10,000/- करने का प्रस्ताव है। सबसे अच्छी बात है कि अगर उल्लंघन किसी ऐसे अधिकारी द्वारा किया जाता है, जिस पर इन सबका पालन करवाने की जिम्मेदारी है तो उससे सेक्शन 210बी के तहत दोगुना पेनाल्टी वसूला जाएगा। तो शुरू हो जाओ, दिल्ली में ट्रैफिक नियम तोड़ते हुए पोलिस ऑफिसर्स की फोटो दिल्ली ट्रैफिक पोलिस के फेसबुक पेज पर अपलोड करो। अरे, रुको रुको, पहले इसको कानून तो बन जाने दो।
बड़ी उम्मीद थी की बिल में पैदल चलने वालों के हितों की रक्षा के लिए भी प्रावधान किया जायेगा। फुटपाथ पर लोग बाइक और स्कूटर चलाने लगते हैं, अब पैदल लोग किधर जायें ? ऐसे लोगों के लिए कितना जुरमाना रखा गया है ? फुटपाथ पर अवैध तरीके से ठेले-खोमचे लगे रहते हैं, पैदल चलने वाले कहाँ चलें ? फूटपाथ पर ही नाइ की दुकान भी खुल जाती है, मोची जूते बनाने लगते हैं। पैदल चलने वाले क्या करें ? इन सब पर पेनाल्टी क्यों नहीं लगाई जाती ? क्या सिर्फ इसलिए कि पैदल चलने वाला कोई रोड टैक्स नहीं देता ? अच्छे दिनों वाली सरकार को इस पर नहीं सोचना चाहिए ?
बड़ी उम्मीद थी की बिल में पैदल चलने वालों के हितों की रक्षा के लिए भी प्रावधान किया जायेगा। फुटपाथ पर लोग बाइक और स्कूटर चलाने लगते हैं, अब पैदल लोग किधर जायें ? ऐसे लोगों के लिए कितना जुरमाना रखा गया है ? फुटपाथ पर अवैध तरीके से ठेले-खोमचे लगे रहते हैं, पैदल चलने वाले कहाँ चलें ? फूटपाथ पर ही नाइ की दुकान भी खुल जाती है, मोची जूते बनाने लगते हैं। पैदल चलने वाले क्या करें ? इन सब पर पेनाल्टी क्यों नहीं लगाई जाती ? क्या सिर्फ इसलिए कि पैदल चलने वाला कोई रोड टैक्स नहीं देता ? अच्छे दिनों वाली सरकार को इस पर नहीं सोचना चाहिए ?
लो जी, अब जीएसटी बिल पास हो गया।
4 अगस्त, 2016
लगभग 10 साल पुराना इंतजार ख़त्म हुआ और कल रात को राज्यसभा में भी बहु-प्रतीक्षित GST बिल, पास हो गया। यूपीए सरकार के समय से ही इसको पास कराने की कोशिश की जा रही थी लेकिन सफल नहीं हो रही थी। पिछले साल ही इसको लोकसभा में पास किया जा चूका है, राज्यसभा में सरकार के पास बहुमत नहीं है इसीलिए विपक्ष की मनुहार हो रही थी। सुखद है कि सरकार विपक्ष को मनाने में कामयाब रही और बिल के विरोध में एक भी वोट नहीं पड़ा। शायद सांसदों, मंत्रियों, प्रधानमंत्री आदि के वेतन-भत्ते एवं अन्य सुविधाएं बढ़ाने का बिल भी ऐसे ही पास होता होगा। किसी को भी कोई दिक्कत नहीं, सब खुश-संतुष्ट हैं जी।
GST-GST तो बहुत सुना होगा लोगों ने, सुनकर बोर भी हो गए होंगे लेकिन समझ नहीं आया होगा कि क्या है ये । GST का मतलब होता है Goods and Services Tax यानि वस्तु एवं सेवा कर। कहते हैं कि इसके बाद 18 तरह के अलग-अलग कर जैसे बिक्री कर, सेवा-कर, विलासिता कर, मनोरंजन कर और उत्पाद कर आदि नहीं देने पड़ेंगे जनता को, सिर्फ यही टैक्स देना पड़ेगा। बड़ी अच्छी बात है। इससे समान कर प्रणाली लागू हो जाएगी पूरे देश में। अगर किसी चीज पर पूरे देश में जीएसटी 16% है तो राज्य को एसजीएसटी और केंद्र को सीजीएसटी के रूप में 8% - 8% का हिस्सा मिलेगा। एक राज्य से दूसरे राज्य में माल बेचने पर केंद्र सरकार आईजीएसटी भी वसूल करेगी। इससे निर्बाध रूप से पूरे देश में व्यापार किया जा सकेगा।
लेकिन अभी तक बहुत से सामानों पर जीएसटी दर तय नहीं हुई है, इसको लेकर व्यापारियों में संशय है। आम जनता संशय करके भी क्या करेगी ? उसको तो जो दर उसके प्रतिनिधि तय कर देंगे, रो के या हँस के, भरना ही है। किसी विशेषज्ञ का कहना है कि 17-18% दर किया जाए तो कोई कहता है कि कुछ जरुरत के सामान 12% दर पर, विलासिता की चीजें 40% दर पर और बाकि चीजें 17-18% की दर पर कर दी जाए। कोई 18-19% की बात कर रहा है। अपने-अपने विचार, अपने-अपने कर दर। वैसे पूर्व वित्तमंत्री चिदंबरम जी ने सरकार से अनुरोध किया था कि सरकार इसकी उच्चतम दर 18% तय कर दे, लेकिन ये तो विपक्ष की सलाह थी।
सारे नेता खुश हैं, एक दूसरे को बधाई दे रहे हैं। लेकिन इसका प्रभाव आम जनता पर क्या पड़ेगा ? अभी तक बहुत सी चीजों पर वैट 5 % है, क्या उसपर जीएसटी भी 5% ही रह पायेगा ? बहुत से तो वैट मुक्त भी हैं , क्या उस पर जीएसटी भी नहीं लगेगा ? जनता को ज्यादा पैसा नहीं देना पड़ेगा ? सुना है कि जीएसटी एमआरपी यानि मैक्सिमम रिटेल प्राइस पर लगेगा। अगर यह सच है तो, एमआरपी 200 रुपये है तो बेशक दुकानदार आपको छूट दे रहा हो, लेकिन कर तो 200 रूपए पर ही देना पड़ेगा। नेता भी मान रहे हैं कि 2-3 सालों के लिए महँगाई बढ़ जाएगी। उसके बाद अच्छा हो जायेगा। यही है अच्छे दिन ? ये 2-3 साल झेलेंगे कैसे? यहाँ बहुत से लोगों को दो शाम की रोटी मुश्किल से मिलती है, ऊपर से ये थोड़े दिन की ज्यादा महँगाई। लेकिन एक बात है, जीएसटी बहुत बढ़िया है !
बुधवार, 3 अगस्त 2016
मंगलवार, 2 अगस्त 2016
बिहार में सैलाब है, लेकिन समस्या तो शराब है।
8/02/2016 01:38:00 pm
नीतीश कुमार, बिहार, बिहार सरकार, शराबबंदी
No comments
2 अगस्त, 2016
आजकल भारत में बरसात का मौसम है। जब तेज गर्मी से धरती ज्यादा गरम हो जाती है, लोग परेशान हो जाते हैं। हर उपाय करके थक से जाते हैं, तब प्रकृति बारिश के छींटो की ठंडी फुहार से तपती धरती को शीतल करती है। लोग भयंकर गर्मी से निजात पाते हैं। सावन के महीने और इसकी बारिश की फुहार को लेकर कवियों और शायरों ने अच्छे-अच्छे शब्दों में इसकी महत्ता का बड़ा ही खूबसूरत वर्णन किया है। खूब गाने भी बने हैं सावन और इसकी बारिश को लेकर, बहुत से गाने तो (कृत्रिम) बारिश में फिल्माए भी गए हैं। लेकिन कहते हैं न कि "अति सर्वत्र वर्जयेत"। जब बारिश ज्यादा हो जाती है तो इसके दुष्परिणाम भी खूब होते हैं। बाढ़ भी आ जाती है, सड़कों पर जाम भी लग जाता है। ऐसा नहीं है कि बाढ़ का कारण सिर्फ उस क्षेत्र में अत्यधिक बारिश होना ही है।
आजकल बिहार में भी बाढ़ का ही मौसम है। यूँ तो लगभग हर साल ही बिहार के किसी न किसी हिस्से में बाढ़ आ ही जाती है। लेकिन कभी-कभी इसकी विभीषिका बहुत बढ़ जाती है। जान-माल की बहुत हानि होती है। इस साल भी बाढ़ आया हुआ है बिहार में। बहुत से लोगों की जान गयी है। लोग परेशान हैं। लेकिन सुशासन कुमार जी को इस सबसे ज्यादा चिंता शराब को लेकर है। ये ठीक है कि शराब बहुत सी बुराइयों की जड़ है लेकिन शराबबंदी से सारी समस्या हल हो जाएगी ऐसा भी तो नहीं है। सबको पता है कि 1 अप्रैल 2016 से बिहार में पूर्ण शराब बंदी लागू है।
अब इस एक सूत्री कार्यक्रम के पीछे ही पर गए हैं सुशासन बाबु। तरह-तरह के नियम बना रहे हैं, शराब बंदी को सफल करने के लिए। मानो ज्योंहि शत-प्रतिशत शराबबंदी हो गयी, सभी समस्याओं का अंत हो जाएगा। बिहार से बेरोजगारी ख़त्म, भ्रष्टाचार ख़त्म, लूटमार ख़त्म, अशिक्षा, दहेज़ प्रथा सब ख़त्म। मतलब बिलकुल राम-राज आ जायेगा बिहार में, किसी को कोई दुःख और चिंता नहीं होगा। ऐसा नहीं है कि पहले कभी शराबबंदी नहीं हुई भारत के किसी राज्य में। हरियाणा में भी हुई थी, शुरू में जनता का खूब साथ मिला था। उसके बाद बंसी लाल जी की सरकार ही चली गयी थी।
अब सुना है कि शराबबंदी को लेकर पिछले शुक्रवार को एक संशोधित बिल पेश किया गया है बिहार विधानसभा में। इसके अनुसार अगर किसी घर से शराब मिली या फिर किसी ने शराब का सेवन किया, तो उस परिवार के सभी वयस्क सदस्यों को सजा मिलेगी। अब कोई भी कानून पास करवा लीजिये, बहुमत आपके पास है हुजूर। अब घर में कौन किधर शराब छुपा कर रखा है किसको पता ? बहुत से परिवार में शराब पीने वाला छुपकर ही पीता है। अब घर के कोने-कोने में ढूंढते रहे कि कहीं शराब तो नहीं छुपा है ? अगर छुपा भी है तो छुपाया कौन ? अगर किसी ने सरकारी संपत्ति में ही छुपा दिया तो ?
नाबालिग को काहे बख्श दिए हुजूर ? जब घर के सारे वयस्क जेल चले जायेंगे तो बच्चों को खाना कौन बनाकर खिलायेगा और स्कूल कौन तैयार करके भेजेगा ? कितना तुगलकी आदेश है ये ? किसी एक के किये की सजा को पूरे परिवार को भुगतान पड़ेगा ? करे कोई भरे कोई ? ऐसे प्रधान मंत्री बनेंगे क्या नीतीश जी ?
आनंदीबेन का इस्तीफा, दिल्ली जैसे हालात ?
2 अगस्त, 2016
कल गुजरात की मुख्यमंत्री आनंदी बेन पटेल जी ने अपनी पार्टी से गुजारिश की है कि उनको मुख्यमंत्री पद से मुक्त कर दिया जाए। उन्होंने इसके लिए अपनी उम्र का भी हवाला दिया है। राजनीति में ऐसे मौके बिरले ही आते हैं जब कोई अपनी बढ़ती उम्र को देखते हुए, नए लोगों को मौका देने के लिए स्वेच्छा से सेवा-निवृति ले ले। मुझे याद नहीं कि 1990 के बाद कभी ऐसा हुआ हो, शायद उसके पहले भी नहीं हुआ। सत्ता चीज ही ऐसी है, उम्र के आखिरी पड़ाव तक इंसान इससे चिपके रहना चाहता है। तरह-तरह की दलीले भी देता है इसके लिए, कि मेरी उम्र बेशक ज्यादा है लेकिन जनसेवा की ललक कम नहीं है या फिर उम्र ज्यादा है लेकिन स्फूर्ति जवानों से भी ज्यादा है, आदि आदि। ऐसे में जब आनंदी जी इस्तीफे की पेशकश करती हैं तो इसका जोरदार स्वागत होना चाहिए। एक अच्छी परंपरा स्थापित करने जा रही हैं वो।
परंतु राजनीति में कई बार ऐसा होता नहीं है जैसा दिखता है। कई बार हकीकत बहुत अलग ही होती है। कुछ खोजी प्रवृति के लोग, जो नहीं दिखता है उस पर दिमाग लगाने लगते हैं, कई बार वो सफल भी होते हैं और सच भी साबित होते हैं। अगले ही साल गुजरात में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। एंटी इनकंबेंसी फैक्टर तो जोरों पर है ही, इससे इंकार नहीं किया जा सकता। दलितों पर हो रहे अन्याय और पाटीदार आंदोलन को अच्छे से हल नहीं कर पाने के कारण सरकार की खूब किरकिरी हो रही है। ऊपर से भ्रष्टाचार के आरोप तो चरम पर हैं ही। भाजपा किसी भी तरह से गुजरात सरकार को इस छवि से बाहर लाना चाहती है। इसीलिए अब भाजपा चाहती है कि किसी साफ सुथरी और तेज तर्रार छवि वाले व्यक्ति को गुजरात का मुख्यमंत्री बनाया जाए।
मुझे याद है दिल्ली में 1998 में प्याज के दाम खूब बढ़ गए थे। जनता बहुत परेशान थी। भाजपा के प्रति लोगों का गुस्सा दिन प्रति दिन बढ़ रहा था। साहिब सिंह वर्मा जी तब मुख्यमंत्री थे दिल्ली के। अब ऐसे में भारतीय जनता पार्टी को चुनाव में चेहरा बचाना मुश्किल हो रहा था। आनन-फानन में साहिब सिंह जी को हटाकर भाजपा की तेज-तर्रार नेता सुषमा स्वराज जी को दिल्ली का मुख्यमंत्री बनाया गया। भाजपा की जल्दीबाजी और व्याकुलता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि 13 अक्टूबर 1998 को सुषमा स्वराज जी को मुख्य मंत्री बनाया गया जबकि चुनाव 25 नवम्बर 1998 को था। मुख्यमंत्री बनते ही सुषमा जी ने खूब औचक निरीक्षण किए, सरकार की छवि सुधारने की खूब कोशिश की। लेकिन इससे भी भाजपा को कोई फायदा नहीं हुआ। जनता सब समझ चुकी थी और करारी हार मिली। ऐसी हार मिली कि भाजपा दुबारा सत्ता में अभी तक नहीं आई है दिल्ली में।
दिल्ली विधानसभा चुनाव 1993 में भाजपा को 49 और कांग्रेस को 14 सीटें मिली थी। जब साहिब सिंह वर्मा जी को हटाकर सुषमा जी को मुख्यमंत्री बनाया गया तो 1998 के चुनाव में कांग्रेस को 52 और भाजपा को 15 सीटें मिली। शायद इसी से बचना चाहती है भाजपा और येन चुनाव के वक्त न करके काफी पहले ही गुजरात में मुख्यमंत्री को बदल रही है। लेकिन क्या इससे छवि सुधरेगी ? लगता तो नहीं है। दिल्ली जैसी हालत होने की पूरी सम्भावना है।
सोमवार, 1 अगस्त 2016
चलो अब बंगला खाली करो।
1 अगस्त, 2016
उत्तर प्रदेश के सभी पूर्व मुख्यमंत्रियों को अब सरकारी बंगला खाली करना पड़ेगा। अभी-अभी माननीय सर्वोच्च न्यायालय का फैसला आया है। उत्तर प्रदेश में 1997 में ही पूर्व मुख्यमंत्री आवास कानून बना था। राजनीति में स्वार्थ इतनी भर गयी है कि जिसको भी मौका मिलता है अपने लिए, अपने पूरे परिवार के लिए तमाम तरह की सुख-सुविधा जुटाने में जुट जाता है। इसके लिए कानून बदलने या फिर नया कानून बनाने की भी जरूरत पड़े तो इससे नहीं हिचकते कुछ लोग। सिर्फ बहुमत होना चाहिए, नैतिकता का कोई तकाजा नहीं। ऐसा नहीं है कि सारे राजनेता स्वार्थी हैं, बहुतों ने अपनी जिंदगी बदहाली में गुजारी है। लेकिन ऐसे लोग हैं ही कितने ?
वर्तमान मुख्यमंत्री को तो सब तरह की सुविधा मिलती ही थी। लेकिन सत्ता हमेशा थोड़े ही न रहती है। अब एक बार विलासिता की आदत पड़ जाए तो छूटेगी थोड़े न ? पद से हटने के बाद भी जीवन भर बंगले की सुविधा मिलती रहे इसके लिए कानून ही बना दिया उत्तर प्रदेश सरकार ने। आम तौर पर कोई भी बिल हो, कितना भी जनता के हित से जुड़ा हो, विपक्ष सरकार से सहमत नहीं होता। लेकिन ज्योंही विधायकों, मंत्री, मुख्यमंत्री या पूर्व मुख्यमंत्री को नई सुविधा देने या वेतन-भत्ते बढ़ाने का बिल हो, पक्ष- विपक्ष सब साथ हो जाते हैं। विपक्ष तो प्रस्तावित सुविधा को नाकाफी बताते हुए और बढ़ाने के सुझाव भी दे देता है कई बार बहस के दौरान। बिना मत विभाजन के ख़ुशी-ख़ुशी ध्वनि मत से बिल पारित भी हो जाता है।
अब इनके जेब से थोड़े न कुछ जाना है ? जनता के पैसे पर सारे खर्च होते हैं इनके। गाड़ी, बंगला, वेतन-भत्ता, सब कुछ जनता की टैक्स के पैसे से ही तो होता है। जब खुद के पैसे नहीं लगते हो तो जितनी भी सुविधा दे दो कम पड़ जाते हैं। वो तो भला हो गैर सरकारी संस्था का जिसने न्यायालय में यह याचिका दायर की थी और जिसके कारण माननीय सर्वोच्च न्यायालय का यह फैसला आया है। अब 2 महीने के अंदर में इन पूर्व मुख्यमंत्रियों को जिनमें केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह, सांसद मुलायम सिंह, सांसद मायावती शामिल हैं, को सरकारी बंगलो को खाली करना पड़ेगा।
अब जरूरत इस बात कि है कि कोई संस्था जन-प्रतिनिधियों के भारी भरकम वेतन, भत्ते, आवास, गाड़ी एवं विलासिता पूर्ण सुविधाओं के मुफ्त उपयोग को ख़त्म या कम करने के लिए एक याचिका माननीय न्यायालय में दायर कर दे। ये लोग अपने से अपनी सुविधा तो कम करने से रहे। जब समाजसेवा करने के लिए आये हो तो निःस्वार्थ करो न, इतनी सुविधा किस लिए ?
गुरुग्राम में महा जाम, इसका भी जिम्मेदार केजरीवाल ?
1 अगस्त, 2016
अभी पिछले दिनों गुरुग्राम (पुराना गुडगाँव) में बारिश के पानी की वजह से खूब लंबा अभूतपूर्व जाम लग गया सड़कों पर। बहुत से लोग ऑफिस में ही फँसे रह गए। जाम में फँसे लोगों को रात सड़क पर ही बितानी पड़ी। बिना खाना-पीना के लोगों ने सड़क पर कैसे गाड़ी की सीट पर बैठकर अपनी रात बिताई होगी सुनकर ही दया आती है। न जाने कितने किलोमीटर तक गाड़ियों की लंबी लाइन लगी थी। घर के लोग भी परेशान थे कि ये लोग घर क्यों नहीं पहुंचे ? कुल मिलाकर बेचैनी का ही माहौल था।
कई साल पहले ऐसी ही घटना मुम्बई में भी हुई थी। बहुत से लोग सड़क जाम में फँस गए थे, पूरी रात सड़क पर ही गुजारनी पड़ी थी। मुम्बई में तो बारिश होती भी खूब है, लेकिन गुरुग्राम में उतनी बारिश नहीं हुई थी कि हालात इतने बेकाबू हो जाए और आपदा प्रबंधन टीम को बुलानी पर जाए। स्थानीय विधायक का कहना था कि CISF, BSF और Home Guard के 250 जवान लगे हुए हैं ट्रैफिक को मैनेज करने में। सिर्फ भारतीय सेना के सेवा लेनी बाकि रह गयी थी। कुप्रबंधन के कारण सब कुछ हो सकता है।
हर साल मानसून से पहले हर शहर की नगरपालिका, नगर निगम दावे करती है कि नालियों की सफाई अच्छे से हो गयी है। पानी की निकासी के लिए सारे प्रबंध चाक-चौबंद हैं। गुरुग्राम में नगर निगम का काम अगर ईमानदारी से किया गया होता तो ऐसी नौबत क्यों आती ? सारे दावे धरे के धरे रह जाते हैं जब प्रकृति अपनी तरफ से परीक्षा लेती है। प्रकृति के सामने न तो रिश्वत चलता है और न ही सत्ता का अहंकार। भाजपा नेता संबित पात्रा जनता से हाथ जोड़कर माफ़ी मांग रहे थे। माफ़ी मांग लेने से समस्या ख़त्म नहीं हो जाती।
अगर यही सब कुछ किसी और राज्य में हुआ होता तो भारतीय जनता पार्टी के लोग जनता से माफ़ी नहीं मांगते। राज्य सरकार और नगर निगम को जी भर कर कोसते। लेकिन ने प्रकृति ने भाजपा को ब्लेम गेम खेलने का भी मौका नहीं दिया। हरियाणा में भाजपा की सरकार है, सांसद भी भाजपा के हैं और विधायक भी। सुना है नगर निगम पर भी भाजपा का ही कब्ज़ा है। अगर इनमें से किसी एक पर भी दूसरे पार्टी के लोग होते फिर देखते भाजपा का ब्लेम गेम। सारी की सारी जिम्मेदारी उसी पार्टी के ऊपर डाल देते भाजपा वाले।
लेकिन मुख्यमंत्री खट्टर ने इसके लिए भी दिल्ली सरकार को जिम्मेदार ठहरा दिया। उन्होंने कहा कि दिल्ली सरकार उनके साथ सहयोग नहीं कर रही है। अब जाम गुरुग्राम में, हरियाणा में, इसमें दिल्ली सरकार क्या सहयोग करे ? लोगों से कहे कि गुरुग्राम न जाओ ? या फिर बारिश कोई ही बंद करवा दे ?