1 जून, 2016
पिछले दिनों बिहार इंटरमीडिएट परीक्षा का रिजल्ट आया। हर बार की तरह इस बार भी बहुत से छात्र सफल हुए तो बहुत से असफल हुए। कुछ नया नहीं था परिणाम में। कला, विज्ञान एवं वाणिज्य, तीनो ही संकाय में छात्रों ने अपनी प्रतिभा को साबित किया। परीक्षा प्रणाली का एक फायदा होता है कि इसमें छात्रों की प्रतिभा को पूछे गए चंद सवालों से ही परखा जाता है। अगर आपको उन सवालों के सही जवाब आते हैं तो आप अच्छे विद्यार्थी हैं, नहीं आते तो आप अच्छे विद्यार्थी नहीं हैं।
माफ़ कीजिए, मैं अपने बयान को बदलना चाहूंगा। अगर आप उन सवालों के सही जवाब लिख देते हैं तो आप अच्छे विद्यार्थी हैं, नहीं लिखते तो आप अच्छे विद्यार्थी नहीं हैं। या फिर, दूसरे शब्दों में आप कह सकते हैं कि अगर आपको पूरे सिलेबस में से सिर्फ इन सवालों के सही जवाब के अलावा कुछ भी नहीं आता तो भी चलेगा, आप को ज्ञानी होने का प्रमाण पत्र मिल जाएगा। लेकिन अगर आपको पूरा सिलेबस कंठस्थ याद है, लेकिन इन चंद सवालों के जवाब नहीं पता तो आप असफल करार दिए जाएंगे।
इसको आप परीक्षा पद्धति की अच्छाई कहिये या बुराई, लेकिन सिर्फ यही पैमाना है किसी विषय में किसी छात्र की जानकारी को मापने का, उसके ज्ञान को मापने का। ऐसा ही कुछ हुआ है बिहार में। कला संकाय में सर्वाधिक अंक प्राप्त करने वाले परीक्षार्थी को मुबारकवाद देने गए थे मीडिया वाले, लेकिन उनको बैठे बिठाए मसाला मिल गया। उन्होंने परीक्षार्थी से उनके विषय पूछ लिए। अब अत्यधिक खुशी के कारण हो या फिर पहली बार कैमरे से सामने बोलने की झिझक के कारण, परीक्षार्थी बिलकुल ही नर्वस हो गई, और विषय के नाम का उच्चारण ठीक से नहीं कर पाई।
लो जी, अब तो मीडिया को अच्छा मौका मिल गया। झट से दूसरा सवाल भी पूछ लिया। बताइए कि इस विषय में क्या पढ़ाया जाता है। अब कितना भी परिश्रमी और तेज विद्यार्थी क्यों न हो, एक बार जब वो गलती कर देता है तो फिर उसकी मानसिक स्थिति बुरी तरह से प्रभावित हो जाती है। जवाब आया, "खाना बनाने की"। नर्वस होने पर होम साइंस और पोलिटिकल साइंस को एक समान समझने की भूल हो जाना सामान्य बात है। हममें से भी बहुत से लोगों के साथ हुआ होगा कि घर से तो पूरी तैयारी करके जाते हैं लेकिन जब भरी सभा में या फिर अजनबियों के सामने कुछ बोलना पड़ जाता है तो सिट्टी-पिट्टी गुम हो जाती है।
ये सामान्य बात है, लेकिन मीडिया को तो जैसे दिन भर दिखाने के लिए मुद्दा ही मिल गया। इसके बाद पहुँच गए विज्ञान संकाय के टॉपर के पास। उसकी भी इंटरव्यू ले ली। उनसे भी पूछ लिया कि सबसे अधिक सक्रिय तत्व क्या होता है। इसका जवाब वो नहीं दे पाए। फिर अपनी तरफ से बेहद आसान सा सवाल पूछ लिया कि सोडियम की वैलेन्सी बता दीजिए। ये भी नहीं बता पाये वो। वाणिज्य संकाय के टॉपर से शायद नहीं मिल पाए मीडिया वाले। या फिर उनके इंटरव्यू में कोई मसाला नहीं मिला होगा मीडिया वालों को । क्योंकि इस सम्बन्ध में कोई चर्चा नहीं है कहीं।
चर्चा अपनी जगह है और हकीकत अपनी जगह। अगर उन्होंने ऐसे जवाब नर्वसनेस के कारण दिए फिर तो ठीक है। लेकिन अगर उनके ज्ञान की वास्तविकता ही यही है, फिर तो बहुत ही चिंता की बात है बिहार की शिक्षा-व्यवस्था के लिए। विषयों की छोटी सी जानकारी न रखने वाले छात्र अगर परीक्षा में टॉप करते हैं, तो ऐसी परीक्षा की क्या विश्वनीयता रह जायेगी। पहले भी परीक्षाओं में नक़ल होने की कुछ घटनाओं के सामने आने के कारण छवि ख़राब हो चुकी है। सुना है कि इस सम्बन्ध में जांच के आदेश दे दिए गए हैं। शायद उन लोगों की पुनर्परीक्षा भी हो। जो भी हो, लेकिन बिहार की परीक्षाओं की विश्वसनीयता पर आंच लाने के लिए जो लोग भी दोषी हैं उनकी पहचान करके कठोर दण्ड दिया जाना चाहिए।
माफ़ कीजिए, मैं अपने बयान को बदलना चाहूंगा। अगर आप उन सवालों के सही जवाब लिख देते हैं तो आप अच्छे विद्यार्थी हैं, नहीं लिखते तो आप अच्छे विद्यार्थी नहीं हैं। या फिर, दूसरे शब्दों में आप कह सकते हैं कि अगर आपको पूरे सिलेबस में से सिर्फ इन सवालों के सही जवाब के अलावा कुछ भी नहीं आता तो भी चलेगा, आप को ज्ञानी होने का प्रमाण पत्र मिल जाएगा। लेकिन अगर आपको पूरा सिलेबस कंठस्थ याद है, लेकिन इन चंद सवालों के जवाब नहीं पता तो आप असफल करार दिए जाएंगे।
इसको आप परीक्षा पद्धति की अच्छाई कहिये या बुराई, लेकिन सिर्फ यही पैमाना है किसी विषय में किसी छात्र की जानकारी को मापने का, उसके ज्ञान को मापने का। ऐसा ही कुछ हुआ है बिहार में। कला संकाय में सर्वाधिक अंक प्राप्त करने वाले परीक्षार्थी को मुबारकवाद देने गए थे मीडिया वाले, लेकिन उनको बैठे बिठाए मसाला मिल गया। उन्होंने परीक्षार्थी से उनके विषय पूछ लिए। अब अत्यधिक खुशी के कारण हो या फिर पहली बार कैमरे से सामने बोलने की झिझक के कारण, परीक्षार्थी बिलकुल ही नर्वस हो गई, और विषय के नाम का उच्चारण ठीक से नहीं कर पाई।
लो जी, अब तो मीडिया को अच्छा मौका मिल गया। झट से दूसरा सवाल भी पूछ लिया। बताइए कि इस विषय में क्या पढ़ाया जाता है। अब कितना भी परिश्रमी और तेज विद्यार्थी क्यों न हो, एक बार जब वो गलती कर देता है तो फिर उसकी मानसिक स्थिति बुरी तरह से प्रभावित हो जाती है। जवाब आया, "खाना बनाने की"। नर्वस होने पर होम साइंस और पोलिटिकल साइंस को एक समान समझने की भूल हो जाना सामान्य बात है। हममें से भी बहुत से लोगों के साथ हुआ होगा कि घर से तो पूरी तैयारी करके जाते हैं लेकिन जब भरी सभा में या फिर अजनबियों के सामने कुछ बोलना पड़ जाता है तो सिट्टी-पिट्टी गुम हो जाती है।
ये सामान्य बात है, लेकिन मीडिया को तो जैसे दिन भर दिखाने के लिए मुद्दा ही मिल गया। इसके बाद पहुँच गए विज्ञान संकाय के टॉपर के पास। उसकी भी इंटरव्यू ले ली। उनसे भी पूछ लिया कि सबसे अधिक सक्रिय तत्व क्या होता है। इसका जवाब वो नहीं दे पाए। फिर अपनी तरफ से बेहद आसान सा सवाल पूछ लिया कि सोडियम की वैलेन्सी बता दीजिए। ये भी नहीं बता पाये वो। वाणिज्य संकाय के टॉपर से शायद नहीं मिल पाए मीडिया वाले। या फिर उनके इंटरव्यू में कोई मसाला नहीं मिला होगा मीडिया वालों को । क्योंकि इस सम्बन्ध में कोई चर्चा नहीं है कहीं।
चर्चा अपनी जगह है और हकीकत अपनी जगह। अगर उन्होंने ऐसे जवाब नर्वसनेस के कारण दिए फिर तो ठीक है। लेकिन अगर उनके ज्ञान की वास्तविकता ही यही है, फिर तो बहुत ही चिंता की बात है बिहार की शिक्षा-व्यवस्था के लिए। विषयों की छोटी सी जानकारी न रखने वाले छात्र अगर परीक्षा में टॉप करते हैं, तो ऐसी परीक्षा की क्या विश्वनीयता रह जायेगी। पहले भी परीक्षाओं में नक़ल होने की कुछ घटनाओं के सामने आने के कारण छवि ख़राब हो चुकी है। सुना है कि इस सम्बन्ध में जांच के आदेश दे दिए गए हैं। शायद उन लोगों की पुनर्परीक्षा भी हो। जो भी हो, लेकिन बिहार की परीक्षाओं की विश्वसनीयता पर आंच लाने के लिए जो लोग भी दोषी हैं उनकी पहचान करके कठोर दण्ड दिया जाना चाहिए।
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