गुरुवार, 30 जून 2016
30 जून, 2016
अभी थोड़े दिन ही पहले सातवाँ वेतन आयोग की सिफारिश आई है। इसमें 23% वेतन-वृद्धि की बात कही गयी है। लेकिन सुना है कि सरकारी कर्मचारी इससे खुश नहीं हैं और हड़ताल पर जाने की बात कर रहे हैं। ईमानदार कर्मचारियों से मैं पहले ही माफ़ी माँग लेता हूँ। सेना एवं अर्ध-सैनिक बलों पर भी मैं टिप्पणी नहीं कर रहा हूँ। लेकिन अभी जो सरकारी कर्मचारियों का वेतनमान है, क्या वो पर्याप्त नहीं है ? क्या निजी क्षेत्र में इतना वेतन और भत्ता मिलता है ? क्या निजी क्षेत्र में काम करने वाले लोग मेहनत नहीं करते ?
सरकारी नौकरी आराम, अच्छा वेतन और तरह-तरह की सुख सुविधाओं का उपभोग करने का माध्यम बनकर रह गया है कुछ कर्मचारियों के लिए। कितने सरकारी कर्मचारी हैं जो ईमानदारी पूर्वक 8 घंटे काम करते हैं ? सरकारी कर्मचारियों के देर से कार्यालय पहुँचने एवं शाम को जल्दी ही घर निकल लेने के किस्से आये दिन अख़बारों की सुर्ख़ियों में रहते हैं। मैं नहीं कहता कि सारे कर्मचारी ऐसे हैं लेकिन बहुतायत ऐसे ही लोगों की है। एक बार सरकारी नौकरी लग गई तो उसके बाद काम करो न करो, कैसे भी करो, नियत तिथि को वेतन और नियत समय बाद वेतन वृद्धि होनी ही है।
जो काम करे उसका भी और जो न करे उसका भी समान वेतन-वृद्धि होनी है। मतलब सरकारी नौकरी में वेतन-वृद्धि कार्यकुशलता देखकर नहीं की जाती। हर 6 महीने बाद महँगाई भत्ता बढ़ना है तो सबका एक समान बढ़ना है साल में एक बार वेतन वृद्धि भी सबकी एक समान ही होनी है। निजी संस्थानों में ऐसा नहीं होता। इसलिए निजी कम्पनियाँ सफलता के नए आयाम स्थापित करती है और सार्वजनिक क्षेत्र की कम्पनियाँ दिवालिया होती जाती है। सरकारी कर्मचारी के बारे में आम धारणा भी यही है कि ये कार्यालय में अपनी सीट पर कम और पड़ोस के चाय-पान की दूकान पर ज्यादा समय व्यतीत करते हैं।
निजी कंपनियों में टारगेट न पूरा होने का डर रहता है, इसलिए तयशुदा समय से ज्यादा भी काम करते हैं लोग। फिर भी जितनी कमाई सरकारी कर्मचारियों की होती है उतना कभी नहीं कमा पाते हैं ये लोग। कहने को हर राज्य में न्यूनतम मजदूरी और उसके ऊपर से महँगाई भत्ता, चिकित्सा सुविधा, प्रोविडेंट फंड, छुट्टी आदि देने का कानून है। लेकिन इन सब कानूनों का पालन करती ही कितनी कम्पनियाँ है? न्यूनतम मजदूरी भी इतनी नहीं रखी गई है जिसमें सम्मान पूर्वक जिंदगी व्यतीत हो सके।
दूसरी तरफ सरकारी नौकरी में मोटी तनख्वाह, तरह तरह के भत्ते, चिकित्सा सुविधा, आवास सुविधा, तरह तरह की छुट्टियाँ आदि मिलती है। नौकरी जाने का डर भी शायद ही किसी को होता है। इसीलिए तो सरकारी नौकरी की पीछे भागते रहते हैं ज्यादा लोग। सरकारी नौकरी की परीक्षा की तैयारी के लिए जगह-जगह खुले संस्थान एवं उसमें साल दर साल बढ़ती शिक्षार्थियों की भीड़ इसका जीता जागता सबूत है। कहते हैं, सरकारी नौकरी पाना बड़ा मुश्किल काम है लेकिन इसके बाद मजे ही मजे है।
अब इनको 23% वृद्धि पर भी आराम नहीं है और एक हम हैं जो 10% इंक्रीमेंट मिलने पर यूँ नाचते थे मानो पूरी दुनिया क़दमों के नीचे आ गयी हो। ऊपर से ये हड़ताल पर जाने की बात भी कर रहे हैं। हर 1-2 साल पर किसी न किसी राज्य में सरकारी कर्मचारियों के हड़ताल पर जाने की खबर आती ही रहती है। अब ये हड़ताल पर क्यों न जाएँ ? हड़ताल के दिनों के पैसे तो कटने नहीं इनके और सरकार को भी मजबूर होकर इनकी बात माननी ही पड़ती है। जबकि निजी संस्थानों में तो साफ साफ कहा जाता है कि भई हम तो इतना ही दे सकते हैं बाकि अगली इंक्रीमेंट पर देखेंगे। और इस बीच अगर आपको कहीं अच्छी अपॉर्चुनिटी मिल रही है तो उस पर भी गौर कर लो।
इनको अगर 23% वेतन वृद्धि न मिलकर 0% भी मिले न तब भी इनमें से कोई भी मलाईदार नौकरी छोड़ कर नहीं जाने वाला। अगर हड़ताल के दिनों के पैसे काटने लगे सरकार तो ये हड़ताल भी नहीं करेंगे।
रविवार, 26 जून 2016
जब बिल वापस ही करना था तो लटका के क्यों रखे मोदी जी ?
25 जून, 2016
दिल्ली सरकार और केंद्र सरकार के बीच टकराव बढ़ता ही जा रहा है। सबसे पहले दिल्ली की अपराध निरोधक शाखा पर केंद्र सरकार द्वारा एक उच्च अधिकारी नियुक्त कर कब्ज़ा करने के आरोप लगे। इसके बाद दिल्ली सरकार के अधिकतर फैसले को आए दिन एलजी साहब द्वारा निरस्त कर दिए जाने की बात तो हो ही रही थी। उसके बाद जो 14 बिल दिल्ली विधानसभा द्वारा पास करके केंद्र की मंजूरी के लिए भेजे गए थे वो करीब एक-डेढ़ साल तक केंद्र के पास लटके रहने के बाद अब वापस कर दिए गए हैं।
अब जनता को सिर्फ ये मालूम है कि 14 बिल वापस कर दिए गए हैं। इन बिलों का महत्त्व क्या है ये जानने की ज्यादा जरुरत है। इन बिलों पर गौर किया जाय तो पता चलता है कि एक बिल वो है जिसके तहत नेताजी सुभाष इंस्टिट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजी को यूनिवर्सिटी का दर्जा दिया गया था। इसके माध्यम से इसकी सीटों को 3400 से बढाकर 12000 करने का प्रस्ताव था। इससे दिल्ली के विद्यार्थियों को कितना फायदा होता, आसानी से सोचा जा सकता है।
दूसरा बिल है प्राइवेट स्कूलों से सम्बंधित। इसके माध्यम से निजी विद्यालयों को रेगुलेट करने के साथ-साथ बढ़ी हुई फ़ीस वापस करने का भी प्रावधान है। दिल्ली में प्राइवेट स्कूलों की मनमानी कितनी बढ़ गयी है, ये बात किसी से छुपी नहीं है। इस बिल के पास हो जाने से दिल्ली में परेशान अभिभावकों को कितनी राहत मिलती इसका अंदाजा लगाना ज्यादा मुश्किल नहीं है। शिक्षा का व्यवसायीकरण रोकने की दिशा में इस बिल का बहुत महत्त्व है।
तीसरा बिल नर्सरी एडमिशन से सम्बंधित है। इसके तहत एंट्री लेवल के क्लास में इंटरव्यू लेने पर 5 से 10 लाख रूपए की पेनाल्टी का प्रावधान किया गया है। आज एक आम आदमी अपने बच्चों को प्राइवेट स्कूल में पढ़ाने की सोच भी नहीं सकता। इंटरव्यू के नाम पर गरीबों के बच्चों को नामांकन देने से मना कर दिया जाता है बहुत से निजी विद्यालयों द्वारा।
चौथे बिल में सरकारी कर्मचारियों को ज्यादा जवाबदेह बनाने की बात है। इसमें जनता के किसी भी काम में बेवजह देर करने पर सम्बंधित सरकारी कर्मचारी के वेतन में कटौती का प्रस्ताव है। इससे सरकारी दफ्तरों के हो रही लेट-लतीफी ख़त्म हो जाती। भ्रष्टाचार भी ख़त्म हो जाता। काम जल्दी करने के एवज में कोई भी कर्मचारी नजराना नहीं माँग पाता।
एक बिल मजदूरों की भलाई के लिए लाया गया है। इसमें लेबर नियमों का उलंघन करने पर कड़ी सजा और जुर्माने का प्रावधान किया गया है। इसके डर से मजदूरों का हक़ कोई नहीं मार पाता। एक बिल में बलात्कार एवं अपहरण के मामलों में मजिस्ट्रेट जांच के दायरे को ज्यादा बढ़ाने का प्रावधान किया गया है।
नो डिटेंशन पॉलिसी के तहत कक्षा आठ तक के विद्यार्थियों को वार्षिक परीक्षा में फेल नहीं किया जाता है। इससे बच्चे पढाई के प्रति गम्भीर ही नहीं हो पाते। पहले माँ-बाप या शिक्षक बच्चों को फेल हो जाने का डर दिखाकर अधिक परिश्रम करने को प्रेरित करते थे। लेकिन यूपीए सरकार द्वारा लायी गयी इस नीति को अपनाने के बाद तो ज्यादा बच्चो की पढाई के प्रति गम्भीरता ही ख़त्म हो गयी। इससे शिक्षा की गुणवत्ता पर बहुत असर होने लगा है। इसी को ख़त्म करने के लिए एक बिल पास किया गया था लेकिन यह भी केंद्र सरकार द्वारा लौटा दिया गया है।
दिल्ली में वैट संसोधन से सम्बंधित बिल, जिसमे टैक्स चोरो के लिए कड़ी सजा का प्रावधान है, के अलावा दिल्ली सरकार के मंत्री, विधानसभा अध्यक्ष, उपाध्यक्ष, विपक्ष के नेता एवं विधायकों के वेतन एवं भत्ते में वृद्धि से सम्बंधित बिल के साथ साथ बहुप्रतीक्षित जनलोकपाल बिल भी इन 14 बिलों में शामिल है।
इन बिलों में से सिर्फ वेतन वृद्धि वाले बिल पर ही भाजपा नेताओं ने खूब हल्ला मचाया था। अगर इस बिल को छोड़कर कर भी सारे बिल केंद्र सरकार द्वारा स्वीकार कर लिए जाते तो देश वासियों के तो नहीं पर दिल्ली वासियों के अच्छे दिन जरूर आ जाते। कहा जा रहा है कि इसमें प्रक्रिया का पालन नहीं किया गया है। जब प्रक्रिया का पालन न होने के आधार पर ही बिल को वापस करना था तो केंद्र सरकार ने इसको इतने दिनों तक अपने पास लटका के क्यों रखा ?
जबकि जानकारों का मानना है कि ऐसा पहली बार नहीं हुआ है कि बिना पूर्व अनुमति के विधानसभा द्वारा बिल को पास करके केंद्र की स्वीकृति के लिए भेज गया है। लेकिन केन्द्र सरकार की दलील है कि ऐसा सिर्फ इमरजेंसी की हालत में ही हो सकता है। अब देखते हैं इस पर दिल्ली सरकार क्या रुख अख्तियार करती है।
दूसरा बिल है प्राइवेट स्कूलों से सम्बंधित। इसके माध्यम से निजी विद्यालयों को रेगुलेट करने के साथ-साथ बढ़ी हुई फ़ीस वापस करने का भी प्रावधान है। दिल्ली में प्राइवेट स्कूलों की मनमानी कितनी बढ़ गयी है, ये बात किसी से छुपी नहीं है। इस बिल के पास हो जाने से दिल्ली में परेशान अभिभावकों को कितनी राहत मिलती इसका अंदाजा लगाना ज्यादा मुश्किल नहीं है। शिक्षा का व्यवसायीकरण रोकने की दिशा में इस बिल का बहुत महत्त्व है।
तीसरा बिल नर्सरी एडमिशन से सम्बंधित है। इसके तहत एंट्री लेवल के क्लास में इंटरव्यू लेने पर 5 से 10 लाख रूपए की पेनाल्टी का प्रावधान किया गया है। आज एक आम आदमी अपने बच्चों को प्राइवेट स्कूल में पढ़ाने की सोच भी नहीं सकता। इंटरव्यू के नाम पर गरीबों के बच्चों को नामांकन देने से मना कर दिया जाता है बहुत से निजी विद्यालयों द्वारा।
चौथे बिल में सरकारी कर्मचारियों को ज्यादा जवाबदेह बनाने की बात है। इसमें जनता के किसी भी काम में बेवजह देर करने पर सम्बंधित सरकारी कर्मचारी के वेतन में कटौती का प्रस्ताव है। इससे सरकारी दफ्तरों के हो रही लेट-लतीफी ख़त्म हो जाती। भ्रष्टाचार भी ख़त्म हो जाता। काम जल्दी करने के एवज में कोई भी कर्मचारी नजराना नहीं माँग पाता।
एक बिल मजदूरों की भलाई के लिए लाया गया है। इसमें लेबर नियमों का उलंघन करने पर कड़ी सजा और जुर्माने का प्रावधान किया गया है। इसके डर से मजदूरों का हक़ कोई नहीं मार पाता। एक बिल में बलात्कार एवं अपहरण के मामलों में मजिस्ट्रेट जांच के दायरे को ज्यादा बढ़ाने का प्रावधान किया गया है।
नो डिटेंशन पॉलिसी के तहत कक्षा आठ तक के विद्यार्थियों को वार्षिक परीक्षा में फेल नहीं किया जाता है। इससे बच्चे पढाई के प्रति गम्भीर ही नहीं हो पाते। पहले माँ-बाप या शिक्षक बच्चों को फेल हो जाने का डर दिखाकर अधिक परिश्रम करने को प्रेरित करते थे। लेकिन यूपीए सरकार द्वारा लायी गयी इस नीति को अपनाने के बाद तो ज्यादा बच्चो की पढाई के प्रति गम्भीरता ही ख़त्म हो गयी। इससे शिक्षा की गुणवत्ता पर बहुत असर होने लगा है। इसी को ख़त्म करने के लिए एक बिल पास किया गया था लेकिन यह भी केंद्र सरकार द्वारा लौटा दिया गया है।
दिल्ली में वैट संसोधन से सम्बंधित बिल, जिसमे टैक्स चोरो के लिए कड़ी सजा का प्रावधान है, के अलावा दिल्ली सरकार के मंत्री, विधानसभा अध्यक्ष, उपाध्यक्ष, विपक्ष के नेता एवं विधायकों के वेतन एवं भत्ते में वृद्धि से सम्बंधित बिल के साथ साथ बहुप्रतीक्षित जनलोकपाल बिल भी इन 14 बिलों में शामिल है।
इन बिलों में से सिर्फ वेतन वृद्धि वाले बिल पर ही भाजपा नेताओं ने खूब हल्ला मचाया था। अगर इस बिल को छोड़कर कर भी सारे बिल केंद्र सरकार द्वारा स्वीकार कर लिए जाते तो देश वासियों के तो नहीं पर दिल्ली वासियों के अच्छे दिन जरूर आ जाते। कहा जा रहा है कि इसमें प्रक्रिया का पालन नहीं किया गया है। जब प्रक्रिया का पालन न होने के आधार पर ही बिल को वापस करना था तो केंद्र सरकार ने इसको इतने दिनों तक अपने पास लटका के क्यों रखा ?
जबकि जानकारों का मानना है कि ऐसा पहली बार नहीं हुआ है कि बिना पूर्व अनुमति के विधानसभा द्वारा बिल को पास करके केंद्र की स्वीकृति के लिए भेज गया है। लेकिन केन्द्र सरकार की दलील है कि ऐसा सिर्फ इमरजेंसी की हालत में ही हो सकता है। अब देखते हैं इस पर दिल्ली सरकार क्या रुख अख्तियार करती है।
शनिवार, 25 जून 2016
किसी विधायक की ऐसी गिरफ़्तारी, न देखी न सुनी।
25 जून, 2016
आज दिल्ली में आम आदमी पार्टी के विधायक श्री दिनेश मोहनिया को दिल्ली पुलिस द्वारा गिरफ्तार कर लिया गया। अब किसी देश में किसी आरोपी का गिरफ्तार होना कोई अनोखी घटना नहीं है, सामान्य ही है। लेकिन इनका गिरफ्तार होना सामान्य से थोड़ा अलग है। कितना अलग है इसको सोचने की बात है। थोड़े ही समय के अंतराल पर इनके खिलाफ 2 प्राथमिकी दर्ज की गयी थी। इसमें एक बुजुर्ग के साथ मारपीट का मामला भी शामिल है। इसी को लेकर विधायक जी प्रेस कांफ्रेंस करके अपनी सफाई दे रहे थे।
उसी दौरान दिल्ली पुलिस ने उस प्रेस कांफ्रेंस में पहुँच कर उनको गिरफ्तार कर लिया। उनकी गिरफ़्तारी की जो तस्वीर सोशल मीडिया में दिखाई जा रही है, अगर सच्ची है तो उसमें उनको दोनों तरफ से दो पुलिस वाले पकड़ के ले जाते हुए दिख रहे हैं। ऐसा प्रतीत हो रहा है जैसे वो कोई बहुत बड़े अपराधी हों और पुलिस ने कसकर नहीं पकड़ा तो उनकी गिरफ्त से छूटकर भाग जाएंगे। क्या इस तरह से किसी जनप्रतिनिधि को गिरफ्तार किया जाता है ?
क्या ये देश के इकलौते जनप्रतिनिधि हैं जिनपर प्राथमिकी दर्ज की गयी है ? हत्या, अपहरण और बलात्कार जैसे जघन्य मामलों में कई जनप्रतिनिधि आरोपी हैं, लेकिन पुलिस उसमें उतनी तेजी क्यों नहीं दिखाती। जबसे आम आदमी पार्टी की सरकार दिल्ली में बनी है, इसके किसी भी नेता के खिलाफ शिकायत मिलने भर की देर है, पुलिस कार्रवाई करने में बिलकुल भी देर नहीं करती है। कुछ महीने ही पहले की बात है भाजपा के एक विधायक अदालत परिसर में किसी व्यक्ति को पीटते हुए दिखे थे, लेकिन तब तो दिल्ली पुलिस ने उनको गिरफ्तार करने में उतनी तत्परता नहीं दिखाई थी। कुछ लोगों ने अदालत परिसर में ही एक आरोपी को जम कर पीट दिया था, लेकिन तब भी दिल्ली पुलिस ने उनको गिरफ्तार करने में तत्परता नहीं दिखाई थी।
आम आदमी पार्टी के नेता पहले से ही दिल्ली पुलिस पर अपनी पार्टी के नेताओं के साथ ज्यादा कड़ाई करने एवं भाजपा के लोगों पर ज्यादा ही रियायत करने के आरोप लगाती रही है। इस घटना से उनके इस आरोप को बल ही मिलता है।
किसी के स्वास्थ्य के साथ इतनी लापरवाही क्यों ?
24 जून, 2016
डाक्टर को हमारे समाज में भगवान के बाद दूसरा स्थान दिया गया है। ऐसा इसलिए कि वही शख्स बीमार व्यक्ति को राहत देता है, उसको मौत के मुंह से बचाकर लाने की क्षमता रखता है। समाज में डाक्टरों की खास इज्जत होती है। जब इंसान का शारीरिक कष्ट एक हद से आगे बढ़ जाता है तो ऐसे में उसको एक डाक्टर से ही उम्मीद होती है कि उससे इलाज करवाकर उसे कष्ट से आराम मिलेगा। ऐसे में इंसान अपनी क्षमता अनुसार बढ़िया से बढ़िया डाक्टर से इलाज करवाना चाहता है।
पैसे खर्च होने की परवाह न करके बीमार बस ऐसी जगह इलाज करवाना चाहता है जहाँ उसका इलाज कुशल डाक्टर से हो। जो लोग ज्यादा पैसा खर्च कर सकते हैं वो शहर के नामी हॉस्पिटल में इलाज करवाना चाहते हैं ताकि वहाँ अधिक कुशल डाक्टर मिलेंगे, अच्छी सुविधा मिलेगी। कहने का मतलब कि अपने स्वास्थय के प्रति कोई भी इंसान जरा सी भी लापरवाही नहीं होने देना चाहता है। लेकिन अगर इंसान अपनी तरफ से कोई लापरवाही न करे और डाक्टर ही लापरवाही कर के गलत इलाज कर दे, तो क्या बीतेगी बीमार व्यक्ति और उसके परिवार वालों पर, इसका अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है।
पैसे खर्च होने की परवाह न करके बीमार बस ऐसी जगह इलाज करवाना चाहता है जहाँ उसका इलाज कुशल डाक्टर से हो। जो लोग ज्यादा पैसा खर्च कर सकते हैं वो शहर के नामी हॉस्पिटल में इलाज करवाना चाहते हैं ताकि वहाँ अधिक कुशल डाक्टर मिलेंगे, अच्छी सुविधा मिलेगी। कहने का मतलब कि अपने स्वास्थय के प्रति कोई भी इंसान जरा सी भी लापरवाही नहीं होने देना चाहता है। लेकिन अगर इंसान अपनी तरफ से कोई लापरवाही न करे और डाक्टर ही लापरवाही कर के गलत इलाज कर दे, तो क्या बीतेगी बीमार व्यक्ति और उसके परिवार वालों पर, इसका अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है।
अभी 2-3 दिन पहले ही खबर आई कि दिल्ली में एक नामी निजी अस्पताल में डाक्टर साहेब ने मरीज की बाईं टांग के बदले दाईं टांग का आपरेशन कर दिया। डाक्टर एवं अस्पताल के अपने-अपने दलील हो सकते हैं लेकिन गलती किसी की भी हो, मरीज का नुकसान तो हो गया। नामी एवं महंगे अस्पताल या डाक्टर के पास लोग यही सोच कर जाते हैं कि वहाँ पक्का इलाज होगा, लेकिन अगर ऐसी जगहों पर भी इस तरह की लापरवाही हो तो इंसान किधर जाए, किस पर भरोसा करे ?
ऐसा नहीं है कि इस तरह का मामला पहली बार आया है। इससे पहले भी देश के अलग अलग हिस्से में डाक्टरों की लापरवाही के किस्से सुनने को मिलते रहते हैं। हर बार अलग अलग दलीलें दी जाती है। डाक्टर एवं अस्पताल अपने को पाक साफ़ बताते हैं और मरीज के परिजन डाक्टर एवं अस्पताल को दोषी ठहराते हैं। कई बार मरीज के परिजनों द्वारा गुस्से में मार-पीट की जाने की भी खबर आती रहती है, जो कि कहीं से भी जायज नहीं ठहराया सकता। किसी की जिम्मेदारी तय कर देने से जो नुकसान हो गया उसकी भरपाई नहीं हो जाती।
समझ में नहीं आता कि डाक्टरी जैसे महत्वपूर्ण एवं गम्भीर पेशे को कुछ लोग गम्भीरता से क्यों नहीं लेते ? कुछ बुरे लोगों की वजह से पूरी बिरादरी बदनाम होती है। बेजान चीजों के साथ काम करने वाले भी बड़ी गम्भीरता से काम करते हैं। एक दरजी भी कपडे सिलते समय सभी प्रक्रिया का ध्यान रखता है। लेकिन जिस पेशे में किसी की जान का मामला हो उसमें लापरवाही करना कहीं से भी क्षम्य नहीं है। ये बहुत बड़ा अपराध होने के साथ साथ पाप भी है।
ऐसा नहीं है कि इस तरह का मामला पहली बार आया है। इससे पहले भी देश के अलग अलग हिस्से में डाक्टरों की लापरवाही के किस्से सुनने को मिलते रहते हैं। हर बार अलग अलग दलीलें दी जाती है। डाक्टर एवं अस्पताल अपने को पाक साफ़ बताते हैं और मरीज के परिजन डाक्टर एवं अस्पताल को दोषी ठहराते हैं। कई बार मरीज के परिजनों द्वारा गुस्से में मार-पीट की जाने की भी खबर आती रहती है, जो कि कहीं से भी जायज नहीं ठहराया सकता। किसी की जिम्मेदारी तय कर देने से जो नुकसान हो गया उसकी भरपाई नहीं हो जाती।
समझ में नहीं आता कि डाक्टरी जैसे महत्वपूर्ण एवं गम्भीर पेशे को कुछ लोग गम्भीरता से क्यों नहीं लेते ? कुछ बुरे लोगों की वजह से पूरी बिरादरी बदनाम होती है। बेजान चीजों के साथ काम करने वाले भी बड़ी गम्भीरता से काम करते हैं। एक दरजी भी कपडे सिलते समय सभी प्रक्रिया का ध्यान रखता है। लेकिन जिस पेशे में किसी की जान का मामला हो उसमें लापरवाही करना कहीं से भी क्षम्य नहीं है। ये बहुत बड़ा अपराध होने के साथ साथ पाप भी है।
शुक्रवार, 24 जून 2016
भाजपा भी अब कांग्रेस हो गयी है।
6/24/2016 03:09:00 pm
कांग्रेस, भारतीय जनता पार्टी
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दो साल पहले की ही तो बात है, जब भाजपा विपक्ष में थी और केंद्र में यूपीए की सरकार थी, मनमोहन सिंह जी प्रधानमंत्री थे। केंद्र सरकार के एक-एक निर्णय का सड़क से लेकर संसद तक प्रबल विरोध करती थी भारतीय जनता पार्टी। जबसे मोदी जी भाजपा की तरफ से प्रधानमंत्री के उम्मीदवार घोषित किये गए उसके बाद तो लगभग हर जनसभा में यूपीए सरकार और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जी के कार्य शैली की जमकर आलोचना करते थे। बिलकुल नकारा और निकम्मा साबित करते रहते थे भाजपा वाले उस सरकार को।
10 साल तक मनमोहन सिंह जी प्रधान मंत्री थे, शायद ही कोई दिन रहा हो जब भाजपावालों ने सरकार की बुराई या खिंचाई नहीं की हो। चाहे परमाणु समझौता हो या फिर GST, भाजपा वालों ने कभी भी सरकार की तारीफ नहीं की। सिर्फ कमियाँ ढूंढती रही इसमें। महँगाई को लेकर भाजपा के नेता कई बार धरना प्रदर्शन कर चुके थे। एक बार तो राजघाट पर भी चले गए थे शायद, धरना देने, महँगाई के मुद्दे पर। उस समय चीजों के जो दाम थे उसके मुकाबले अभी महँगाई बहुत ही ज्यादा है, लेकिन अब इनको कुछ भी नहीं दिख रहा।
उन दिनों के मुकाबले अभी कच्चे तेल का दाम अंतर्राष्ट्रीय मार्किट में कुछ भी नहीं है, लेकिन हमारे देश में डीजल-पेट्रोल के दाम में कोई खास कमी नहीं आई है। ऐसी स्थिति अगर यूपीए के कार्यकाल में होती तो अभी तक धरना प्रदर्शन कर-कर दे आसमान सिर पर उठा लिए होते भाजपा वाले। विदेशी प्रत्यक्ष निवेश का भी खूब विरोध किया था लेकिन अब खूब समर्थन कर रहे हैं विदेशी प्रत्यक्ष निवेश का। काला धन के मुद्दे पर तो मोदी जी ने समय सीमा भी तय कर दी थी, लेकिन सत्ता में आने के बाद चुप हो गए सब के सब।अब काले धन पर वही बात कही जाती है जो यूपीए सरकार के लोग कहते थे।
यूपीए सरकार की लोकप्रिय स्कीम मनरेगा की भी खूब आलोचना करते थे भाजपा वाले लेकिन जब से केंद्र में सत्ता में आए हैं, इसकी तारीफ करते नहीं थक रहे हैं। GST भी अब इनको बहुत प्यारी हो गयी। इसको पास करवाने के लिए खूब जोर लगा रही है सरकार। लेकिन अब कांग्रेस इसका विरोध कर रही है। भाई उसको भी तो राजनीति करनी है न। जिन-जिन मुद्दों का विरोध करती थी भाजपा, अब सत्ता में आने के बाद वही काम कर रही है। और कांग्रेस उसका विरोध करने लगी है।
शायद भाजपा का कांग्रेसीकरण और कांग्रेस का भाजपाकरण हो गया है, ऐसा लगता है।
यूपीए सरकार की लोकप्रिय स्कीम मनरेगा की भी खूब आलोचना करते थे भाजपा वाले लेकिन जब से केंद्र में सत्ता में आए हैं, इसकी तारीफ करते नहीं थक रहे हैं। GST भी अब इनको बहुत प्यारी हो गयी। इसको पास करवाने के लिए खूब जोर लगा रही है सरकार। लेकिन अब कांग्रेस इसका विरोध कर रही है। भाई उसको भी तो राजनीति करनी है न। जिन-जिन मुद्दों का विरोध करती थी भाजपा, अब सत्ता में आने के बाद वही काम कर रही है। और कांग्रेस उसका विरोध करने लगी है।
शायद भाजपा का कांग्रेसीकरण और कांग्रेस का भाजपाकरण हो गया है, ऐसा लगता है।
रविवार, 19 जून 2016
दाल महँगी है तो पानी ज्यादा मिला लें ?
19 जून, 2016
बाबा रामदेव जी का भाजपा और मोदी प्रेम किसी से छुपा नहीं है। योग गुरु के नाम से प्रसिद्ध एवं सम्पूर्ण विश्व को योग एवं आयुर्वेद के द्वारा रोगमुक्त करने का बीड़ा उठाने वाले बाबाजी अब राजनीति में भी खुल कर अपनी राय रखने लगे हैं। उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा भी अब उभर कर सामने आ रही है। 2014 के लोकसभा चुनाव में बाबाजी ने काला-धन वापसी के मुद्दे पर भाजपा और मोदी जी की खूब हिमायत की थी । इस मुद्दे को इतना भुना दिया बाबाजी ने कि जनता को लगा, अब तो मोदी जी ही अच्छे दिन ला सकते हैं और दे दिया प्रचण्ड एवं अभूतपूर्व बहुमत भाजपा को।
यूँ तो बाबाजी शुरू से ही बहुराष्ट्रीय कंपनियों के खिलाफ रहे हैं, लेकिन अब अपनी कंपनी द्वारा घरेलु उपयोग की लगभग सभी वस्तुओं का निर्माण करके उनको कड़ी टक्कर भी दे रहे हैं। जनता भी खूब पसंद कर रही है इनके उत्पादों को। गुणवत्ता और दाम के मामले में बाबा की कंपनी के उत्पाद बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के मुकाबले बेहतर हैं, ऐसा सुनने में आया है। लोग कहते हैं कि बाबा के उत्पाद की गुणवत्ता अगर प्रमाणित नहीं हो तो भी इनकी कंपनी स्वदेशी तो है। देश का पैसा देश में ही तो रहेगा।
काला धन के मुद्दे पर देश भर में अलख जगाकर केंद्र में मोदी जी की सरकार बनवाने वाले बाबा जी सरकार बनने के बाद से इस मुद्दे पर कुछ भी बोलने से बचने लगे हैं। जब कभी मीडिया द्वारा पुछा भी जाता है तो एक मझे हुए राजनीतिज्ञ की तरह से बाबा कूटनीतिक जवाब दे देते हैं, मुस्कुराने लगते हैं। लेकिन मोदी सरकार के समर्थन में बाबा ने कोई कमी नहीं आने दी है अपनी तरफ से। जब कभी भी मोदी सरकार किसी मुद्दे पर घिरती नजर आती है, बाबा अपनी तरफ से संकटमोचक की भूमिका में आ जाते हैं।
महँगाई के मुद्दे पर पूर्ववर्ती यूपीए सरकार को जम कर कोसने वाले बाबा जी वर्तमान केंद्र सरकार के बचाव में खुलकर आ गए हैं। जनता को नई नसीहत दे रहे हैं। कह रहे हैं कि अगर दाल महँगी है तो केंद्र सरकार को कोसने से अच्छा है कि दाल में ज्यादा पानी मिला कर खाओ। यही नसीहत यूपीए सरकार के दौरान क्यों नहीं देते थे बाबा जी ? तब तो केंद्र सरकार की नीतियों की जमकर आलोचना करते थे। यही नहीं, दाल में पानी मिलाने के फायदे भी बता रथे हैं बाबा जी। कह रहे हैं कि इससे मोटापा कम होगा और दाल की बचत तो होगी ही।
जब टमाटर महँगे हो जाए तो इसको खाना यह सोचकर बंद कर दें कि इससे पथरी होती है ? जब चीनी महँगी हो जाए तो यह सोचकर इसका इस्तेमाल बंद कर दें कि इससे मधुमेह रोग होने का खतरा हो सकता है ? जब प्याज महँगी हो जाए तो यह सोचकर इसका इस्तेमाल बंद कर दें कि यह तामसी भोजन की श्रेणी में आता है ? फल भी जब महंगे हो जाए तो विभिन्न फलों के सस्ते विकल्प बता दिया कीजिये। ऐसा नहीं है कि बाबाजी कोई गलत बात बता रहे हैं, लेकिन ये नसीहत सिर्फ अभी ही क्यों ? यूपीए सरकार के समय तो सरकार की गलत नीतियों को जिम्मेदार बताते थे महँगाई के लिए।
बेहतर होता कि बाबाजी केंद्र सरकार को जमाखोरों एवं मुनाफाखोरों पर नकेल कसने की नसीहत देते। जनता तो इस महँगाई के दौर में जैसे तैसे जीने का रास्ता ढूंढ ही लेगी।
शुक्रवार, 17 जून 2016
अब तो जिसको देखो वही पत्रकार बन गया है।
17 जून, 2016
पहले शहर में इक्का-दुक्का ही पत्रकार होते थे। उनको समाज में सेलेब्रिटी जैसा सम्मान मिलता था। उनका काम देश-विदेश की घटनाओं एवं समाज की समस्याओं पर अपने विचार लिखना होता था। उनदिनों अख़बार में लिखे उनके लेख को लोग बड़ी ही दिलचस्पी से पढ़ते थे। उनकी अपनी अच्छी-खासी फैन फॉलोइंग होती थी। जैसे आजकल लोग अपने पसंदीदा हीरो-हीरोइनों की फ़िल्म के आने का बेसब्री से इंतजार करते हैं (अब तो निर्देशक, संगीतकार, नृत्य निर्देशक और खलनायक भी पसंदीदा हो गए हैं ), वैसे ही पहले अपने पसंदीदा पत्रकार के लेख का इंतजार करते थे लोग।पत्रकारों को सरकार की तरफ से तरह-तरह सुविधाऐं भी मिलती थी, अभी भी मिलती हैं।
फिर आया सेटेलाइट चैनल का जमाना, नए-नए समाचार चैनल भी आ गए। इसमें शुरू में सिर्फ समाचार ही दिखाए जाते थे, लेकिन धीरे-धीरे रोजमर्रा की घटनाओं पर चर्चा भी की जाने लगी। इसमें एंकर का रोल उभर कर सामने आने लगा। शुरू में तो एंकर सिर्फ एक मॉडरेटर की भूमिका निभाते थे। कोशिश करते थे कि बहस मुद्दे से भटक न जाए। लेकिन इस क्षेत्र में भी क्रांति आई। एंकर चिल्ला-चिल्ला कर सवाल पूछने लगे हैं ,अपने खुद के विचार भी रखने लगे हैं चर्चा के बीच में। अब एंकरों की भी फैन फॉलोइंग हो गयी है। उनकी निष्पक्षता पर भी सवाल उठने लगे हैं।
लेकिन सोशल मीडिया के लोकप्रिय होने के बाद से तो पत्रकारों की बाढ़ सी ही आ गयी है जैसे। कोई भी किसी का लिखा लेख अपने वाल पर डाल देता है। कोई अपने खुद के विचार भी लिखता है तो भी लोग शक की निगाह से देखते हैं कि जरूर ये किसी की वाल से चोरी कर के लाया होगा। कुछ लोग कई दिनों की कड़ी मेहनत के बाद अच्छा सा लेख भी लिखते हैं तो झट से इसकी कॉपी होने लगती है बिना उचित क्रेडिट दिए ही। मूल लेखक का पता ही नहीं चलता है।
सही मायने में पत्रकार किसको कहते हैं, अब इसमें भी कन्फूजन होने लगी है लोगों को। पहले संवाददाता भी होते थे जिनका काम आस-पास के इलाकों में होने वाली घटनाओं की खबर अपने अख़बार या न्यूज़ एजेंसी को देना होता था। न्यूज़ रीडर समाचार पढ़ते थे। आजकल बड़े शहरों में स्थानीय अख़बार भी निकलने लगे हैं। जिनमें से बहुत से अख़बार में एक ही व्यक्ति समाचार इकठ्ठा करता है, महानुभावों से मिलकर उनके विचार लेता है, उनको संकलित करता है और खुद से छपवाता भी है। वही संपादक भी होता है।
ऐसे ही एक स्थानीय अख़बार के संपादक जी से मिलने का मौका मिला तो हम पूछ बैठे कि एंकर, संवाददाता और न्यूज़ रीडर, और बड़े बड़े लेख लिखने वाले लोग में से पत्रकार किसको कहते हैं जरा बताइए। वो बोले कि ये सारे लोग ही पत्रकार कहलाते हैं। सही है, पत्रकारिता बड़ी आसान हो गयी है आजकल।
शनिवार, 11 जून 2016
हमरे साहेब बड़े जुमलेबाज रे।
बिलकुल भाई लोग, हमरे साहेब बहुत ही लाजवाब हैं। किसी भी मौका और मुद्दे पर बोलने को तैयार रहते हैं। बस निमंत्रित कर लीजिए कवनो बड़का समारोह में और फिर देखिये केतना ज्ञान मिलता है आप लोगों को। अईसा-अईसा ज्ञान देते हैं हमरे साहेब कि कभी-कभी बड़का से बड़का विशेषज्ञ आ बड़का से बड़का इतिहास आ भूगोल के जानकारी रखे वाला भी जल्दी जल्दी किताब पलट के देखे लगता है कि हम लोग जो पढ़े थे उ सही है कि साहेब कह रहे हैं उ।
अउर सुनिए, हिंदी में भाषण हो या अंगरेजी में, हमरे साहेब पन्ना पर लिखकर कर नहीं ले जाते हैं। बिल्कुल धारा-प्रवाह बोलते हैं, तनिको नहीं अटकते हैं कहीं । दोसरा लोग जइसे नहीं कि पन्ना पर लिखकर ले गए अउर लगे पढ़ने पलट-पलट के। आ बीच में पन्ना ऐने-ओने हो गया त ढूंढने लगे। भाई, लिखल भाषण के पढ़ने में कोनो-कोनो बेर अरथ का अनरथ हो जाता है। एक बार सबसे पुरानी पार्टी के एगो नेताजी चुनाव प्रचार करने गए आ लिखल भाषण पढ़ रहे थे, एतने में जोन पन्ना पर प्रत्याशी का नाम लिखल था उहे कहीं भुला गया। कैमरे पर उ नेताजी पन्ना को खोजते हुए नजर आये थे, बहुत बेइज्जती हुआ।
ई बात के खूब अच्छे से समझते हैं हमरे साहेब। उनका भाषण हम बहुत बार सुने हैं। जेतना सुनते हैं उनका भाषण ओतने अउर मन करता है सुनने का। हम त समझते थे कि उनकी पार्टी में अटल जी के बाद प्रखर और प्रभावी वक्ता हमरे साहेब ही हैं। अटल जी के विरासत को आगे साहेब ही बढ़ाएंगे। हमरा ई सब आकलन साहेब के हिंदी में भाषण सुन के था। लेकिन साहेब तो अंग्रेजी में भी भाषण देने में सुपर फास्ट हैं ई हमको पते नहीं था।
उ त उस रात हम टीवी पर अमेरिकन संसद में साहेब का भाषण देख सुन रहे थे। अरे दादा, एतना फर्राटेदार अंगरेजी बोल रहे थे हमरे साहेब कि हम क्या बोले। सब अमेरिकन सांसद सुन के खुश हो रहा था आ ताली भी बजा रहा था। उ सब को पता लग गया होगा कि इंडिया में भी कमाल के अंग्रेजी बोले वाला लोग है। हम कहे कि भाई आप लोग साहेब के सामान्य ज्ञान के बारे में कुछ भी कहो लेकिन साहेब के अंगरेजी के ज्ञान देख लीजिएगा त अच्छा-अच्छा के हालत खराब हो जाएगा।
जेतना आराम अऊर कुशलता से साहेब हिंदी में भाषण करते हैं ओतने कुशलता से अंगरेजी में भाषण कर रहे थे। बिल्कुले नहीं लग रहा था कि साहेब कवनो विदेशी भाषा में बोल रहे हैं, बुझा रहा था कि अपनी मातृभाषा में बोल रहे हैं। लेकिन हमर ई खुशी सिर्फ राते भर रहा। भोर होते होते हमर तमाम खुशी गायब हो गया। बुरा हो ई मीडिया वाला सबके। सुबह होते होते सारा पोल पट्टी खोल के रख दिहिस। सारा भरम टूट गया हमरा।
एगो अख़बार वाला लिख दिहिस कि साहेब जो भाषण दे रहे थे उ पहिले से ही लिखल था आ धीरे-धीरे साहेब के सामने रखल स्क्रीन पर चल रहा था। जोन गति से साहेब बोल रहे थे वोही गति से स्क्रीन पर लिखल भाषण भी चल रहा था। साहेब कभी ई स्क्रीन त कभी उ स्क्रीन पर देख के भाषण दे रहे थे आ देखने वाला सब को बुझा रहा था कि साहेब उ लोग को देख के भाषण दे रहे हैं। सुने हैं कि उ मशीन के टेली-प्रॉम्पटर कहल जाता है।
लेकिन एक बात के तारीफ करना पड़ेगा हमरे साहेब के। बिलकुल ताल-मेल बिठा के चल रहे थे उ मशीनवा के साथ। तनिको नहीं लग रहा था कि साहेब देख के बोल रहे हैं। कुछ भी हो, साहेब के इहो कला के तारीफ कम नहीं हो रहा है।
शुक्रवार, 10 जून 2016
अगर कोई टोपी पहना तो उसको पीट दोगे, भाजपा वालों ?
6/10/2016 01:27:00 pm
आम आदमी, भारतीय जनता पार्टी
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10 जून 2016
कितने हताश और निराश हो गए हैं भाजपा वाले ? कभी किसी आरोपी को अदालत परिसर में जम के पीट देते हैं तो कभी जनप्रतिनिधि को ही। अभी कल का ही मामला है। दिल्ली नगर निगम की संयुक्त सत्र में कूचा पंडित से आम आदमी पार्टी के नवनिर्वाचित पार्षद श्री राकेश कुमार टोपी पहन कर बैठे थे। इसको लेकर भाजपा के पार्षद से उनकी बहस हो गई। बात इतनी बढ़ गयी कि भाजपा के कुछ पार्षदों ने उनको पीट दिया।
आखिर क्या हो रहा है हमारे देश में ? सत्ता के मद में कितने चूर हो गए हैं भारतीय जनता पार्टी वाले ? हमेशा कानून को हाथ में लेने को तैयार रहते हैं। भाई, टोपी पहन कर निगम की सत्र में भाग लेना जुर्म है क्या ? अगर जुर्म भी है तो भाजपा वाले कौन होते हैं इसकी सजा देने वाले ? इसकी बकायदा शिकायत की जा सकती है सम्बद्ध अधिकारी से। लेकिन भाजपा वालों को कानून और नियम से क्या लेना देना ? ये तो खुद को ही कानून समझते हैं।
दरअसल 2013 के विधानसभा चुनाव के बाद से दिल्ली में होने वाले हर चुनाव में भारतीय जनता पार्टी की जमीन खिसकती जा रही है। अभी दिल्ली नगर निगम के उप-चुनाव में भी सबसे कम 3 सीटें मिली इस पार्टी को। इससे बुरी तरह से हताश और निराश होकर बौखला गए हैं भाजपा वाले। और इसी हताशा और निराशा में ऐसी उटपटांग हरकतें कर रहे हैं। ये ठीक है कि अभी निगम में भाजपा का बहुमत है और आम आदमी पार्टी के पार्षदों की संख्या मात्र 5 ही है। लेकिन, इसका क्या मतलब ? ज्यादा की संख्या में हैं तो पीट देंगे किसी को ?
दिल्ली विधानसभा में भी भाजपा के 3 सदस्य ही हैं, लेकिन क्या कभी आम आदमी पार्टी के किसी भी विधायक ने सत्ता का घमंड दिखाया ? इनके 3 में से किसी विधायक के साथ बेअदबी की ? राजनीति में राजनीतिक प्रतिस्पर्धा चलती रहती है और लोकतंत्र के लिए अच्छा भी है। लेकिन प्रतिस्पर्धा स्वस्थ भी तो हो सकती है ? अपनी प्रतिद्वंद्वी पार्टी या उसके नेता को दुश्मन तो नहीं समझना चाहिए। आप आम आदमी पार्टी या उसकी सरकार की आलोचना करो, उसकी नीतियों की आलोचना करो।
लेकिन ये क्या ? दूसरी पार्टी के बढ़ते कद से हताश होकर उसके नेता को पीट देना, कैसी राजनीति है ? इसी पार्टी के नेता अटल बिहारी वाजपेयी जी विपक्ष को विशेष पक्ष कहा करते थे। लेकिन अब कैसी संस्कृति चल पड़ी है इस पार्टी में ? अभी लोकसभा में जितनी सीटें भारतीय जनता पार्टी की है उससे कहीं ज्यादा सीटें 1984 के आम चुनाव में कांग्रेस पार्टी को मिली थी। एक तरह से विपक्ष का सफाया ही हो गया था। प्रचण्ड बहुमत मिला था, लेकिन कांग्रेस पार्टी के लोग ऐसी गुंडागर्दी पर तो नहीं उतर आये थे।
अभी राज्यसभा में सरकार अल्पमत में है तो ये आलम है। अगर उधर भी बहुमत मिला होता तो कितने निरंकुश हो जाते भाजपा वाले, ये आसानी से समझा जा सकता है।
बुधवार, 8 जून 2016
मंगलवार, 7 जून 2016
दिल्ली में भी जंगलराज आ गया है।
6/07/2016 06:27:00 pm
केजरीवाल, जंगलराज, दिल्ली, दिल्ली सरकार, बिहार, बिहार सरकार
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7 जून, 2016
कहने में तो अटपटा लगता है और सुनने में और भी ज्यादा। लेकिन क्या करें ? जो हकीकत है, सो है। काफी सालों से बिहार में लालू जी एवं राबड़ी जी के मुख्यमंत्रित्व काल को जंगलराज की संज्ञा देते रहे हैं कुछ लोग। नीतीश जी तो इस जंगलराज के खौफ की बदौलत लगातार 10 साल तक शासन भी करते रहे बिहार में। अब ये अलग बात है कि जिनके कार्यकाल को जंगलराज कह कर और जंगलराज का खौफ दिखाकर 2 चुनाव लड़े बिहार विधानसभा के, 2015 का विधानसभा चुनाव उन्ही लोगों के साथ मिलकर लड़े और उन्ही की पार्टी के समर्थन से मुख्यमंत्री भी बने हैं। और तो और, उन्ही लोगों के समर्थन की बदौलत प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा पूरी होने की आस लगाए बैठे हैं।
बिहार, वहां के पिछड़ेपन, बढ़ते अपराध और जंगलराज की चर्चा तो बहुतों बार की जा चुकी है। जब भी इस मुद्दे पर चैनलों पर चर्चा होती है , अचानक से उनकी टीआरपी की वृद्धि हो जाती है। लेकिन इस बार तो मामला अलग है। इस बार तो दिल्ली में जंगलराज होने की बात कही जा रही है। कहने वाले भी कोई विरोधी या विपक्षी दल के नेता नहीं, बल्कि प्रदेश के मुख्यमंत्री केजरीवाल जी हैं। अब भाजपा और कांग्रेस के नेता भी कन्फ्यूजन में हैं कि इस बयान की निंदा करें या प्रशंसा करें। अगर प्रशंसा करते हैं तो इसका सीधा सीधा समर्थन केजरीवाल जी को जाता है। अगर निंदा करते हैं तो जनता की नज़रों में गिरने का खतरा है।
अब दूसरा प्रदेश होता तो विपक्षी दल खूब चुटकी लेते, कहते कि देख लो प्रदेश का मुख्यमंत्री ही स्वीकार कर रहा है कि प्रदेश में कानून व्यवस्था की स्थिति ठीक नहीं है। लगे हाथ मुख्यमंत्री का इस्तीफा भी मांग लेते विपक्षी दलों के नेता। क्या पता सम्बद्ध प्रदेश के राज्यपाल मुख्यमंत्री की इस स्वीकारोक्ति पर राष्ट्रपति शासन की अनुशंसा भी कर देते। लेकिन चूँकि दिल्ली आधा राज्य है इसलिए ऐसा कुछ नहीं हो रहा है। यहाँ कानून व्यवस्था सहित कई मामले उप-राज्यपल महोदय के माध्यम से सीधे-सीधे केंद्र सरकार के नियंत्रण में है।
अब चूँकि कानून व्यवस्था की जिम्मेदारी केंद्र सरकार की है तो यहाँ होने वाले अपराधों के नियंत्रण में असफल रहने पर खिंचाई किसकी होगी ? एक बात तो बिलकुल सत्य है कि दिल्ली में अपराध दिनोंदिन बढ़ते ही जा रहे हैं। ऐसा लगता है जैसे अपराधियों के मन में बिलकुल ही खौफ नहीं रह गया हो कानून का। छोटी-छोटी बच्चियों से बलात्कार के मामले सुनने को मिलते रहते हैं। दिन-दहाड़े लूटमार, हत्या की वारदात होती रहती है। महिलाओं के प्रति अपराध भी बढ़ते ही जा रहे हैं। जब कोई वारदात हो जाती है तब अपराधियों की धर-पकड़ में पुलिस की चुस्ती दिखती है।
लेकिन जरूरत इस बात की है कि अपराधियों के मन में पुलिस, कानून और सजा का इतना खौफ हो कि वो कोई भी अपराध करने की सोचे ही न। बिहार, उत्तरप्रदेश जैसे राज्य वहां होने वाले अपराध के लिए बदनाम तो हैं, लेकिन दिल्ली में भी अपराध कम होने का नाम नहीं ले रहा। जब राज्य सरकार द्वारा दिल्ली पुलिस को प्रदेश सरकार के अंतर्गत लाने की मांग की जाती है तो तर्क दिया जाता है कि दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र है, यहाँ की कानून-व्यवस्था सर्वोत्कृष्ट एवं चाक-चौबंद होनी चाहिए। इसलिए दिल्ली पुलिस को केंद्र सरकार के अधीन ही होना चाहिए। क्या यही सर्वोत्कृष्ट कानून- व्यवस्था है ? कहीं से नहीं लगता कि हम देश के सबसे सुरक्षित हिस्से में रह रहे हैं।
रविवार, 5 जून 2016
सरकारी कंपनियों की सेवा ऐसी क्यों ?
6/05/2016 09:26:00 pm
भारत संचार निगम लिमिटेड, महानगर टेलीफोन निगम लिमिटेड
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5 जून, 2016
आखिर सरकारी कंपनियों की दुर्दशा क्यों हो रही है दिन-प्रतिदिन ? अब सरकार के पास पैसे की कमी तो है नहीं । कोई भी प्राइवेट कंपनी को ले लीजिए, उनके पास सरकारी कंपनी से ज्यादा पैसा तो नहीं हो सकता न निवेश करने के लिए ? फिर भी उनकी सेवा बहुत उत्तम होती है। दूसरी तरफ खूब पैसे लगाने के बावजूद भी सरकारी कम्पनी वैसी सेवा नहीं दे पाती। ऐसा क्यों ? सीधा सा कारण है, भ्रष्टाचार। सरकार के पास पैसे की कमी नहीं है, लेकिन पैसे भ्रष्टाचार के कारण पैसे का सदुपयोग नहीं हो पता है ?
जितना पैसा निवेश करती है सरकार अपनी कंपनियों पर क्या सच में उतना पैसा निवेश हो पाता है ? दूर-संचार विभाग हो ही ले लीजिए। भारत संचार निगम लिमिटेड और महानगर टेलीफोन निगम लिमिटेड नामक दो कम्पनियाँ है भारत सरकार की। ग्राहकों को आकर्षित करने के लिए इन्होने मोबाईल कॉल की दरें सबसे कम रखी हैं। लेकिन सेवा की गुणवत्ता मत पूछिए। जब भी डायल करो, ज्यादातर सिग्नल व्यस्त ही मिलेगा। बड़ी मुश्किल से नंबर लगता भी है तो कभी उधर की आवाज नहीं आ रही तो कभी इधर से नहीं जा रही। कभी-कभी आवाज सुनने के लिए कानों को बहुत परिश्रम करनी पड़ती है। चिल्ला-चिल्ला कर बोलना पड़ता है।
इन दोनों कंपनियों की सेवा की गुणवत्ता में कमी के कारण ही तो निजी कंपनियों के मजे हैं। उनके पास सरकार के जितना पैसा नहीं है निवेश करने के लिए, लेकिन उनकी सेवाओं की गुणवत्ता देख लीजिए, एक दम टनाटन। तभी तो लोग इसके दीवाने हुए पड़े हैं। अब सस्ती काल दरों से आकर्षित हो कर लोग सरकारी कंपनियों का कनेक्शन ले तो लेते हैं, लेकिन ज्योहीं परेशानियों से दो-चार होते हैं तो भाग कर निजी कंपनियों की महँगी सेवा ही लेनी पड़ती है।
पहले तो पुराना नंबर होने के कारण लोग झेलते रहते थे कि नंबर बदल जाएगा। लेकिन, जब से मोबाईल नंबर पोर्टिबिलिटी सेवा शुरू हुई है, लोग झट से कंपनी को बदलने लगे हैं। मोदी जी जब प्रचण्ड बहुमत से प्रधानमंत्री बने थे, तब बहुत उम्मीद थी कि सरकारी कंपनियों के भाग्य जगेंगे। इनकी स्थिति सुधरेगी। लेकिन 2 साल होने को आए। ऐसी कोई क्रांति नहीं हुई है और न ही सरकार की कोई ऐसी नीति भी आई है जिससे निकट भविष्य में उम्मीद जगे। तब तक तो निजी कंपनियों की बल्ले बल्ले है।
फिर शर्मसार हुआ बिहार।
6/05/2016 07:17:00 am
परीक्षा टॉपर्स, बिहार, बिहार सरकार
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5 जून, 2016
सुना है कि शुक्रवार को बिहार इंटरमीडिएट परीक्षा में सफल टॉप 5 परीक्षार्थियों को इंटरव्यू के लिए बुलाया गया था। एक टॉपर तो शायद बीमार थी इसलिए पहुंची ही नहीं। कुल 13 लोग सम्मिलित हुए थे जिसमें से साइंस टॉपर सौरभ और राहुल असफल रहे, उनका परिणाम रद्द कर दिया गया है। जिस स्कूल से ये दोनों पढ़े थे उस स्कूल की भी मान्यता भी रद्द कर दी गयी है। सरकार अपनी तरफ से पूरी तत्परता दिखा कर कदम उठा रही है। शायद जांच समिति भी बना दी गयी है। उसकी रिपोर्ट आने के बाद कुछ और लोगों को सजा मिलेगी ऐसा मुमकिन है।
लेकिन बिहार की छवि पर जो गहरा दाग लगा है उसका क्या होगा ? देश और विदेश में कितनी बदनामी हुई है बिहार की इस बात का जरा सा भी इल्म है हुक्मरानों को ? हम लोग कहते नहीं थकते थे कि बिहार में प्रतिभा की खान है। भारत के पहले राष्ट्रपति डा. राजेंद्र प्रसाद जी से लेकर प्रशांत किशोर तक के उदहारण देते थे। बहुत गर्व का अनुभव करते थे। अब लोग हमें सौरभ, राहुल, और रूबी का उदाहरण देंगे। किस-किस को समझाते रहेंगे कि भैया जिन लोगों की प्रतिभा संदेह के दायरे में थी उनका पुनर्परीक्षा ले लिया गया है और सरकार किसी भी दोषी को नहीं बख्शेगी।
जैसे पतीले में 2 - 4 चावल पका हुआ निकल जाय तो पूरे पतीले के चावल को पका हुआ मान कर चूल्हा बंद कर देते हैं। ऐसा ही नहीं होगा क्या बिहार के साथ ? लोग तो समझेंगे कि बिहार में ऐसे ही पास एवं टॉप कर जाते हैं लोग। जब टॉपर का ये हाल है तो बाकियों का क्या होगा। दोषियों के खिलाफ कार्रवाई की बात कही जा रही है। कुछ को सजा मिल भी गई है। लेकिन नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए किसी का इस्तीफा नहीं आया है। वैसे नैतिक जिम्मेदारी के आधार आज कल इस्तीफा सिर्फ माँगा जाता है, कोई देता नहीं है।
लेकिन जो व्यक्ति अतीत में रेल दुर्घटना होने पर नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए रेल मंत्री के पद से इस्तीफा दे सकता है, आज वो प्रदेश का मुख्यमंत्री है तो ऐसी ही नैतिकता प्रदेश का शिक्षा मंत्री क्यों नहीं दिखा सकता ? ठीक है, शिक्षामंत्री की कोई सीधी गलती नहीं है इसमें, लेकिन नीतीश जी की भी तो कोई गलती नहीं थी रेल दुर्घटना में। लेकिन उन्होंने इस्तीफा देकर मिसाल कायम की थी। शायद आखिरी बार किसी ने नैतिकता के आधार पर इस्तीफा दिया था।
जैसी तत्परता सरकार अभी दोषियों को ढूँढ़ने में और उनको सजा देने में दिखा रही है वैसी तत्परता अगर कदाचार रोकने में दिखाई होती तो आज बिहार की इतनी बदनामी नहीं हुई होती। लेकिन अब किया भी क्या जा सकता है ? सिर्फ चेहरा साफ़ करने की कार्रवाई ही की जा सकती है। जो होना था वो तो हो गया। लेकिन भविष्य में अति-सावधान रहने की जरूरत है परीक्षा समिति एवं शिक्षा मंत्रालय को। ताकि ऐसी घटना की पुनरावृति नहीं हो सके। गलती से सीखा ही जा सकता है उसको बदला तो नहीं जा सकता।
शनिवार, 4 जून 2016
पैसे भी दो और प्रचार भी देखो।
3 जून, 2016
बात बहुत पहले की है। जब टीवी की दुनिया में सिर्फ इकलौता सरकारी चैनल ही होता था "दूरदर्शन" । लोगों के पास और कोई विकल्प नहीं था। जो कार्यक्रम पसंद आता उसको देखते थे, नहीं आता तो समय का सदुपयोग किसी और काम में करते थे। अब एक ही चैनल था तो उसी पर समाचार, उसी पर धारावाहिक, उसी पर क्रिकेट मैच और उसी पर रविवार को हिंदी फीचर फिल्म आता था। फीचर क्या क्या मतलब होता है, ये न तो मुझे तब पता था और न ही अभी तक लग पाया है।
जो भी हो, घर में एक टेलीविजन होता था और घर के सारे सदस्य एक साथ बैठकर पसंदीदा कार्यक्रम देखते थे। बिजली की समस्या तो पहले बहुत ज्यादा ही थी। जब हमारे पसंदीदा कार्यक्रम के समय बिजली नहीं होती थी या फिर कार्यक्रम के बीच में चली जाती थी तो बिजली विभाग को जमकर कोसते थे। उसके बाद आया प्राइवेट चैनल का जमाना। अब तो इतने सारे चैनल आ गए और उनके इतने सारे कार्यक्रम कि लोग कन्फ्यूज हो गए कि क्या देखें और क्या छोड़े।
धारावाहिकों के लिए अलग चैनल, समाचार के लिए अलग, सिनेमा के लिए अलग, खेल के लिए अलग। ऐसे चैनलों की संख्या बढ़ती ही जा रही है दिनों दिन। ये चैनल दूरदर्शन से सिर्फ इस मामले में अलग नहीं थे कि वो सरकारी चैनल था और ये निजी चैनल। बल्कि दूरदर्शन एक मुफ्त चैनल था, उपभोक्ताओं को सरकार को कोई पैसा नहीं देना पड़ता था। सिर्फ एक टीवी और एंटीना, वोल्टेज स्टेबलाइजर खरीद लो और देखने लगो कार्यक्रम। लेकिन निजी चैनलों के कार्यक्रम को देखने के लिए केबल कनेक्शन लेना पड़ता था और इसके लिए केबल ऑपरेटर को प्रति माह कुछ निश्चित रकम देनी पड़ती थी।
अब आते हैं मुख्य मुद्दे पर। जब केबल के जरिए निजी चैनल देखे जाते थे तब कुछ बुद्धिजीवियों ने आवाज उठाई थी कि विदेशों में निजी चैनल अगर उपभोक्ताओं से पैसे लेते हैं तो फिर कार्यक्रमों के दौरान प्रचार नहीं दिखाते। प्रचार सिर्फ मुफ्त चैनल ही दिखाते हैं। ऐसी ही माँग हमारे देश में भी उठने लगी। जब आवाज बुलंद हुई तो चैनलों ने तर्क दिया कि केबल ऑपरेटर्स हमें उपभोक्ताओं की सही संख्या नहीं बताते हैं, मतलब कि ज्यादा कनेक्शन लगाते हैं और हमें कम बताते हैं और उसी के अनुसार हमें पैसे भी देते हैं। हमें सही कमाई नहीं हो रही है, इसलिए हमें अभी प्रचार दिखाने दिया जाए।
उसके बाद इस क्षेत्र में बड़ी क्रांति आई। डायरेक्ट टु होम (DTH) का जमाना आया। इसके लिए DTH सेवा प्रदाता कम्पनी का डिश एंटीना लगाने की जरूरत थी। कहा गया कि DTH कम्पनियाँ विभिन्न चैनलों को मिला कर अलग-अलग चैनल पैक बनायेगी और आपको जो पैक पसंद हो वही लीजिए और उसी के पैसे दीजिए। अभी तो आपको उन सभी चैनलों के पैसे भरने पड़ते हैं जो आप देखते भी नहीं। ये बात अलग यही कि उन दिनों जितने रूपए में सारे चैनल उपलब्ध थे उससे ज्यादा पैसे अभी देने पड़ते हैं कुछ चुने हुए चैनल देखने के लिए। जो डिश एंटीना नहीं लगवाना चाहते उनके लिए केबल के जरिए सेट टॉप बॉक्स लगवाकर केबल ऑपरेटर द्वारा चुने हुए चैनल देखने की सुविधा दी गई।
सेट टॉप बॉक्स के बड़े फायदे बताए गए। इनमें से एक फायदा ये भी था कि इससे चैनलों को अपने वास्तविक उपभोक्ताओं की संख्या जानने की सुविधा होगी और उनके साथ कोई धोखाधड़ी नहीं की जा सकेगी। डिजिटल प्रसारण के भी फायदे बताए गए कि इससे अच्छी पिक्चर क्वालिटी मिलेगी। मतलब कि निजी चैनलों ने अपनी कमाई की व्यवस्था पूरी तरह से चाक-चौबंद कर ली। लेकिन प्रचार दिखाने न दिखाने की बात किसी ने नहीं की अभी तक। दिल्ली में डिजिटल प्रसारण कई सालों से है। लेकिन इस तरफ किसी का ध्यान नहीं गया, या किसी ने भी ध्यान नहीं दिया।
निजी चैनल्स जमके प्रचार दिखा रहे हैं और सेवा शुल्क के रूप में अच्छे-खासे पैसे भी ले रहे हैं। जनता चुपचाप अपनी जेब खाली किए और इनकी भरे जा रही है। सरकार भी इस पर कुछ बोल नहीं रही है। कहने को तो प्रसार भारती भी है। लेकिन कभी इस बारे में किसी ने भी कुछ करने की जहमत नहीं उठाई। देर से ही सही लेकिन अब वक्त आ गया है कि इस दिशा में आवाज उठाई जाए। उपभोक्ताओं को ही पहल करनी पड़ेगी , क्योंकि सरकार को तो शायद याद भी नहीं है कि ऐसा कोई मुद्दा ही भी है हमारे देश में। और रही बात निजी चैनल्स की, तो वो अपने पाँव पर कुल्हाड़ी क्यों मारेगी ?
जो भी हो, घर में एक टेलीविजन होता था और घर के सारे सदस्य एक साथ बैठकर पसंदीदा कार्यक्रम देखते थे। बिजली की समस्या तो पहले बहुत ज्यादा ही थी। जब हमारे पसंदीदा कार्यक्रम के समय बिजली नहीं होती थी या फिर कार्यक्रम के बीच में चली जाती थी तो बिजली विभाग को जमकर कोसते थे। उसके बाद आया प्राइवेट चैनल का जमाना। अब तो इतने सारे चैनल आ गए और उनके इतने सारे कार्यक्रम कि लोग कन्फ्यूज हो गए कि क्या देखें और क्या छोड़े।
धारावाहिकों के लिए अलग चैनल, समाचार के लिए अलग, सिनेमा के लिए अलग, खेल के लिए अलग। ऐसे चैनलों की संख्या बढ़ती ही जा रही है दिनों दिन। ये चैनल दूरदर्शन से सिर्फ इस मामले में अलग नहीं थे कि वो सरकारी चैनल था और ये निजी चैनल। बल्कि दूरदर्शन एक मुफ्त चैनल था, उपभोक्ताओं को सरकार को कोई पैसा नहीं देना पड़ता था। सिर्फ एक टीवी और एंटीना, वोल्टेज स्टेबलाइजर खरीद लो और देखने लगो कार्यक्रम। लेकिन निजी चैनलों के कार्यक्रम को देखने के लिए केबल कनेक्शन लेना पड़ता था और इसके लिए केबल ऑपरेटर को प्रति माह कुछ निश्चित रकम देनी पड़ती थी।
अब आते हैं मुख्य मुद्दे पर। जब केबल के जरिए निजी चैनल देखे जाते थे तब कुछ बुद्धिजीवियों ने आवाज उठाई थी कि विदेशों में निजी चैनल अगर उपभोक्ताओं से पैसे लेते हैं तो फिर कार्यक्रमों के दौरान प्रचार नहीं दिखाते। प्रचार सिर्फ मुफ्त चैनल ही दिखाते हैं। ऐसी ही माँग हमारे देश में भी उठने लगी। जब आवाज बुलंद हुई तो चैनलों ने तर्क दिया कि केबल ऑपरेटर्स हमें उपभोक्ताओं की सही संख्या नहीं बताते हैं, मतलब कि ज्यादा कनेक्शन लगाते हैं और हमें कम बताते हैं और उसी के अनुसार हमें पैसे भी देते हैं। हमें सही कमाई नहीं हो रही है, इसलिए हमें अभी प्रचार दिखाने दिया जाए।
उसके बाद इस क्षेत्र में बड़ी क्रांति आई। डायरेक्ट टु होम (DTH) का जमाना आया। इसके लिए DTH सेवा प्रदाता कम्पनी का डिश एंटीना लगाने की जरूरत थी। कहा गया कि DTH कम्पनियाँ विभिन्न चैनलों को मिला कर अलग-अलग चैनल पैक बनायेगी और आपको जो पैक पसंद हो वही लीजिए और उसी के पैसे दीजिए। अभी तो आपको उन सभी चैनलों के पैसे भरने पड़ते हैं जो आप देखते भी नहीं। ये बात अलग यही कि उन दिनों जितने रूपए में सारे चैनल उपलब्ध थे उससे ज्यादा पैसे अभी देने पड़ते हैं कुछ चुने हुए चैनल देखने के लिए। जो डिश एंटीना नहीं लगवाना चाहते उनके लिए केबल के जरिए सेट टॉप बॉक्स लगवाकर केबल ऑपरेटर द्वारा चुने हुए चैनल देखने की सुविधा दी गई।
सेट टॉप बॉक्स के बड़े फायदे बताए गए। इनमें से एक फायदा ये भी था कि इससे चैनलों को अपने वास्तविक उपभोक्ताओं की संख्या जानने की सुविधा होगी और उनके साथ कोई धोखाधड़ी नहीं की जा सकेगी। डिजिटल प्रसारण के भी फायदे बताए गए कि इससे अच्छी पिक्चर क्वालिटी मिलेगी। मतलब कि निजी चैनलों ने अपनी कमाई की व्यवस्था पूरी तरह से चाक-चौबंद कर ली। लेकिन प्रचार दिखाने न दिखाने की बात किसी ने नहीं की अभी तक। दिल्ली में डिजिटल प्रसारण कई सालों से है। लेकिन इस तरफ किसी का ध्यान नहीं गया, या किसी ने भी ध्यान नहीं दिया।
निजी चैनल्स जमके प्रचार दिखा रहे हैं और सेवा शुल्क के रूप में अच्छे-खासे पैसे भी ले रहे हैं। जनता चुपचाप अपनी जेब खाली किए और इनकी भरे जा रही है। सरकार भी इस पर कुछ बोल नहीं रही है। कहने को तो प्रसार भारती भी है। लेकिन कभी इस बारे में किसी ने भी कुछ करने की जहमत नहीं उठाई। देर से ही सही लेकिन अब वक्त आ गया है कि इस दिशा में आवाज उठाई जाए। उपभोक्ताओं को ही पहल करनी पड़ेगी , क्योंकि सरकार को तो शायद याद भी नहीं है कि ऐसा कोई मुद्दा ही भी है हमारे देश में। और रही बात निजी चैनल्स की, तो वो अपने पाँव पर कुल्हाड़ी क्यों मारेगी ?
बुधवार, 1 जून 2016
कैसे कैसे टॉपर्स ?
1 जून, 2016
पिछले दिनों बिहार इंटरमीडिएट परीक्षा का रिजल्ट आया। हर बार की तरह इस बार भी बहुत से छात्र सफल हुए तो बहुत से असफल हुए। कुछ नया नहीं था परिणाम में। कला, विज्ञान एवं वाणिज्य, तीनो ही संकाय में छात्रों ने अपनी प्रतिभा को साबित किया। परीक्षा प्रणाली का एक फायदा होता है कि इसमें छात्रों की प्रतिभा को पूछे गए चंद सवालों से ही परखा जाता है। अगर आपको उन सवालों के सही जवाब आते हैं तो आप अच्छे विद्यार्थी हैं, नहीं आते तो आप अच्छे विद्यार्थी नहीं हैं।
माफ़ कीजिए, मैं अपने बयान को बदलना चाहूंगा। अगर आप उन सवालों के सही जवाब लिख देते हैं तो आप अच्छे विद्यार्थी हैं, नहीं लिखते तो आप अच्छे विद्यार्थी नहीं हैं। या फिर, दूसरे शब्दों में आप कह सकते हैं कि अगर आपको पूरे सिलेबस में से सिर्फ इन सवालों के सही जवाब के अलावा कुछ भी नहीं आता तो भी चलेगा, आप को ज्ञानी होने का प्रमाण पत्र मिल जाएगा। लेकिन अगर आपको पूरा सिलेबस कंठस्थ याद है, लेकिन इन चंद सवालों के जवाब नहीं पता तो आप असफल करार दिए जाएंगे।
इसको आप परीक्षा पद्धति की अच्छाई कहिये या बुराई, लेकिन सिर्फ यही पैमाना है किसी विषय में किसी छात्र की जानकारी को मापने का, उसके ज्ञान को मापने का। ऐसा ही कुछ हुआ है बिहार में। कला संकाय में सर्वाधिक अंक प्राप्त करने वाले परीक्षार्थी को मुबारकवाद देने गए थे मीडिया वाले, लेकिन उनको बैठे बिठाए मसाला मिल गया। उन्होंने परीक्षार्थी से उनके विषय पूछ लिए। अब अत्यधिक खुशी के कारण हो या फिर पहली बार कैमरे से सामने बोलने की झिझक के कारण, परीक्षार्थी बिलकुल ही नर्वस हो गई, और विषय के नाम का उच्चारण ठीक से नहीं कर पाई।
लो जी, अब तो मीडिया को अच्छा मौका मिल गया। झट से दूसरा सवाल भी पूछ लिया। बताइए कि इस विषय में क्या पढ़ाया जाता है। अब कितना भी परिश्रमी और तेज विद्यार्थी क्यों न हो, एक बार जब वो गलती कर देता है तो फिर उसकी मानसिक स्थिति बुरी तरह से प्रभावित हो जाती है। जवाब आया, "खाना बनाने की"। नर्वस होने पर होम साइंस और पोलिटिकल साइंस को एक समान समझने की भूल हो जाना सामान्य बात है। हममें से भी बहुत से लोगों के साथ हुआ होगा कि घर से तो पूरी तैयारी करके जाते हैं लेकिन जब भरी सभा में या फिर अजनबियों के सामने कुछ बोलना पड़ जाता है तो सिट्टी-पिट्टी गुम हो जाती है।
ये सामान्य बात है, लेकिन मीडिया को तो जैसे दिन भर दिखाने के लिए मुद्दा ही मिल गया। इसके बाद पहुँच गए विज्ञान संकाय के टॉपर के पास। उसकी भी इंटरव्यू ले ली। उनसे भी पूछ लिया कि सबसे अधिक सक्रिय तत्व क्या होता है। इसका जवाब वो नहीं दे पाए। फिर अपनी तरफ से बेहद आसान सा सवाल पूछ लिया कि सोडियम की वैलेन्सी बता दीजिए। ये भी नहीं बता पाये वो। वाणिज्य संकाय के टॉपर से शायद नहीं मिल पाए मीडिया वाले। या फिर उनके इंटरव्यू में कोई मसाला नहीं मिला होगा मीडिया वालों को । क्योंकि इस सम्बन्ध में कोई चर्चा नहीं है कहीं।
चर्चा अपनी जगह है और हकीकत अपनी जगह। अगर उन्होंने ऐसे जवाब नर्वसनेस के कारण दिए फिर तो ठीक है। लेकिन अगर उनके ज्ञान की वास्तविकता ही यही है, फिर तो बहुत ही चिंता की बात है बिहार की शिक्षा-व्यवस्था के लिए। विषयों की छोटी सी जानकारी न रखने वाले छात्र अगर परीक्षा में टॉप करते हैं, तो ऐसी परीक्षा की क्या विश्वनीयता रह जायेगी। पहले भी परीक्षाओं में नक़ल होने की कुछ घटनाओं के सामने आने के कारण छवि ख़राब हो चुकी है। सुना है कि इस सम्बन्ध में जांच के आदेश दे दिए गए हैं। शायद उन लोगों की पुनर्परीक्षा भी हो। जो भी हो, लेकिन बिहार की परीक्षाओं की विश्वसनीयता पर आंच लाने के लिए जो लोग भी दोषी हैं उनकी पहचान करके कठोर दण्ड दिया जाना चाहिए।
माफ़ कीजिए, मैं अपने बयान को बदलना चाहूंगा। अगर आप उन सवालों के सही जवाब लिख देते हैं तो आप अच्छे विद्यार्थी हैं, नहीं लिखते तो आप अच्छे विद्यार्थी नहीं हैं। या फिर, दूसरे शब्दों में आप कह सकते हैं कि अगर आपको पूरे सिलेबस में से सिर्फ इन सवालों के सही जवाब के अलावा कुछ भी नहीं आता तो भी चलेगा, आप को ज्ञानी होने का प्रमाण पत्र मिल जाएगा। लेकिन अगर आपको पूरा सिलेबस कंठस्थ याद है, लेकिन इन चंद सवालों के जवाब नहीं पता तो आप असफल करार दिए जाएंगे।
इसको आप परीक्षा पद्धति की अच्छाई कहिये या बुराई, लेकिन सिर्फ यही पैमाना है किसी विषय में किसी छात्र की जानकारी को मापने का, उसके ज्ञान को मापने का। ऐसा ही कुछ हुआ है बिहार में। कला संकाय में सर्वाधिक अंक प्राप्त करने वाले परीक्षार्थी को मुबारकवाद देने गए थे मीडिया वाले, लेकिन उनको बैठे बिठाए मसाला मिल गया। उन्होंने परीक्षार्थी से उनके विषय पूछ लिए। अब अत्यधिक खुशी के कारण हो या फिर पहली बार कैमरे से सामने बोलने की झिझक के कारण, परीक्षार्थी बिलकुल ही नर्वस हो गई, और विषय के नाम का उच्चारण ठीक से नहीं कर पाई।
लो जी, अब तो मीडिया को अच्छा मौका मिल गया। झट से दूसरा सवाल भी पूछ लिया। बताइए कि इस विषय में क्या पढ़ाया जाता है। अब कितना भी परिश्रमी और तेज विद्यार्थी क्यों न हो, एक बार जब वो गलती कर देता है तो फिर उसकी मानसिक स्थिति बुरी तरह से प्रभावित हो जाती है। जवाब आया, "खाना बनाने की"। नर्वस होने पर होम साइंस और पोलिटिकल साइंस को एक समान समझने की भूल हो जाना सामान्य बात है। हममें से भी बहुत से लोगों के साथ हुआ होगा कि घर से तो पूरी तैयारी करके जाते हैं लेकिन जब भरी सभा में या फिर अजनबियों के सामने कुछ बोलना पड़ जाता है तो सिट्टी-पिट्टी गुम हो जाती है।
ये सामान्य बात है, लेकिन मीडिया को तो जैसे दिन भर दिखाने के लिए मुद्दा ही मिल गया। इसके बाद पहुँच गए विज्ञान संकाय के टॉपर के पास। उसकी भी इंटरव्यू ले ली। उनसे भी पूछ लिया कि सबसे अधिक सक्रिय तत्व क्या होता है। इसका जवाब वो नहीं दे पाए। फिर अपनी तरफ से बेहद आसान सा सवाल पूछ लिया कि सोडियम की वैलेन्सी बता दीजिए। ये भी नहीं बता पाये वो। वाणिज्य संकाय के टॉपर से शायद नहीं मिल पाए मीडिया वाले। या फिर उनके इंटरव्यू में कोई मसाला नहीं मिला होगा मीडिया वालों को । क्योंकि इस सम्बन्ध में कोई चर्चा नहीं है कहीं।
चर्चा अपनी जगह है और हकीकत अपनी जगह। अगर उन्होंने ऐसे जवाब नर्वसनेस के कारण दिए फिर तो ठीक है। लेकिन अगर उनके ज्ञान की वास्तविकता ही यही है, फिर तो बहुत ही चिंता की बात है बिहार की शिक्षा-व्यवस्था के लिए। विषयों की छोटी सी जानकारी न रखने वाले छात्र अगर परीक्षा में टॉप करते हैं, तो ऐसी परीक्षा की क्या विश्वनीयता रह जायेगी। पहले भी परीक्षाओं में नक़ल होने की कुछ घटनाओं के सामने आने के कारण छवि ख़राब हो चुकी है। सुना है कि इस सम्बन्ध में जांच के आदेश दे दिए गए हैं। शायद उन लोगों की पुनर्परीक्षा भी हो। जो भी हो, लेकिन बिहार की परीक्षाओं की विश्वसनीयता पर आंच लाने के लिए जो लोग भी दोषी हैं उनकी पहचान करके कठोर दण्ड दिया जाना चाहिए।