18 मई, 2016
बाबा रामदेव जी आज किसी परिचय के मोहताज नहीं है। कितने ही सालों से वो योग के जरिए लोगों की काया को निरोग रखने में जुटे हैं। उसके बाद उन्होंने लोगों को आयुर्वेदिक दवाएं भी उपलब्ध करानी शुरू कर दी। और अब पिछले कुछ सालों से दैनिक उपयोग की वस्तुओं का भी निर्माण करने लगी है उनकी कंपनी। एक सच्चा भारतीय होने के नाते मैं बाबाजी का प्रबल समर्थक हूँ। जब उनके कारोबार को फलते फूलते देखता हूँ तो असीम आनंद की अनुभूति होती है मुझे। एक तो बाबा के सामानों में किसी प्रकार की मिलावट नहीं होती ( जैसा कि बाबा दावा करते हैं ) और दूसरे स्वदेशी कंपनी है। देश का पैसा देश में ही रहता है। अगर पैसे ही देने हैं तो अपने भाई को क्यों न दें जो दूसरे को दें।
आजकल बाबा घरेलु उपयोग की लगभग सारी ही चीजें बनाने लगे हैं। कुछ ही दिनों में इनका कारोबार FMCG क्षेत्र की बड़ी बड़ी कंपनियों से आगे निकल जायेगा ऐसा अख़बारों में लिखा देखा। एक अपने देश की कम्पनी की तरक्की देख सुनकर किस देशवासी का मन आह्लादित - प्रफ्फुलित नहीं होगा ? किसी भी कारोबार के फैलाव में सरकारी तंत्र का सहयोग न हो ऐसा हो नहीं सकता। हाँ, किसी सरकार का कम हो किसी का ज्यादा हो ऐसा तो हो सकता है। शुरू में तो बाबाजी के देश की सभी राजनीतिक पार्टियों से बड़े ही मधुर सम्बन्ध रहे। उनके आश्रम के उद्घाटन में बहुत से मुख्यमंत्रिओं ने शिरकत की थी। उसके बाद न जाने क्या हुआ कि बाबाजी केंद्र की यूपीए सरकार के बिलकुल ही खिलाफ हो गए। उसकी नीतियों की खुलकर एवं जोरदार खिलाफत करने लगे। बड़ी सारी जाँच भी हुई बाबाजी, उनके सहयोगी और उनकी कंपनी के खिलाफ। लेकिन कुछ खास नहीं निकला।
फिर बाबाजी 2014 के चुनाव में तो खुलकर भाजपा के समर्थन में बोलने लगे। काले धन की वापसी की उम्मीद उनको सिर्फ भाजपा से ही होने लगी। ऐसा लगने लगा कि बाबा कोई योगी, संत या कारोबारी ही नहीं बल्कि भाजपा के वरिष्ठ नेता हो गए हैं। सुना था कि जब देश पर संकट आता है तो साधु संत अपनी योग , तपस्या को छोड़कर देश की भलाई के काम में सहयोग करने लगते हैं। यही सोच कर बाबाजी का झुकाव राजनीति या फिर किसी खास राजनीतिक पार्टी के प्रति होने के बावजूद लोगों का मोह बाबा जी से भंग नहीं हुआ। लेकिन अब जबकि बाबाजी को लगने लगा है कि देश सुरक्षित हांथो में पहुँच गया है। सत्ता की बागडोर ऐसे लोगों के हाथ में हैं जिनपर बाबाजी को पूरा भरोसा है। या यूँ कहिये कि बाबाजी की मनपसंद सरकार बन गयी है।
तो अब बाबाजी को चाहिए कि राजनीतिक बयान देने बंद कर दें। यही देश की अर्थव्यवस्था और जनता के हित में होगा। संत या कलाकार किसी एक वर्ग के नहीं होते। ये दिलों पर राज करते हैं। इनको किसी खास वर्ग का होकर नहीं रह जाना चाहिए। अगर बाबा अभी भी भाजपा के नेता की तरह बर्ताव करते हैं तो दूसरी राजनीतिक दलों के समर्थक या मतदाता क्या करेंगे ? जाहिर सी बात है कि बाबाजी से दूरी बना लेंगे। हो सकता है कि बाबा के विरोध में वो लोग योग करना ही बंद कर दें। इससे उनकी काया निरोग रह पायेगी ? फिर वो उन्ही डाक्टर के पास जायेंगे और वही एलोपैथिक दवाई खाएंगे जिसका साइड इफेक्ट भी होता है। फिर बाबा की आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति के प्रचार की मुहिम का क्या होगा ?
हो सकता है ऐसे लोग बाबा के सामान भी खरीदना बंद कर दें , फिर इनके कारोबार में कमी आएगी न ? ये लोग बहुराष्ट्रीय कम्पनी का सामान खरीदने लगेंगे तो बाबा की स्वदेशी मुहिम का क्या होगा ? देश का पैसा देश में रह पाएगा ? इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए बाबाजी को चाहिए कि अब राजनीति या राजनीतिक पार्टियों से दूर रहे और लोगों को निरोग करने में , अपनी कम्पनी के विस्तार में ध्यान दें। बेशक अगले आम चुनाव में फिर से किसी के लिए प्रचार करने लगे। लेकिन अब जबकि बाबा राजनीति में इतनी गहराई में घुस चुके हैं , उनके लिए ऐसा कर पाना मुमकिन होगा क्या ?
आजकल बाबा घरेलु उपयोग की लगभग सारी ही चीजें बनाने लगे हैं। कुछ ही दिनों में इनका कारोबार FMCG क्षेत्र की बड़ी बड़ी कंपनियों से आगे निकल जायेगा ऐसा अख़बारों में लिखा देखा। एक अपने देश की कम्पनी की तरक्की देख सुनकर किस देशवासी का मन आह्लादित - प्रफ्फुलित नहीं होगा ? किसी भी कारोबार के फैलाव में सरकारी तंत्र का सहयोग न हो ऐसा हो नहीं सकता। हाँ, किसी सरकार का कम हो किसी का ज्यादा हो ऐसा तो हो सकता है। शुरू में तो बाबाजी के देश की सभी राजनीतिक पार्टियों से बड़े ही मधुर सम्बन्ध रहे। उनके आश्रम के उद्घाटन में बहुत से मुख्यमंत्रिओं ने शिरकत की थी। उसके बाद न जाने क्या हुआ कि बाबाजी केंद्र की यूपीए सरकार के बिलकुल ही खिलाफ हो गए। उसकी नीतियों की खुलकर एवं जोरदार खिलाफत करने लगे। बड़ी सारी जाँच भी हुई बाबाजी, उनके सहयोगी और उनकी कंपनी के खिलाफ। लेकिन कुछ खास नहीं निकला।
फिर बाबाजी 2014 के चुनाव में तो खुलकर भाजपा के समर्थन में बोलने लगे। काले धन की वापसी की उम्मीद उनको सिर्फ भाजपा से ही होने लगी। ऐसा लगने लगा कि बाबा कोई योगी, संत या कारोबारी ही नहीं बल्कि भाजपा के वरिष्ठ नेता हो गए हैं। सुना था कि जब देश पर संकट आता है तो साधु संत अपनी योग , तपस्या को छोड़कर देश की भलाई के काम में सहयोग करने लगते हैं। यही सोच कर बाबाजी का झुकाव राजनीति या फिर किसी खास राजनीतिक पार्टी के प्रति होने के बावजूद लोगों का मोह बाबा जी से भंग नहीं हुआ। लेकिन अब जबकि बाबाजी को लगने लगा है कि देश सुरक्षित हांथो में पहुँच गया है। सत्ता की बागडोर ऐसे लोगों के हाथ में हैं जिनपर बाबाजी को पूरा भरोसा है। या यूँ कहिये कि बाबाजी की मनपसंद सरकार बन गयी है।
तो अब बाबाजी को चाहिए कि राजनीतिक बयान देने बंद कर दें। यही देश की अर्थव्यवस्था और जनता के हित में होगा। संत या कलाकार किसी एक वर्ग के नहीं होते। ये दिलों पर राज करते हैं। इनको किसी खास वर्ग का होकर नहीं रह जाना चाहिए। अगर बाबा अभी भी भाजपा के नेता की तरह बर्ताव करते हैं तो दूसरी राजनीतिक दलों के समर्थक या मतदाता क्या करेंगे ? जाहिर सी बात है कि बाबाजी से दूरी बना लेंगे। हो सकता है कि बाबा के विरोध में वो लोग योग करना ही बंद कर दें। इससे उनकी काया निरोग रह पायेगी ? फिर वो उन्ही डाक्टर के पास जायेंगे और वही एलोपैथिक दवाई खाएंगे जिसका साइड इफेक्ट भी होता है। फिर बाबा की आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति के प्रचार की मुहिम का क्या होगा ?
हो सकता है ऐसे लोग बाबा के सामान भी खरीदना बंद कर दें , फिर इनके कारोबार में कमी आएगी न ? ये लोग बहुराष्ट्रीय कम्पनी का सामान खरीदने लगेंगे तो बाबा की स्वदेशी मुहिम का क्या होगा ? देश का पैसा देश में रह पाएगा ? इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए बाबाजी को चाहिए कि अब राजनीति या राजनीतिक पार्टियों से दूर रहे और लोगों को निरोग करने में , अपनी कम्पनी के विस्तार में ध्यान दें। बेशक अगले आम चुनाव में फिर से किसी के लिए प्रचार करने लगे। लेकिन अब जबकि बाबा राजनीति में इतनी गहराई में घुस चुके हैं , उनके लिए ऐसा कर पाना मुमकिन होगा क्या ?
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