4 जुलाई, 2016
कांग्रेस-नीत यूपीए सरकार के योग्य मानव संसाधन विकास मंत्री श्री कपिल सिब्बल जी ने 1 अप्रैल, 2010 को शिक्षा की एक नई नीति को लागू किया था जिसके तहत पहली से आठवीं की कक्षा तक किसी भी विद्यार्थी को फेल नहीं किए जाने का प्रावधान था। चाहे वो विद्यार्थी अगली कक्षा में जाने के योग्य हो या न हो। इसके पीछे मंशा यह थी कि सभी बच्चों को जरूरी शिक्षा निरन्तर एवं निर्बाध रूप से मिले। उससे पहले व्यवस्था यह थी कि जो बच्चे अपनी कक्षा के सबक को अच्छे से समझ नहीं पाये हैं उनको दुबारा मौका दिया जाए उस सबक को अच्छे से समझने का। या फिर सामान्य भाषा में कहें कि जो बच्चे वार्षिक परीक्षा में फेल हो जाते थे उनको उसी कक्षा में रहने दिया जाता था।
लेकिन नई शिक्षा नीति के आने से कमजोर बच्चों की यह बाधा दूर हो गयी। पहले बच्चे जब फेल हो जाते थे तो कुछ बच्चों को बड़ी शर्मिंदगी महसूस होती थी, उससे ज्यादा शर्मिंदगी उनके माता-पिता को महसूस होती थी। इसलिए बच्चों पर पूरे साल दबाव रहे न रहे, लेकिन परीक्षा के दिनों में पढ़ने का दबाव बहुत बढ़ जाता था। जी-जान से बच्चे पढाई में लग जाते थे। माता पिता भी बच्चों को प्रोत्साहित करते रहते थे कि पढ़ो बच्चों, तुमको अच्छे अंको से पास होना है, पिछले साल से भी ज्यादा अंक लाने हैं।
कुछ माता-पिता बच्चों को प्रोत्साहित करने के लिए अच्छे अंको से पास करने पर इनाम स्वरुप उनकी कुछ इच्छा पूरी करने का वादा भी करते थे तो फेल हो जाने पर दण्ड देने की धमकी भी। इन सबके पीछे सिर्फ एक ही मंशा थी कि बच्चा मन लगाकर पढाई करे, ज्ञान का उपार्जन करे। लेकिन धीरे-धीरे ये प्रोत्साहन तनाव के रूप में परिवर्तित होने लगा। साल भर बच्चा तनाव में रहे न रहे लेकिन परीक्षा के दिनों में कुछ बच्चे बहुत तनाव में रहने लगे थे। माता-पिता की उम्मीदें भी बढ़ती ही जा रही थी, प्रोत्साहन और दण्ड का नकारात्मक असर शुरू होने लगा था बच्चों के मन और उनकी सेहत पर।
परिणाम आने तक तो कुछ बच्चे जिनको पास होने की उम्मीद नहीं थी वो बहुत ही तनाव में आ जाने लगे। परिणाम आ जाने के बाद जो बच्चे फेल हो जाते थे उनमें से कुछ अवसाद ग्रस्त हो जाते थे। इक्के-दुक्के बच्चों ने ख़ुदकुशी भी कर ली थी या करने की कोशिश की थी। हालाँकि ऐसी घटनाओं की संख्या लगभग नगण्य ही थी, लेकिन ऐसी घटना हो तो रही थी थी। इन सबके समाधान के रूप में ही सरकार ने "नो डिटेंशन पॉलिसी" लागू कर दी। अब बच्चे भी खुश, माता-पिता भी खुश। फेल होने या उसी क्लास में रह जाने का झंझट और डर ही ख़त्म। मन लगाकर पढ़ो या न पढ़ो, अगली कक्षा में जाना ही है। न किसी को अवसाद, न किसी को तनाव। न किसी को शर्मिंदा होने का डर, न किसी के आत्महत्या करने का खतरा।
लेकिन धीरे-धीरे इसके नकारात्मक परिणाम भी सामने आने शुरू हो गए, जिसके बारे में नीति बनाने वालों ने कभी सोचा भी नहीं होगा। इस नीति के लागू होने के बाद कुछ बच्चे तो अपनी पढाई में पहले की तरह से ही गम्भीरता से लगे रहे लेकिन कुछ बच्चे लापरवाह हो गए। जिनको सिर्फ पास होने से मतलब था उनको अब फेल होने का डर तो था ही नहीं तो उन्होंने पढाई की तरफ ध्यान देना कम कर दिया। जिनको सही में ज्ञान प्राप्ति करनी थी सिर्फ वही गंभीरता से पढाई करने लगे। धीरे-धीरे गम्भीर छात्रों की संख्या कम होने लगी। अब तो हालात ये है कि नौवीं की कक्षा में फेल होने वाले छात्रों का प्रतिशत 50% तक पहुँच गया है।
जिन बच्चों को पहली से आठवीं तक फेल होने का डर नहीं था या यूँ कहिये कि जिन्होंने 8 साल तक पढाई को गम्भीरता से नहीं लिया, उसको अचानक से नौवीं की कक्षा में पढ़ना पड़ा तो नतीजा जो है सो सामने ही है। शिक्षा की इस नई नीति का दुष्परिणाम ये हुआ कि जानकार लोगो की कमी हो गयी। बच्चों में ज्ञान का स्तर गिरता ही चला गया। अभिभावक बच्चों को पढ़ाई के प्रति प्रेरित या प्रोत्साहित नहीं कर पाये। अब तो उनके पास बच्चों में डर दिखाने का भी कोई कारण न रहा। पिछले कई सालों से बुद्धिजीवी और शिक्षाविद वर्ग इस नीति को ख़त्म करने का सुझाव दे रहे हैं।
दिल्ली की सरकार ने तो इसको पांचवी कक्षा तक सीमित करने से सम्बंधित बिल विधानसभा से पास करा के केंद्र सरकार के पास स्वीकृति के लिए काफी पहले भेज भी दिया था, लेकिन सुना है कि केंद्र सरकार द्वारा इस बिल को वापस भेज दिया गया है दिल्ली सरकार के पास। शायद केंद्र सरकार के पास कोई और बेहतर योजना है या फिर वर्तमान केंद्र सरकार इस नीति को अभी बनाए रखने के पक्ष में है। जो भी हो, इस नीति को जितनी जल्दी हो सके, समाप्त करने की जरूरत है। इस नीति ने भारतीय नौनिहालों का बड़ा नुकसान किया है, इनको अज्ञानी बनाकर छोड़ दिया है।
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