मंगलवार, 31 मई 2016
31 मई, 2016
जी हाँ, दिल्ली सरकार ने वैट रजिस्ट्रेशन की प्रक्रिया अब बिलकुल आसान कर दी है। दरअसल पिछले कुछ दिनों से दिल्ली सरकार विभिन्न तरीके से लोगों को खरीदारी के साथ वैट वाली बिल को लेने के लिए प्रोत्साहित कर रही है। उसके बाद एक इनामी योजना भी शुरू की गई। इसके लिए बाकायदा एक मोबाईल ऐप बनाया गया। लोगों से कहा गया कि कुछ भी खरीदें तो वैट वाला बिल जरूर लें। फिर बिल की फोटो खींच कर उस ऐप के जरिए अपलोड करने को कहा गया। निश्चित अंतराल पर इन बिल धारकों का लकी ड्रा निकाला जाता है और भाग्यशाली लोगों को इनाम दिया जाता है।
इससे लोगों में बिल लेने की प्रतिस्पर्धा शुरू हो गयी और यह योजना बहुत सफल हो रही है । जाहिर सी बात है कि इसके पीछे सरकार का मकसद वैट की चोरी को रोकना एवं टैक्स कलेक्शन को बढ़ाना ही रहा होगा। लेकिन इस योजना से टैक्स चोरों की नींद हराम हो गयी। सोशल मीडिया में कुछ लोग मनगढंत कहानी भी सुनाने लगे कि लोग इनाम के चक्कर में छोटे व्यापारियों से भी वैट वाला बिल मांगने लगे हैं। ये गरीब लोग वैट नंबर कैसे लेंगे। कुल मिलाकर इनकी योजना इस बिल-इनाम योजना की हवा निकालनी थी।
लेकिन उनको ये नहीं पता था कि ये सरकार किसी दबाव या लॉबिंग से झुकने वाली नहीं है। और झुके भी क्यों ? जनता का प्रचण्ड आशीर्वाद जो मिला है वोट के रूप में। अब सरकार ने वैट रजिस्ट्रेशन के लिए आसान तरीका निकाल दिया है। DVAT MSewa नामक मोबाईल ऐप को आज दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल जी द्वारा लांच किया गया। इसके जरिए ऑनलाइन फॉर्म भरने की जरूरत है। वैट-इन्स्पेक्टर को व्यवसाय परिसर का दौरा करने की भी जरूरत नहीं होगी। व्यवसायी को सिर्फ इस ऐप के जरिए व्यवसाय परिसर की फोटो अपलोड करनी होगी ।
प्रयास यही रहेगा कि ऑनलाइन फॉर्म जमा करने के 24 घंटे के अंदर ही वैट रजिस्ट्रेशन हो जाए। दिल्ली सरकार का यह कदम व्यवसायी वर्ग के लिए निश्चित रूप से सुखद है।
ऐसे तो दिल्ली कभी पूर्ण राज्य नहीं बन पायेगी
5/31/2016 08:40:00 am
अजय माकन, केजरीवाल, दिल्ली पूर्ण राज्य, दिल्ली सरकार, राजनीति, विजय गोयल
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31 मई, 2016
सुना है दिल्ली, बहुतों बार बदली। अभी भी बदल रही है। पहले दिल्ली केंद्र-शासित प्रदेश थी, फिर इसको राज्य बनाया गया। अब इसको पूर्ण राज्य बनाने की बात हो रही है। शायद जब से दिल्ली राज्य बनी है, तभी से इसकी मांग हो रही है। हर राजनीतिक पार्टी अपने चुनावी घोषणा पत्र में इसको पूर्ण राज्य बनाने का वादा करती है, फिर जब सत्ता में आती है तो इसको भूल जाती है। कोई याद भी दिलाता है तो कुछ बहाने बना देती है। बहाने भी ऐसे कि जिसकी राज्य सरकार होती है वो कहते हैं कि केंद्र इस पर गम्भीर नहीं है।
जब केंद्र और राज्य में अलग-अलग दलों की सरकार हो तब तो ऐसी बात थोड़ी उचित भी प्रतीत होती है। लेकिन 2004 से 2014 तक जब केंद्र में कांग्रेस-नीत यूपीए की सरकार थी तब उसी दौरान दिल्ली में भी कांग्रेस की ही सरकार थी। उस दौरान अगर राज्य सरकार इस मुद्दे पर गम्भीर होती तो दिल्ली कब का पूर्ण राज्य बन गयी होती। इससे साफ़ पता चलता है कि इस मुद्दे पर सिर्फ राजनीति कर रहे हैं कांग्रेस और भाजपा वाले। अभी कानून-व्यवस्था और जमीन से सम्बंधित विभाग उप-राज्यपाल महोदय के माध्यम से संचालित किए जाते हैं। पूर्ण राज्य होने के बाद ये सब भी राज्य सरकार के अंतर्गत आ जाएँगे जिससे राज्य सरकार को विधि व्यवस्था सँभालने में आसानी होगी।
आज जब आम आदमी पार्टी की सरकार दिल्ली में बनी है तो इस मुद्दे पर सरकार गम्भीर दिख रही है। सरकार की गम्भीरता का पता इसी बात से लग जाता है कि दिल्ली सरकार ने पूर्ण राज्य के दर्जे से सम्बंधित बिल का ड्राफ्ट भी तैयार कर लिया है। ये भाजपा और कांग्रेस वाले खुद तो इस दिशा में कुछ ठोस कर नहीं पाए और अब जब दिल्ली सरकार ने ये बिल तैयार कर लिया है तो लगे बेतुकी बयानबाजी करने। भाजपा के नेता विजय गोयल जी कह रहे हैं कि ये ओड-इवन - 2 की असफलता से ध्यान हटाने के लिए नया ड्रामा किया गया है।
कांग्रेस के अजय माकन जी भी पीछे नहीं हैं, कह रहे हैं कि 15 महीने तक इस मुद्दे पर चुप क्यूँ रही दिल्ली सरकार। आप तो 15 साल तक चुप थे माकन जी। वैसे भी बिल का ड्राफ्ट 1 दिन में नहीं बन जाता। चुनावी घोषणापत्र में तो दोनों ही पार्टियों ने दिल्ली को पूर्ण राज्य को दर्ज दिलवाने की बात कही थी। 2003, 2008, 2013 और 2015 के चुनावी घोषणापत्र में भाजपा ने इसको अपने टॉप एजेंडे में रखा था। 1998 में तो भाजपा ने इसका बिल भी बना लिया था। तो अब इसका विरोध क्यों ? जब इस बात के समर्थन में ही नहीं थे तो जनता से झूठे वादे क्यों किये कांग्रेस और भाजपा ने ?
ये दोनों पार्टियां पहले भी इस मुद्दे पर राजनीति कर रही थी और आज भी वही कर रही है। लगता है कि इनको दिल्ली की सुख-सुविधा की कोई फ़िक्र नहीं है। दिल्ली में अपराध की कोई घटना होगी तो कोसने लगेंगे केजरीवाल सरकार को और जब दिल्ली पुलिस को राज्य सरकार के अधीन लाने की बात हो तो इसका भी विरोध करेंगे ये दोनों। सहयोग की राजनीति तो करना ही नहीं चाहती कांग्रेस और भाजपा। उम्मीद है कि ये बिल विधानसभा से पास भी हो जायेगा। लेकिन क्या ये बिल उप-राज्यपाल साहब द्वारा पास किया जाएगा ?
सोमवार, 30 मई 2016
ऐसी नौबत क्यूँ आई बिहार में ?
5/30/2016 11:06:00 pm
बिहार, बिहार सरकार, रिजल्ट
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30 मई, 2016
बिहार में 10वीं कक्षा का रिजल्ट कल ही आया है। एक दैनिक समाचार पत्र के मुताबिक आधा से ज्यादा छात्र असफल रहे। बड़े ही दुःख की बात है। ऐसा प्रदेश जहाँ विश्व का प्राचीन विश्वविद्यालय नालंदा में रहा हो। जहाँ बड़े -बड़े लोगों को ज्ञान की प्राप्ति हुई हो, उस प्रदेश के लिए निश्चित तौर पर ये चिंता की बात है। राज्य के शिक्षा मंत्री जी कहते हैं कि इस रिजल्ट से छात्रों की असली प्रतिभा सामने आई है। तो इतने प्रतिशत छात्र ही प्रतिभाशाली क्यों हैं, मंत्री जी ? पहले तो परीक्षा परिणाम बहुत अच्छे होते थे। राज्य में शिक्षा का स्तर अचानक से कम क्यों हो गया ? क्या राज्य सरकार के स्कूलों में शिक्षण कार्य ठीक से नहीं हो रहा है ? या फिर बच्चे मन लगाकर नहीं पढ़ रहे हैं ?
इस विषय में क्या सरकार का या फिर स्कूलों का कोई दायित्व नहीं है ? बिहार में भी मशरूम की तरह कोचिंग इंस्टिट्यूट खुल गए हैं। ये फीस भी अच्छी-खासी लेते हैं। जिस कोचिंग का जितना नाम उतनी ही ज्यादा फीस। रिजल्ट के 2 - 4 दिन के अंदर ही कोचिंग इंस्टिट्यूट वाले अपने सफल छात्रों की सूची उनके फोटो या बिना फोटो के बड़े ही गर्व के साथ अंक एवं डिवीजन सहित शहर की दीवारों पर चिपकवा देते हैं। ताकि लोगों को लगे कि यहाँ बहुत अच्छी पढाई होती है। अब, इन छात्रों की सफलता में कोचिंग इंस्टिट्यूट का कितना योगदान होता है, ये भी चर्चा का ही विषय है।
जब ये कोचिंग इंस्टिट्यूट वाले सफल छात्रों की सफलता का श्रेय लेते हुए अपना प्रचार करते हैं, तो इस बार जिन छात्रों को असफलता मिली है, उसकी जिम्मेदारी लेंगे ? शायद ही कोई छात्र होगा जो कोचिंग या ट्यूशन नहीं पढता होगा। वर्ना लगभग सभी अभिभावक अपनी आर्थिक क्षमता के अनुसार अपने बच्चों को ट्यूशन दिलवाते हैं। उनके उज्जवल भविष्य की चिंता जो होती है उनको। तो क्या इन ट्यूशन देने वालों और कोचिंग इंस्टिट्यूट वालों की कोई जिम्मेदारी नहीं है ? क्या सिर्फ पैसे कमाने से मतलब है इनको ?
इस विषय में क्या सरकार का या फिर स्कूलों का कोई दायित्व नहीं है ? बिहार में भी मशरूम की तरह कोचिंग इंस्टिट्यूट खुल गए हैं। ये फीस भी अच्छी-खासी लेते हैं। जिस कोचिंग का जितना नाम उतनी ही ज्यादा फीस। रिजल्ट के 2 - 4 दिन के अंदर ही कोचिंग इंस्टिट्यूट वाले अपने सफल छात्रों की सूची उनके फोटो या बिना फोटो के बड़े ही गर्व के साथ अंक एवं डिवीजन सहित शहर की दीवारों पर चिपकवा देते हैं। ताकि लोगों को लगे कि यहाँ बहुत अच्छी पढाई होती है। अब, इन छात्रों की सफलता में कोचिंग इंस्टिट्यूट का कितना योगदान होता है, ये भी चर्चा का ही विषय है।
जब ये कोचिंग इंस्टिट्यूट वाले सफल छात्रों की सफलता का श्रेय लेते हुए अपना प्रचार करते हैं, तो इस बार जिन छात्रों को असफलता मिली है, उसकी जिम्मेदारी लेंगे ? शायद ही कोई छात्र होगा जो कोचिंग या ट्यूशन नहीं पढता होगा। वर्ना लगभग सभी अभिभावक अपनी आर्थिक क्षमता के अनुसार अपने बच्चों को ट्यूशन दिलवाते हैं। उनके उज्जवल भविष्य की चिंता जो होती है उनको। तो क्या इन ट्यूशन देने वालों और कोचिंग इंस्टिट्यूट वालों की कोई जिम्मेदारी नहीं है ? क्या सिर्फ पैसे कमाने से मतलब है इनको ?
मुझे याद है जब मैं 10वीं कक्षा में था तो हमारे स्कूल के एक शिक्षक कहा करते थे कि उनके छात्र जीवन के काल में शायद ही कोई छात्र ट्यूशन पढता था। कोचिंग का तो नामो- निशान ही नहीं था। सभी छात्र खुद से ही परिश्रम किया करते थे। मास्टर जी ने स्कूल में जो पढ़ा दिया उसी को अच्छे से समझ लेते थे, न समझ आये तो फिर से पूछ लेते थे। आजकल ट्यूशन या कोचिंग पढ़ने वालों को ऊँची नजर से देखा जाता है, उन दिनों जो अपने से पढता था उसको अच्छा समझा जाता था। खैर, अब तो वैसे गुरु और शिष्य बिरले ही मिलते हैं।
जीवन में सफलता और असफलता तो लगी रहती है। लेकिन जरूरत इस बात की है कि इसके कारणों को चिन्हित किया जाए और दूर किया जाए। ताकि अगली बार से इसकी पुनरावृति नहीं हो सके। यह बात छात्र के लिए भी लागू होती है, अभिभावकों के लिए भी, शिक्षकों के लिए भी और सरकार के लिए भी।
जीवन में सफलता और असफलता तो लगी रहती है। लेकिन जरूरत इस बात की है कि इसके कारणों को चिन्हित किया जाए और दूर किया जाए। ताकि अगली बार से इसकी पुनरावृति नहीं हो सके। यह बात छात्र के लिए भी लागू होती है, अभिभावकों के लिए भी, शिक्षकों के लिए भी और सरकार के लिए भी।
शनिवार, 28 मई 2016
आरक्षण कभी ख़त्म हो पाएगा ?
28 मई , 2016
यूँ तो आरक्षण को लेकर हमेशा थोड़े-थोड़े दिनों पर चर्चा चलती रहती है, लेकिन इस बार अंकित श्रीवास्तव का मामला सोशल मीडिया में आने के बाद इस पर फिर से चर्चा छिड़ गयी है। क्या आरक्षण जाति-आधारित होना चाहिए ? क्या इसको आर्थिक-स्तर आधारित कर देना चाहिए ? या फिर इसको पूरी तरह ख़त्म कर देना चाहिए ? सिर्फ योग्यता को ही आधार माना जाये, जो जिस योग्य हो वैसी नौकरी करे, वैसी शिक्षा प्राप्त करे। एक बात मैं पहले ही सार्वजनिक कर दूँ कि मैं अंकित श्रीवास्तव को व्यक्तिगत तौर पर नहीं जानता हूँ, सिर्फ सोशल मीडिया के माध्यम से ही जानता हूँ। ताकि मुझ पर पूर्वाग्रह से ग्रस्त होने का आरोप न लगे। हमारी और उनकी जाति या सरनेम का समान होना, मात्र एक संयोग से ज्यादा कुछ नहीं है।
अब आते हैं वापस मुद्दे पर। कहा जाता है कि संविधान में आरक्षण की व्यवस्था सिर्फ 10 साल के लिए ही थी । लेकिन उसके बाद जितनी भी सरकारें आई, इस को आगे बढाती चली गयी। वर्तमान समय में केंद्रीय सरकार की नौकरी के लिए जाति-आधारित आरक्षण कुछ इस प्रकार से है। अनुसूचित जनजातियों के लिए 7.5%, अनुसूचित जातियों के लिए 15% एवं अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए 27%, मतलब कुल 49.5% सीटें आरक्षित हैं । जो लोग इनमें से किसी वर्ग में नहीं आते उनकी प्रतिस्पर्धा बाकि बचे 50.5% सीटों में होगी, जो लोग इस वर्ग में आते हैं उनकी प्रतिस्पर्धा उनके वर्ग के लिए आरक्षित सीटों के साथ साथ 50.5% सीटों में भी होगी। राज्यों में अलग तरह की व्यवस्था हो सकती है। कुछ अलग तरह के आरक्षण भी हैं , जैसे विकलांग कोटा, भूतपूर्व सैनिक कोटा, कुछ राज्य में शायद सिंगल गर्ल चाइल्ड कोटा भी है।
समय-समय पर इन आरक्षित वर्गों में नयी-नयी जातियों को शामिल करने की मांग भी की जाती रहती है। पिछले दिनों हरियाणा में जाटों को आरक्षण दिए जाने की मांग को लेकर बड़ा आंदोलन भी हुआ था। जिसमें बड़े पैमाने पर हिंसा, लूटपाट और आगजनी की खबर भी आई थी। यहाँ तक कि दिल्ली में पानी भेजने वाली नहर को भी बंद कर दिया था आंदोलनकारियों ने। इसके परिणामस्वरूप दिल्ली में गम्भीर पानी संकट हो गया था।
समय-समय पर इन आरक्षित वर्गों में नयी-नयी जातियों को शामिल करने की मांग भी की जाती रहती है। पिछले दिनों हरियाणा में जाटों को आरक्षण दिए जाने की मांग को लेकर बड़ा आंदोलन भी हुआ था। जिसमें बड़े पैमाने पर हिंसा, लूटपाट और आगजनी की खबर भी आई थी। यहाँ तक कि दिल्ली में पानी भेजने वाली नहर को भी बंद कर दिया था आंदोलनकारियों ने। इसके परिणामस्वरूप दिल्ली में गम्भीर पानी संकट हो गया था।
यह सत्य है कि आरक्षित जातियों का बहुत बड़ा वोट बैंक है। समय-समय पर यह आरोप लगता रहता है कि इस वोट बैंक को नाराज न करने के लिए ही कोई भी सरकार जाति-आधारित आरक्षण को ख़त्म करने की पहल नहीं करती। जहाँ तक मैं समझता हूँ, नौकरी में आरक्षण, समाज में आर्थिक विषमता को दूर करने के लिए दी जाती है। लेकिन गरीबी तो जाति देखकर नहीं आती। किसी भी जाति का व्यक्ति गरीब हो सकता है या अमीर हो सकता है। आरक्षित जाति के अंतर्गत भी कुछ लोग बहुत अमीर हैं , लेकिन वो भी आरक्षण का लाभ लेने से नहीं चूकते। ये कहाँ का न्याय है कि अनारक्षित वर्ग का गरीब 50.5% सीट के अंतर्गत संघर्ष करता रहता है , और कई बार आरक्षित वर्ग के अमीर आरक्षण का फायदा उठाकर बाजी मार लेते हैं।
जाति-आधारित आरक्षण के समर्थकों के भी अपने तर्क हैं। नेता लोग कहते हैं कि भाई इन जातियो के लोगों की गरीबी अभी पूरी तरह ख़त्म नहीं हुई है। इनकी जाति में अभी भी बहुत से लोगों का जीवन स्तर दयनीय हालत में है। इसलिए इनको आरक्षण दिया जाए। कुछ लोग कहते हैं कि भाई आरक्षण दो , लेकिन उनको दो जिनको इसकी जरूरत है। मतलब कि जो गरीब हैं उनकी आर्थिक स्थिति अच्छी करने के लिए दो, चाहे वो किसी भी जाति या वर्ग के हों। जिन लोगों को आरक्षण नहीं मिल रहा उनमें से कुछ लोग इसको पूरी तरह से ख़त्म करने की बात करते हैं। उनका कहना है कि सबको समान अवसर प्रदान करो। सबके लिए स्कूल, कालेज खोल दो, मुफ्त शिक्षा दो। लेकिन सिर्फ और सिर्फ योग्यता को ही महत्त्व दो। इससे सेवा-कार्य में योग्य लोग ही आ पाएंगे और सेवा की गुणवत्ता भी अच्छी बनी रहेगी।
अब सरकार क्या करे ? उसको तो सभी वर्गों का ख्याल रख के चलना है। राजनीतिक पार्टियों को तो अपने वोट बैंक का ख्याल रख के चलना है। और जनता, जनता का हाल न पूछिए, उ त जो है उ हइए है। निकट भविष्य में तो ऐसी सम्भावना तो दूर दूर तक नहीं दिखती कि आरक्षण ख़त्म होगा या फिर इसकी संरचना में कोई बदलाव आएगा।
अब सरकार क्या करे ? उसको तो सभी वर्गों का ख्याल रख के चलना है। राजनीतिक पार्टियों को तो अपने वोट बैंक का ख्याल रख के चलना है। और जनता, जनता का हाल न पूछिए, उ त जो है उ हइए है। निकट भविष्य में तो ऐसी सम्भावना तो दूर दूर तक नहीं दिखती कि आरक्षण ख़त्म होगा या फिर इसकी संरचना में कोई बदलाव आएगा।
मंगलवार, 24 मई 2016
क्या राजनीति इस स्तर तक गिरेगी ?
24 मई, 2016
आज कल राजनीति में नैतिकता की कमी कर रहे हैं कुछ लोग। बेवजह के आरोप, निजी और भद्दी टिप्पणियाँ करने लगे हैं अपने प्रतिद्वंदी नेताओं पर। क्या इसी तरह की राजनीति होगी विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र में ? हमारे लोकतांत्रिक पद्धति से विश्व के दूसरे लोग सीखने आते हैं और हमारे यहाँ क्या हो रहा है ? क्या ऐसी क्षुद्रता के लिए कोई जगह होनी चाहिए राजनीति जैसी पाक एवं पवित्र व्यवस्था में ? पिछले कुछ सालों से या फिर यूँ कहिये कि जबसे सोशल मीडिया का चलन शुरू हुआ है, कुछ लोग कुछ भी बोलने लगे हैं। सोचते भी नहीं कि क्या बोल रहे हैं।
बस लिख देते हैं कुछ भी फेसबुक पर, टवीटर पर, या फिर व्हाट्सप्प पर और कुछ लोग लग जाते हैं इसको शेयर करने में, बिना इसकी अच्छाई बुराई को ध्यान में रखे। मतलब कि कुछ न कुछ लिखना ही है। नैतिक और अनैतिक का कुछ भी ध्यान नहीं रखते ऐसे लोग। पहले ऐसा नहीं होता था। राजनीतिक पार्टियों के नेता दूसरी पार्टियों से मतभेद होने के बावजूद उनके नेताओं के लिए सम्मानजनक शब्दों का प्रयोग करते थे। कार्यकर्त्ता भी मर्यादा का ध्यान रखते थे। पर अब तो जैसे वो जमाना ही नहीं रहा। लोगों की जुबान फिसलने लगी है और कलम भी। की - बोर्ड तो ज्यादा ही फिसलने लगी है। खुजलीवाल, तड़ीपार, पप्पू, कलुआ आदि, क्या इस तरह के शब्दों का प्रयोग होगा अपने राजनीतिक विरोधियों के लिए ? ये किसी उत्कृष्ट मानसिकता का काम हो ही नहीं सकता।
जबसे 5 राज्यों की विधानसभा चुनाव के परिणाम आये हैं, सोशल मीडिया में गजब ही हो रहा है। असम की एक विधायिका की निजी तस्वीरें धड़ल्ले से सोशल मीडिया में वायरल हो रही है। उनके चरित्र के बारे में भी तरह तरह की बातें लिख रहे हैं कुछ लोग। सुना है कि ये विधायिका असमिया फिल्मों की सफल अभिनेत्री भी रह चुकी हैं। हो सकता है कि ये सब तस्वीरें उनकी फिल्मों के किसी दृश्य में से लिए गए हों। नए - नए प्रकट हुए न्यूज़ पोर्टल्स को तो शायद ऐसी खबरों की तलाश ही रहती है। खूब चटखारे लेकर उनकी तस्वीरों को अपने पोर्टल पर दिखा रहे हैं कुछ न्यूज़ पोर्टल वाले। आखिर इन सब हरकतों से क्या साबित करना चाहते हैं ये लोग ? क्या किसी को इस तरह से किसी के चरित्र हनन की छूट दी जा सकती है ? किसी की निजी तस्वीरों को विश्व भर में पहुँच वाले मंच पर साझा करने को कैसे उचित ठहराया जा सकता है ? सुना है कि जो तस्वीरें उनकी बता कर वायरल की जा रही है, उनमे से कुछ तो उनकी है भी नहीं । जो तस्वीर इस लेख में लगाई गयी है वह भी उनकी ही बता कर इंटरनेट पर लोड की हुई है, पता नहीं सच क्या है ?
क्या हक़ है किसी की निजी जिंदगी में दूसरों को ताक झाँक करने का ? आश्चर्य है कि ऐसी हरकतों के विरोध में कोई राजनीतिक पार्टी सामने नहीं आई है। बताया जाता है कि ये नेत्री भाजपा से सम्बंधित हैं तो भाजपा वाले तो ऐसा करेंगे नहीं, ऐसी उम्मीद करता हूँ। आम आदमी पार्टी ऐसी चरित्र हनन के कार्यों से कोसों दूर रहती है। फिर किस पार्टी से सम्बंधित हैं ऐसे लोग जो ऐसी हरकत कर रहे हैं ? अगर किसी ने राजनीतिक दल की सदस्यता ले ली तो क्या उसकी निजी जिंदगी नहीं रह जाती ? उसको हँसने, खेलने और मौज मनाने का कोई हक़ नहीं ? चाहे जो कोई हो इसके पीछे, इस तरह की हरकतें पूरी तरह से निंदनीय है। ऐसी हरकतों की जितनी भी निंदा की जाए, कम है।
बस लिख देते हैं कुछ भी फेसबुक पर, टवीटर पर, या फिर व्हाट्सप्प पर और कुछ लोग लग जाते हैं इसको शेयर करने में, बिना इसकी अच्छाई बुराई को ध्यान में रखे। मतलब कि कुछ न कुछ लिखना ही है। नैतिक और अनैतिक का कुछ भी ध्यान नहीं रखते ऐसे लोग। पहले ऐसा नहीं होता था। राजनीतिक पार्टियों के नेता दूसरी पार्टियों से मतभेद होने के बावजूद उनके नेताओं के लिए सम्मानजनक शब्दों का प्रयोग करते थे। कार्यकर्त्ता भी मर्यादा का ध्यान रखते थे। पर अब तो जैसे वो जमाना ही नहीं रहा। लोगों की जुबान फिसलने लगी है और कलम भी। की - बोर्ड तो ज्यादा ही फिसलने लगी है। खुजलीवाल, तड़ीपार, पप्पू, कलुआ आदि, क्या इस तरह के शब्दों का प्रयोग होगा अपने राजनीतिक विरोधियों के लिए ? ये किसी उत्कृष्ट मानसिकता का काम हो ही नहीं सकता।
जबसे 5 राज्यों की विधानसभा चुनाव के परिणाम आये हैं, सोशल मीडिया में गजब ही हो रहा है। असम की एक विधायिका की निजी तस्वीरें धड़ल्ले से सोशल मीडिया में वायरल हो रही है। उनके चरित्र के बारे में भी तरह तरह की बातें लिख रहे हैं कुछ लोग। सुना है कि ये विधायिका असमिया फिल्मों की सफल अभिनेत्री भी रह चुकी हैं। हो सकता है कि ये सब तस्वीरें उनकी फिल्मों के किसी दृश्य में से लिए गए हों। नए - नए प्रकट हुए न्यूज़ पोर्टल्स को तो शायद ऐसी खबरों की तलाश ही रहती है। खूब चटखारे लेकर उनकी तस्वीरों को अपने पोर्टल पर दिखा रहे हैं कुछ न्यूज़ पोर्टल वाले। आखिर इन सब हरकतों से क्या साबित करना चाहते हैं ये लोग ? क्या किसी को इस तरह से किसी के चरित्र हनन की छूट दी जा सकती है ? किसी की निजी तस्वीरों को विश्व भर में पहुँच वाले मंच पर साझा करने को कैसे उचित ठहराया जा सकता है ? सुना है कि जो तस्वीरें उनकी बता कर वायरल की जा रही है, उनमे से कुछ तो उनकी है भी नहीं । जो तस्वीर इस लेख में लगाई गयी है वह भी उनकी ही बता कर इंटरनेट पर लोड की हुई है, पता नहीं सच क्या है ?
क्या हक़ है किसी की निजी जिंदगी में दूसरों को ताक झाँक करने का ? आश्चर्य है कि ऐसी हरकतों के विरोध में कोई राजनीतिक पार्टी सामने नहीं आई है। बताया जाता है कि ये नेत्री भाजपा से सम्बंधित हैं तो भाजपा वाले तो ऐसा करेंगे नहीं, ऐसी उम्मीद करता हूँ। आम आदमी पार्टी ऐसी चरित्र हनन के कार्यों से कोसों दूर रहती है। फिर किस पार्टी से सम्बंधित हैं ऐसे लोग जो ऐसी हरकत कर रहे हैं ? अगर किसी ने राजनीतिक दल की सदस्यता ले ली तो क्या उसकी निजी जिंदगी नहीं रह जाती ? उसको हँसने, खेलने और मौज मनाने का कोई हक़ नहीं ? चाहे जो कोई हो इसके पीछे, इस तरह की हरकतें पूरी तरह से निंदनीय है। ऐसी हरकतों की जितनी भी निंदा की जाए, कम है।
सोमवार, 23 मई 2016
मुखिया बनने लायक भी नहीं नीतीश कुमार ?
22 मई, 2016
यही कह रहे हैं राष्ट्रीय जनता दल के सांसद और वरिष्ठ नेता तस्लीमुद्दीन जी। जबसे सरकार बनी है, उसके थोड़े ही दिनों बाद से नीतीश कुमार जी की कार्य कुशलता, क्षमता पर प्रश्नचिन्ह उठाने लगे हैं राजद के नेता। राज्य में कानून-व्यस्था की स्थिति ख़राब हो रही है। इसकी भी जिम्मेदारी, राजद के नेता नीतीश जी को ही दे रहे हैं। बात सही भी है, अगर ताली कैप्टन को तो गाली किसको ? जाहिर सी बात है कैप्टन को ही न ? लेकिन ये कहना कि नीतीश जी मुखिया के पद के लायक भी नहीं हैं, अतिशयोक्ति ही होगी। कुछ तो बात है कि नीतीश जी 10 साल से ज्यादा से प्रदेश के मुख्यमंत्री हैं।
अगर इतने ही निकम्मा और नकारा थे तो राष्ट्रीय जनता दल और लालूजी ने इनकी पार्टी के साथ गठबंधन क्यों किया ? पिछले 3 विधानसभा चुनाव नीतीश जी को ही मुख्यमंत्री का उम्मीदवार प्रोजेक्ट करके लड़ा जाता रहा है, बिहार में। इस बात को भी इतनी जल्दी राजद नेताओं को भूलना नहीं चाहिए कि बिहार विधानसभा चुनाव 2015 भी महागठबंधन ने नीतीश जी को ही मुख्यमंत्री का उम्मीदवार बना कर लड़ा था। बेशक राजद को विधानसभा चुनाव में सबसे ज्यादा सीट मिली हो लेकिन क्या इसमें नीतीश जी का रत्ती भर योगदान नहीं ?
अगर इतने ही निकम्मा और नकारा थे तो राष्ट्रीय जनता दल और लालूजी ने इनकी पार्टी के साथ गठबंधन क्यों किया ? पिछले 3 विधानसभा चुनाव नीतीश जी को ही मुख्यमंत्री का उम्मीदवार प्रोजेक्ट करके लड़ा जाता रहा है, बिहार में। इस बात को भी इतनी जल्दी राजद नेताओं को भूलना नहीं चाहिए कि बिहार विधानसभा चुनाव 2015 भी महागठबंधन ने नीतीश जी को ही मुख्यमंत्री का उम्मीदवार बना कर लड़ा था। बेशक राजद को विधानसभा चुनाव में सबसे ज्यादा सीट मिली हो लेकिन क्या इसमें नीतीश जी का रत्ती भर योगदान नहीं ?
राजद के वरिष्ठ नेता रघुवंश सिंह जी तो लगता है कि जैसे नीतीश जी का विरोध करने के लिए ही मंत्रीमंडल में शामिल नहीं हुए हों। जब बिहार में मंत्रीमंडल का गठन किया जा रहा था तो उस सूची में रघुवंश जी जैसे वरिष्ठ नेता का नाम न पाकर बहुत से लोग चौंक गए थे। लालू जी की तो संवैधानिक मजबूरी थी लेकिन रघुवंश जी की क्या समस्या थी जो उनको मंत्रीमंडल में शामिल नहीं किया गया , यह सवाल बहुतों के मन में था। लेकिन राजनीति के बुझक्कड़ इस बात तो समझने में तनिक भी देर नहीं लगाए थे कि दाल में बहुत काला है। ये सरकार ज्यादा दिनों तक साथ-साथ नहीं चल सकेगी। बगावत का झंडा माननीय रघुवंश जी ही बुलंद करेंगे। और जब तक समय पुरी तरह अनुकूल न हो जाय लालू जी उनके विरोध को नजरअंदाज करते रहेंगे। यही हो रहा है। नीतीश जी के खिलाफ राजद में विरोध के स्वर तेज होने शुरू हो गए हैं।
एक बात देखी जाए तो भाई, उनका विरोध ठीक भी है। अब सबसे बड़ी पार्टी हुई राजद और मुख्यमंत्री बने नीतीश जी , ये कैसे मंजूर होगा राजद और उसके नेता को ? अब गठबंधन के समय उनको गठबंधन का नेता और मुख्यमंत्री का उम्मीदवार तो मान लिया गया। उस समय राजद और कांग्रेस के पास इसके अलावा कोई दूसरा चारा भी नहीं था। लेकिन चुनाव के बाद जब राजद को सर्वाधिक सीट मिल गयी तो कायदे से नीतीश जी को ही इस पद से दावा छोड़कर बड़प्पन का परिचय देना चाहिए था। लेकिन ऐसा हुआ नहीं, बड़ी पार्टी का उप-मुख्यमंत्री और छोटी पार्टी का मुख्यमंत्री, ऐसा कब तक मंजूर होगा राजद को ?
एक बात देखी जाए तो भाई, उनका विरोध ठीक भी है। अब सबसे बड़ी पार्टी हुई राजद और मुख्यमंत्री बने नीतीश जी , ये कैसे मंजूर होगा राजद और उसके नेता को ? अब गठबंधन के समय उनको गठबंधन का नेता और मुख्यमंत्री का उम्मीदवार तो मान लिया गया। उस समय राजद और कांग्रेस के पास इसके अलावा कोई दूसरा चारा भी नहीं था। लेकिन चुनाव के बाद जब राजद को सर्वाधिक सीट मिल गयी तो कायदे से नीतीश जी को ही इस पद से दावा छोड़कर बड़प्पन का परिचय देना चाहिए था। लेकिन ऐसा हुआ नहीं, बड़ी पार्टी का उप-मुख्यमंत्री और छोटी पार्टी का मुख्यमंत्री, ऐसा कब तक मंजूर होगा राजद को ?
अब विरोध के स्वर उठ रहे हैं, लेकिन लालू जी कुछ बोल नहीं रहे हैं। लालू जी इसको कब तक नजर अंदाज करते हैं, ये देखने की बात होगी।
रविवार, 22 मई 2016
ये केजरीवाल किसी को बेरोजगार नहीं रहने देगा।
जब से केजरीवाल जी का पदार्पण भारतीय राजनीति में हुआ है, हर तरफ उन्ही की चर्चा हो रही है। कोई ऐसा दिन नहीं गुजरा जब उनकी बात नहीं चली हो। चाहे उनकी आलोचना हो या उनकी तारीफ, कोई भी उनको नजरअंदाज नहीं करता। उनके बारे में हर किसी को जानने की लालसा रहती है। मीडिया भी उनसे जुड़ी खबरों को बड़ी प्रमुखता देता है। टीवी चैनल पर तो ज्यादातर उन्ही के बारे में बहस चलती रहती है। आखिर मीडिया उन की खबर क्यों न दिखाए , इससे उनको टीआरपी जो मिलती है।
कुछ चैनल ऐसे भी हैं जो उनके बारे में ज्यादातर नकारात्मक ख़बरें ही दिखाते हैं, लेकिन दिखाते जरूर हैं। आखिर रोजी-रोटी का सवाल जो है। आजकल सोशल मीडिया की वजह से न्यूज़ पोर्टल्स की तो जैसे बाढ़ सी आ गयी है। ये केजरीवाल जी से जुड़ी खबरों को फ़ैलाने में सबसे आगे रहते हैं। न्यूज चाहे कैसी भी हो, हेडलाइन जरूर सनसनीखेज बना देते हैं, ये न्यूज़ पोर्टल वाले। अब केजरीवाल जी से जुडी खबर हो तो लोग पढ़ेंगे ही। सिर्फ समाचार जगत से जुड़े लोग ही नहीं और तबकों में भी केजरीवाल जी का जलवा बरक़रार है।
किसी चाय की दुकान पर ही केजरीवाल जी की चर्चा शुरू कर दीजिये, चार लोग सुनने और चले आते हैं। सुनते ही नहीं चर्चा में हिस्सा भी लेते हैं। चाय पर ही चर्चा शुरू हो जाती है, हो गयी न चाय वाले की बिक्री में वृद्धि। इनकी पार्टी को विरोधी लोग धरना-पार्टी भी बोलते हैं। अब जिधर धरना-रैली होगी, लोग तो भारी संख्या में जुटेंगे ही। इनकी पार्टी की रैली हो या धरना, या फिर जनसभा, भारी मात्रा में भीड़ उमड़ पड़ती है। अब लोग होंगे तो भूखे प्यासे तो रहेंगे नहीं, हो जाती है स्ट्रीट फ़ूड वालों की भी कमाई।
इनकी सरकार है दिल्ली में तो नए नए पद भी सृजित किये जा रहे हैं। स्कूलों में एस्टेट मैनेजर की नियुक्ति एक उदाहरण मात्र ही है। बसों में महिला सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए सिविल डिफेन्स के जवान तैनात किये जा रहे हैं। इसके लिए भारी संख्या में सिविल डिफेन्स के जवानों की नियुक्ति भी हुई है। अब मोहल्ला क्लिनिक को ही ले लीजिए, जितने भी मोहल्ला क्लिनिक बने हैं वहां डाक्टर और सहायक तो होंगे ही। सुना है 1000 मोहल्ला क्लिनिक बनाने का लक्ष्य है। इससे कितने लोगों को रोजगार मिलेगा आसानी से समझा जा सकता है ।
तभी तो लोग चाहे मजाक में ही कहें, कहते जरूर हैं कि ये केजरीवाल किसी को बेरोजगार नहीं रहने देगा।
शनिवार, 21 मई 2016
कांग्रेस में सर्जरी तो जरुरी है।
20 मई , 2016
आज कांग्रेस के वरिष्ठ नेता श्री दिग्गविजय सिंह जी ने वो बात कह ही दी जो कांग्रेस के बहुत से नेता कहना चाहते होंगे लेकिन कह नहीं पाये कभी। ठीक ही तो कहा दिग्गविजय जी ने। कांग्रेस की सर्जरी जरूरी है। पार्टी के नेता ही क्या, कोई भी निष्पक्ष विचारक भी यही कहेगा की पार्टी में आमूल -चूल परिवर्तन जरूरी है। आखिर कब तक राहुल जी की छवि निर्माण करती रहेगी कांग्रेस ? राहुल गांधी जी का क्या करिश्मा है देश की जनता पर, इस बात को कांग्रेस भली-भांति समझ रही है।
पार्टी की किसी भी सफलता का श्रेय राहुल जी को देने में कांग्रेसियों में होड़ सी लग जाती है, चाहे इसमें उनका रत्ती भर भी योगदान हो या न हो। वहीं जब कभी पार्टी की शर्मनाक हार होती है तो राहुल गांधी को इसकी जिम्मेदारी से अलग कर दिया जाता है, सबमें हार की जिम्मेदारी लेने की होड़ लग जाती है। राहुल गांधी जी के व्यक्तित्व में वो बात कहीं से भी नजर नहीं आती जो उनकी दादीजी और पिताजी में हुआ करती थी। लेकिन पार्टी के पास दूसरा कोई विकल्प भी नहीं है। राहुल जी की महिमा-मंडन के अलावा पार्टी कर भी क्या सकती है।
अब इस सर्जरी का क्या मतलब ? पार्टी में सारे फैसले तो गांधी परिवार ही लेती है। पार्टी का चेहरा भी गांधी परिवार यानि सोनिया जी और राहुल जी ही हैं। तो क्या इनको दरकिनार करने की बात हो रही है ? कांग्रेस पार्टी ऐसा सोच भी कैसे सकती है ? पार्टी में गांधी परिवार के समर्थकों की बड़ी संख्या है जो ऐसा कभी होने नहीं देगी। गांधी परिवार के अलावा पार्टी में कोई ऐसा चेहरा नहीं है जिसको सर्वसम्मति हासिल हो। अगर मान लें कि उसको पार्टी ने अपना नेता मान भी लिया तो क्या वो चेहरा कांग्रेस को अपेक्षित सफलता दिला पाएगा ? गांधी परिवार के त्याग और बलिदान के कारण ही तो पार्टी को वोट मिलते हैं या पार्टी वोट मांगती है।
अतीत में भी जब नरसिंह राव जी प्रधान मंत्री थे और उसके बाद भी कई सालों तक गांधी परिवार राजनीति से दूर रही थी। अपने दम पर कांग्रेसियों ने पार्टी को चलाने की बड़ी कोशिश की। इस दौरान नरसिंह राव जी और सीताराम केसरी जी कांग्रेस के अध्यक्ष थे। लेकिन पार्टी का दिनोदिन ह्रास ही होता चला गया। गांधी परिवार के कांग्रेस से दूर रहने का खामियाजा पार्टी को बहुत भुगतना पड़ा था उस समय। 1996 एवं 1997 में पार्टी को संयुक्त मोर्चा की सरकार को बाहर से समर्थन देना पड़ा था। कोई चारा न पाकर पार्टी के बड़े नेताओं ने 1998 में फिर से गांधी परिवार की शरण में जाना ही उचित समझा था। सोनिया गांधी जी को कांग्रेस अध्यक्ष बनाया गया। उसके बाद पार्टी के अच्छे दिन आने शुरू हुए और 2004 के चुनाव में चाहे गठबंधन की ही सही, पार्टी सरकार बनाने में कामयाब हुई और लगातार 10 साल तक सत्ता में रही।
अब पार्टी की फिर से हालत ख़राब है। केंद्र की सत्ता तो हाथ से गयी ही इनकी सरकार कई राज्यों में ही सिमट कर रह गयी है। हरियाणा , महाराष्ट्र, असम में पार्टी भाजपा के हाथों सत्ता गँवा बैठी है। दिल्ली में आम आदमी पार्टी के उदय के कारण 15 साल की हुकूमत से बाहर होना पड़ा पार्टी को। आम आदमी पार्टी के कारण ही पंजाब के चुनाव में भी इसकी दुर्दशा होती दिख रही है। अब पार्टी को सर्जरी की जरूरत तो वाकई में है, लेकिन इसकी प्रकृति क्या होगी इसको लेकर बहुत संशय है। कोई कह रहा है कि राहुल जी को अध्यक्ष बनाया जाय तो कोई प्रियंका जी को सक्रिय राजनीति में लाने की बात कर रहा है।
गुरुवार, 19 मई 2016
आखिर क्यों हुई राष्ट्रीय दलों की ऐसी दुर्दशा ?
5/19/2016 09:51:00 pm
कांग्रेस, भारतीय जनता पार्टी
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आज पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के नतीजे आ गए। परसों ही दिल्ली नगर निगम उपचुनाव के भी नतीजे आये थे। जिसमें आम आदमी पार्टी को 5, कांग्रेस को 4 और भारतीय जनता पार्टी को 3 सीटें मिली थी। दोनों राष्ट्रीय पार्टियां गद-गद हुए जा रही थी। फूले नहीं समा रही थी। कांग्रेस पार्टी के एक वरिष्ठ नेता ने तो इसका श्रेय सीधे-सीधे राहुल गांधी जी को दे दिया , हालाँकि वो खुद दिल्ली कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष हैं। लेकिन उन्होंने इसका श्रेय खुद नहीं लिया।
अब आज के नतीजे देख लीजिए। सिर्फ पुडुचेरी में ही कांग्रेस सम्मानजनक सीटें प्राप्त कर पाई है और सरकार भी बना सकती है। पुडुचेरी में 30 में से कुल 15 सीट मिली है इस पार्टी को। वर्ना असम में 126 में से सिर्फ 26, पश्चिम बंगाल में 294 में से सिर्फ 44, केरल में 140 में से सिर्फ 22, तमिलनाडु में 234 में से सिर्फ 8 सीटें इसकी झोली में आई है। आज किसी ने इसका श्रेय राहुल जी को नहीं दिया। मतलब कहीं भी जीत होती हो तो इसका श्रेय राहुल जी को, उनके परिश्रम को, उनकी नीतियों को और अगर हार हो तो सामूहिक जिम्मेदारी की बात करते हैं कांग्रेसी।
आज एक बात और याद आई। जब दिल्ली के विधानसभा चुनाव 2015 में कांग्रेस को 0 सीट मिली थी तो इसने कहा था कि हम आम आदमी पार्टी से सीखेंगे। लेकिन अभी तक क्या सीखा है इस पार्टी ने वो आसानी से समझा जा सकता है। दिन-प्रतिदिन सिमटता ही जा रहा है इसका जनाधार। जहाँ कहीं भी गलती से इसको जीत मिल जाती है तो राहुल जी बड़े ही गर्व से प्रधानमंत्री जी को सलाह देने लगते हैं। आजकल तो कांग्रेस की जीत का सीधा मतलब भाजपा की हार और कांग्रेस की हार मतलब भाजपा की जीत कही समझी जाती है।
जहाँ तक भाजपा की बात है तो इसको तो शुरू से ही हिन्दी भाषी प्रदेशों की पार्टी कहा जाता रहा है। लेकिन इस बार यह असम में सरकार बनाने के करीब है। इसको 125 में से 60 सीटें मिली है। ये लोग भी इसको मोदी जी के सफल नेतृत्व और 2 साल में किये गए अनगिनत विकास कार्य का फल बताते नहीं थक रहे हैं। लेकिन दूसरे प्रदेशों में इसका बड़ी मुश्किल से खाता खुलता दिख रहा है। केरल में 140 में से 1, पश्चिम बंगाल में 294 में से 3, तमिलनाडु में 234 में से 0 , पुडुचेरी में 30 में से 0 सीटें मिली है भारतीय जनता पार्टी को। पार्टी नेता इस बात का संतोष मना रहे होंगे कि चलो इन प्रदेशों में पार्टी का खाता तो खुला। लेकिन क्या सिर्फ खाता खुलने के लिए ही चुनाव लड़ रही थी भाजपा ? इतना जोरदार चुनाव प्रचार अभियान क्या सिर्फ इतनी ही सीटों के लिए चलाया जा रहा था।
सच तो यह है कि इन दोनों ही पार्टियों से जनता का मोह भंग हो चूका है और चाहे दिल्ली हो या बिहार या अन्य प्रदेश, जिधर भी जनता को तीसरा विकल्प मिलता है, जनता उसको दिल से चुन लेती है। हाँ, जहाँ कोई जोरदार तीसरा विकल्प नहीं मिलता है वहां इन्ही दोनों में से किसी एक को कुछ-कुछ अंतराल पर चुनना पड़ता है। इसका कारण बिलकुल साफ़ है। इन दोनों पार्टियों में कोई खास अंतर नहीं रह गया है अब। दोनों एक ही सिक्के के दो पहलु-से बन गए है अब। लेकिन अब जबकि इनकी हर चुनाव में दुर्गति-सी हो रही है तो क्या ये इससे कुछ सीखेंगे और बेकार की बयानबाजी को छोड़कर जनहित के कार्य करेंगे ? लगता तो नहीं है।
अब आज के नतीजे देख लीजिए। सिर्फ पुडुचेरी में ही कांग्रेस सम्मानजनक सीटें प्राप्त कर पाई है और सरकार भी बना सकती है। पुडुचेरी में 30 में से कुल 15 सीट मिली है इस पार्टी को। वर्ना असम में 126 में से सिर्फ 26, पश्चिम बंगाल में 294 में से सिर्फ 44, केरल में 140 में से सिर्फ 22, तमिलनाडु में 234 में से सिर्फ 8 सीटें इसकी झोली में आई है। आज किसी ने इसका श्रेय राहुल जी को नहीं दिया। मतलब कहीं भी जीत होती हो तो इसका श्रेय राहुल जी को, उनके परिश्रम को, उनकी नीतियों को और अगर हार हो तो सामूहिक जिम्मेदारी की बात करते हैं कांग्रेसी।
आज एक बात और याद आई। जब दिल्ली के विधानसभा चुनाव 2015 में कांग्रेस को 0 सीट मिली थी तो इसने कहा था कि हम आम आदमी पार्टी से सीखेंगे। लेकिन अभी तक क्या सीखा है इस पार्टी ने वो आसानी से समझा जा सकता है। दिन-प्रतिदिन सिमटता ही जा रहा है इसका जनाधार। जहाँ कहीं भी गलती से इसको जीत मिल जाती है तो राहुल जी बड़े ही गर्व से प्रधानमंत्री जी को सलाह देने लगते हैं। आजकल तो कांग्रेस की जीत का सीधा मतलब भाजपा की हार और कांग्रेस की हार मतलब भाजपा की जीत कही समझी जाती है।
जहाँ तक भाजपा की बात है तो इसको तो शुरू से ही हिन्दी भाषी प्रदेशों की पार्टी कहा जाता रहा है। लेकिन इस बार यह असम में सरकार बनाने के करीब है। इसको 125 में से 60 सीटें मिली है। ये लोग भी इसको मोदी जी के सफल नेतृत्व और 2 साल में किये गए अनगिनत विकास कार्य का फल बताते नहीं थक रहे हैं। लेकिन दूसरे प्रदेशों में इसका बड़ी मुश्किल से खाता खुलता दिख रहा है। केरल में 140 में से 1, पश्चिम बंगाल में 294 में से 3, तमिलनाडु में 234 में से 0 , पुडुचेरी में 30 में से 0 सीटें मिली है भारतीय जनता पार्टी को। पार्टी नेता इस बात का संतोष मना रहे होंगे कि चलो इन प्रदेशों में पार्टी का खाता तो खुला। लेकिन क्या सिर्फ खाता खुलने के लिए ही चुनाव लड़ रही थी भाजपा ? इतना जोरदार चुनाव प्रचार अभियान क्या सिर्फ इतनी ही सीटों के लिए चलाया जा रहा था।
सच तो यह है कि इन दोनों ही पार्टियों से जनता का मोह भंग हो चूका है और चाहे दिल्ली हो या बिहार या अन्य प्रदेश, जिधर भी जनता को तीसरा विकल्प मिलता है, जनता उसको दिल से चुन लेती है। हाँ, जहाँ कोई जोरदार तीसरा विकल्प नहीं मिलता है वहां इन्ही दोनों में से किसी एक को कुछ-कुछ अंतराल पर चुनना पड़ता है। इसका कारण बिलकुल साफ़ है। इन दोनों पार्टियों में कोई खास अंतर नहीं रह गया है अब। दोनों एक ही सिक्के के दो पहलु-से बन गए है अब। लेकिन अब जबकि इनकी हर चुनाव में दुर्गति-सी हो रही है तो क्या ये इससे कुछ सीखेंगे और बेकार की बयानबाजी को छोड़कर जनहित के कार्य करेंगे ? लगता तो नहीं है।
बुधवार, 18 मई 2016
राजनीति छोड़ दीजिए बाबाजी
18 मई, 2016
बाबा रामदेव जी आज किसी परिचय के मोहताज नहीं है। कितने ही सालों से वो योग के जरिए लोगों की काया को निरोग रखने में जुटे हैं। उसके बाद उन्होंने लोगों को आयुर्वेदिक दवाएं भी उपलब्ध करानी शुरू कर दी। और अब पिछले कुछ सालों से दैनिक उपयोग की वस्तुओं का भी निर्माण करने लगी है उनकी कंपनी। एक सच्चा भारतीय होने के नाते मैं बाबाजी का प्रबल समर्थक हूँ। जब उनके कारोबार को फलते फूलते देखता हूँ तो असीम आनंद की अनुभूति होती है मुझे। एक तो बाबा के सामानों में किसी प्रकार की मिलावट नहीं होती ( जैसा कि बाबा दावा करते हैं ) और दूसरे स्वदेशी कंपनी है। देश का पैसा देश में ही रहता है। अगर पैसे ही देने हैं तो अपने भाई को क्यों न दें जो दूसरे को दें।
आजकल बाबा घरेलु उपयोग की लगभग सारी ही चीजें बनाने लगे हैं। कुछ ही दिनों में इनका कारोबार FMCG क्षेत्र की बड़ी बड़ी कंपनियों से आगे निकल जायेगा ऐसा अख़बारों में लिखा देखा। एक अपने देश की कम्पनी की तरक्की देख सुनकर किस देशवासी का मन आह्लादित - प्रफ्फुलित नहीं होगा ? किसी भी कारोबार के फैलाव में सरकारी तंत्र का सहयोग न हो ऐसा हो नहीं सकता। हाँ, किसी सरकार का कम हो किसी का ज्यादा हो ऐसा तो हो सकता है। शुरू में तो बाबाजी के देश की सभी राजनीतिक पार्टियों से बड़े ही मधुर सम्बन्ध रहे। उनके आश्रम के उद्घाटन में बहुत से मुख्यमंत्रिओं ने शिरकत की थी। उसके बाद न जाने क्या हुआ कि बाबाजी केंद्र की यूपीए सरकार के बिलकुल ही खिलाफ हो गए। उसकी नीतियों की खुलकर एवं जोरदार खिलाफत करने लगे। बड़ी सारी जाँच भी हुई बाबाजी, उनके सहयोगी और उनकी कंपनी के खिलाफ। लेकिन कुछ खास नहीं निकला।
फिर बाबाजी 2014 के चुनाव में तो खुलकर भाजपा के समर्थन में बोलने लगे। काले धन की वापसी की उम्मीद उनको सिर्फ भाजपा से ही होने लगी। ऐसा लगने लगा कि बाबा कोई योगी, संत या कारोबारी ही नहीं बल्कि भाजपा के वरिष्ठ नेता हो गए हैं। सुना था कि जब देश पर संकट आता है तो साधु संत अपनी योग , तपस्या को छोड़कर देश की भलाई के काम में सहयोग करने लगते हैं। यही सोच कर बाबाजी का झुकाव राजनीति या फिर किसी खास राजनीतिक पार्टी के प्रति होने के बावजूद लोगों का मोह बाबा जी से भंग नहीं हुआ। लेकिन अब जबकि बाबाजी को लगने लगा है कि देश सुरक्षित हांथो में पहुँच गया है। सत्ता की बागडोर ऐसे लोगों के हाथ में हैं जिनपर बाबाजी को पूरा भरोसा है। या यूँ कहिये कि बाबाजी की मनपसंद सरकार बन गयी है।
तो अब बाबाजी को चाहिए कि राजनीतिक बयान देने बंद कर दें। यही देश की अर्थव्यवस्था और जनता के हित में होगा। संत या कलाकार किसी एक वर्ग के नहीं होते। ये दिलों पर राज करते हैं। इनको किसी खास वर्ग का होकर नहीं रह जाना चाहिए। अगर बाबा अभी भी भाजपा के नेता की तरह बर्ताव करते हैं तो दूसरी राजनीतिक दलों के समर्थक या मतदाता क्या करेंगे ? जाहिर सी बात है कि बाबाजी से दूरी बना लेंगे। हो सकता है कि बाबा के विरोध में वो लोग योग करना ही बंद कर दें। इससे उनकी काया निरोग रह पायेगी ? फिर वो उन्ही डाक्टर के पास जायेंगे और वही एलोपैथिक दवाई खाएंगे जिसका साइड इफेक्ट भी होता है। फिर बाबा की आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति के प्रचार की मुहिम का क्या होगा ?
हो सकता है ऐसे लोग बाबा के सामान भी खरीदना बंद कर दें , फिर इनके कारोबार में कमी आएगी न ? ये लोग बहुराष्ट्रीय कम्पनी का सामान खरीदने लगेंगे तो बाबा की स्वदेशी मुहिम का क्या होगा ? देश का पैसा देश में रह पाएगा ? इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए बाबाजी को चाहिए कि अब राजनीति या राजनीतिक पार्टियों से दूर रहे और लोगों को निरोग करने में , अपनी कम्पनी के विस्तार में ध्यान दें। बेशक अगले आम चुनाव में फिर से किसी के लिए प्रचार करने लगे। लेकिन अब जबकि बाबा राजनीति में इतनी गहराई में घुस चुके हैं , उनके लिए ऐसा कर पाना मुमकिन होगा क्या ?
आजकल बाबा घरेलु उपयोग की लगभग सारी ही चीजें बनाने लगे हैं। कुछ ही दिनों में इनका कारोबार FMCG क्षेत्र की बड़ी बड़ी कंपनियों से आगे निकल जायेगा ऐसा अख़बारों में लिखा देखा। एक अपने देश की कम्पनी की तरक्की देख सुनकर किस देशवासी का मन आह्लादित - प्रफ्फुलित नहीं होगा ? किसी भी कारोबार के फैलाव में सरकारी तंत्र का सहयोग न हो ऐसा हो नहीं सकता। हाँ, किसी सरकार का कम हो किसी का ज्यादा हो ऐसा तो हो सकता है। शुरू में तो बाबाजी के देश की सभी राजनीतिक पार्टियों से बड़े ही मधुर सम्बन्ध रहे। उनके आश्रम के उद्घाटन में बहुत से मुख्यमंत्रिओं ने शिरकत की थी। उसके बाद न जाने क्या हुआ कि बाबाजी केंद्र की यूपीए सरकार के बिलकुल ही खिलाफ हो गए। उसकी नीतियों की खुलकर एवं जोरदार खिलाफत करने लगे। बड़ी सारी जाँच भी हुई बाबाजी, उनके सहयोगी और उनकी कंपनी के खिलाफ। लेकिन कुछ खास नहीं निकला।
फिर बाबाजी 2014 के चुनाव में तो खुलकर भाजपा के समर्थन में बोलने लगे। काले धन की वापसी की उम्मीद उनको सिर्फ भाजपा से ही होने लगी। ऐसा लगने लगा कि बाबा कोई योगी, संत या कारोबारी ही नहीं बल्कि भाजपा के वरिष्ठ नेता हो गए हैं। सुना था कि जब देश पर संकट आता है तो साधु संत अपनी योग , तपस्या को छोड़कर देश की भलाई के काम में सहयोग करने लगते हैं। यही सोच कर बाबाजी का झुकाव राजनीति या फिर किसी खास राजनीतिक पार्टी के प्रति होने के बावजूद लोगों का मोह बाबा जी से भंग नहीं हुआ। लेकिन अब जबकि बाबाजी को लगने लगा है कि देश सुरक्षित हांथो में पहुँच गया है। सत्ता की बागडोर ऐसे लोगों के हाथ में हैं जिनपर बाबाजी को पूरा भरोसा है। या यूँ कहिये कि बाबाजी की मनपसंद सरकार बन गयी है।
तो अब बाबाजी को चाहिए कि राजनीतिक बयान देने बंद कर दें। यही देश की अर्थव्यवस्था और जनता के हित में होगा। संत या कलाकार किसी एक वर्ग के नहीं होते। ये दिलों पर राज करते हैं। इनको किसी खास वर्ग का होकर नहीं रह जाना चाहिए। अगर बाबा अभी भी भाजपा के नेता की तरह बर्ताव करते हैं तो दूसरी राजनीतिक दलों के समर्थक या मतदाता क्या करेंगे ? जाहिर सी बात है कि बाबाजी से दूरी बना लेंगे। हो सकता है कि बाबा के विरोध में वो लोग योग करना ही बंद कर दें। इससे उनकी काया निरोग रह पायेगी ? फिर वो उन्ही डाक्टर के पास जायेंगे और वही एलोपैथिक दवाई खाएंगे जिसका साइड इफेक्ट भी होता है। फिर बाबा की आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति के प्रचार की मुहिम का क्या होगा ?
हो सकता है ऐसे लोग बाबा के सामान भी खरीदना बंद कर दें , फिर इनके कारोबार में कमी आएगी न ? ये लोग बहुराष्ट्रीय कम्पनी का सामान खरीदने लगेंगे तो बाबा की स्वदेशी मुहिम का क्या होगा ? देश का पैसा देश में रह पाएगा ? इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए बाबाजी को चाहिए कि अब राजनीति या राजनीतिक पार्टियों से दूर रहे और लोगों को निरोग करने में , अपनी कम्पनी के विस्तार में ध्यान दें। बेशक अगले आम चुनाव में फिर से किसी के लिए प्रचार करने लगे। लेकिन अब जबकि बाबा राजनीति में इतनी गहराई में घुस चुके हैं , उनके लिए ऐसा कर पाना मुमकिन होगा क्या ?
मंगलवार, 17 मई 2016
पहले ट्रेलर दिखाओ केजरीवाल जी
17 मई, 2016
आज दिल्ली नगर निगम उप-चुनाव के नतीजे आ गए। कल ही मैंने कहा था कि नतीजे चौंकाने वाले हो सकते हैं। हर पार्टी की उम्मीद बंधी थी इस चुनाव से। सबको ज्यादा से ज्यादा सीटों की उम्मीद थी। लेकिन जनता जनार्दन को राजनीतिक पार्टियों की उम्मीद से क्या लेना देना ? वो तो उन्ही को सेवा करने का मौका देगी, जिसको अच्छा सेवक समझेगी। उम्मीद के अनुसार भाजपा की फिर से दुर्गति हो गयी। कहाँ 11 निगम पार्षद थे इसके और अब सिर्फ 3 सीटें ही मिली ।
इससे बुरा और क्या हो सकता है इस पार्टी के लिए। लोग तो मजाक भी करने लगे हैं कि भाजपा के नए निगम पार्षदों को अब ओड - इवेन का विरोध करने की कोई जरूरत नहीं है, ये तीनों एक ही ऑटो में यात्रा कर सकते हैं। क्या हो गया है इस पार्टी को ? लोकसभा चुनाव में 281 सीट क्या मिल गयी खुद को सातवें आसमान पर समझने लगे इसके नेता। वक्त बे-वक्त की बयानबाजी इस पार्टी की लोकसभा चुनाव में मिली साख को धीरे धीरे कम ही कर रही है। लेकिन इसके नेता इससे सबक लेने को तैयार नहीं हैं। नतीजा सामने है।
जहाँ तक कांग्रेस की बात की जाये तो अपनी इज्जत बचाने में कामयाब सी दिख रही है इस चुनाव में। 4 सीट लेकर दूसरे नंबर पर है। इसको 2 सीट का फायदा ही हुआ है। विधानसभा चुनाव 2015 में 0 सीट मिलने के बाद से दिल्ली कांग्रेस में जो निराशा घर कर गई थी, वह इस नतीजे से कम होती दिख रही है। उम्मीद है कि इस नतीजे से कार्यकर्ताओं और नेताओं में नई जोश और स्फूर्ति भरेगी। अगर इनके बड़े नेता भी चुनाव प्रचार में हिस्सा लेते तो बाकी सीटों पर हार का अंतर कुछ कम हो सकता था। लेकिन क्या करते, जब केजरीवाल जी ने खुद ही घोषणा कर दी कि वो इस उपचुनाव में प्रचार नहीं करेंगे तो भाजपा और कांग्रेस के बड़े नेताओं के रास्ते खुद ही बंद हो गए।
आम आदमी पार्टी को इस बार भी ट्रेलर दिखाने लायक ही सीटें मिली। वैसे 13 में से 5 सीट जीत कर पार्टी टॉप पर है। पार्टी के लिए खोने के लिए कुछ नहीं था। बस पाना ही पाना था। इस चुनाव परिणाम का गौर से विश्लेषण करें तो एक बात निकलकर सामने आती है कि जनता भाजपा और कांग्रेस से बुरी तरह त्रस्त है। आम आदमी पार्टी को एक मौका देना चाहती है। लेकिन विधानसभा चुनाव 2013 से ही दिल्ली की जनता पहले इस्तेमाल करो फिर विश्वास करो की नीति पर चलने लगी है।
विधानसभा चुनाव 2013 में भी "आप" को स्पष्ट जनादेश नहीं दिया था। कहा था कि अपना जुझारूपन दिखाओ। हो सके तो सरकार बनाओ और काम करके दिखाओ, फिर पूर्ण बहुमत देंगे। 49 दिनों की सरकार चली और जोरदार चली, जमकर चली। लोग इस ट्रेलर को देखकर खुश हो गए और पूरी फिल्म बनाने का आदेश दिया। फिल्म कैसी है, लोग देख ही रहे हैं।
इसी प्रकार से इस उपचुनाव में भी जनता ने कहा है कि केजरीवाल जी 5 सीट लेकर आपको हम सबसे आगे कर रहे हैं। अपना काम दिखाओ। ट्रेलर दिखाओ, अच्छी लगी तो पूरी फिल्म बनाने का मौका भी देंगे। अब अगले साल की फिल्म पूरी तरह से इस ट्रेलर पर ही टिकी है, इसमें तो कोई संदेह नहीं है। आम आदमी पार्टी के 5 निगम पार्षद अगर जमके काम करते हैं , जनता का दिल जीत लेते हैं तो निश्चित रूप से अगले साल के चुनाव में अप्रत्याशित सफलता मिलने से कोई रोक नहीं सकता है।
सोमवार, 16 मई 2016
भाजपा को फिर मुंह की खानी पड़ेगी ?
5/16/2016 06:02:00 am
कांग्रेस, भारतीय जनता पार्टी
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दिल्ली नगर निगम की 13 सीट पर कल ही उप-चुनाव हुए हैं। शायद ऐसा पहली बार ही हो रहा है कि तीनों ही मुख्य पार्टियों आम आदमी पार्टी, भारतीय राष्ट्रिय कांग्रेस एवं भारतीय जनता पार्टी के लिए यह चुनाव अहम है। जब बात करते हैं देश की सबसे पुरानी पार्टी की तो इसकी साख को तो लोकसभा चुनाव में ही बहुत बड़ा धक्का लगा था जब दिल्ली की 7 सात लोकसभा सीट में से इसको एक भी सीट नहीं मिली थी। पूरे देश में भी इसको सिर्फ 44 सीटों पर ही संतोष करके रह जाना पड़ा था। लेकिन दिल्ली के विधानसभा चुनाव 2015 ने तो इसकी बची-खुची साख भी मिटटी में मिला दी। देश की सबसे पुरानी पार्टी होने और सत्ता की सबसे अनुभवी खिलाडी होने का दम भरने वाली कांग्रेस 70 में से एक भी सीट नहीं ला पाई।
अब इस चुनाव में कांग्रेस ज्यादा से ज्यादा सीट लाने की कोशिश करेगी ताकि विधानसभा चुनाव के बाद जो प्रतिष्ठा में हानि हुई है उसकी थोड़ी तो भरपाई की जा सके। इसके लिए पार्टी ने यथासंभव कोशिश तो की ही होगी। लेकिन इसके चुनाव प्रचार के दौरान उस तरह की आक्रामकता कहीं से भी देखने को नहीं मिली जैसी की जीत के लिए प्रतिबद्ध पार्टी की होती है। सम्पूर्ण प्रचार प्रक्रिया के दौरान बस यही लगा कि पार्टी चुनाव लड़ने की रस्म ही निभा रही है। कहीं कहीं तो ऐसा लगता है कि पार्टी ने जान बूझ कर कमजोर उम्मीदवार उतार दिए हों। हार-जीत तो लगी रहती है लेकिन योद्धा पूरी ताकत से लड़े इसी में उसकी शान है। लगता है जैसे विधानसभा चुनाव परिणाम के बाद बुरी तरह से निराश कार्यकर्त्ता में कांग्रेस पार्टी नई स्फूर्ति लाने में बिलकुल असफल रही है।
जहाँ तक भाजपा का सवाल है, विधानसभा के 2013 वाले चुनाव में तो पार्टी पूरे दम ख़म और जोश के साथ उतरी थी लेकिन सत्ता की चौखट से बैरंग लौट आई थी। लेकिन 2015 के चुनाव में पार्टी की हालत ये हो गई थी कि मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के लिए पार्टी को सर्वमान्य नेता नहीं मिल पाया था। आनन-फानन में किरण बेदी जी को पार्टी में शामिल कराया गया और उम्मीदवार घोषित किया गया पार्टी की तरफ से मुख्यमंत्री पद का। जिसका कोई फायदा क्या मिलना उलटे पार्टी को नुकसान ही हो गया। कुल 70 सीट में से सिर्फ 3 सीट ही मिली। अब इस करारी हार को पार्टी पचा नहीं पा रही है और जब देखो तब केजरीवाल सरकार का विरोध करती रहती है। इस हार के सदमे से उबरने के लिए पार्टी को ज्यादा से ज्यादा सीट जीतने की जरूरत है। अपना पूरा जोर तो पार्टी लगा ही रही है। इसी चक्कर में वजीरपुर सीट पर पार्टी ने एक नई मिसाल भी कायम कर दी है।
मामला ये है कि वर्तमान प्रत्याशी पहले निगम पार्षद ही थे , फिर 2013 के विधानसभा चुनाव में इनको टिकट मिल गयी और संयोग से जीत भी गए। अब जीत गए तो पार्षद के पद से इस्तीफा दे दिए। फिर विधानसभा भंग हो गई तो पूर्व विधायक हो गए। उसके बाद पार्टी ने 2015 के चुनाव में इनको ही आजमाया लेकिन ये बुरी तरह हार गए। अब तो न विधायक रहे न ही पार्षद। इलाके में अभी इनको कोई पूर्व विधायक तो कोई पूर्व पार्षद कह कर सम्बोधित करता है। अब इस बार पार्टी को इनसे ज्यादा योग्य कोई और नेता नहीं मिला तो इनको ही उतार दिया मैदान में। कुछ लोग तो हंसी ठिठोली भी करने लगे हैं कि साहब अगला चुनाव मोहल्ला सभा का लड़ेंगे क्या ?
आम आदमी पार्टी के लिए भी ये चुनाव कम महत्वपूर्ण नहीं है। दरअसल, विधानसभा चुनाव 2015 में 70 में से 67 सीटें जीत कर पार्टी ने खुद ही अपने लिए सफलता का नया पैमाना बना लिया है। अब पार्टी के लिए 13 में से 13 सीट जीतने का मनोवैज्ञानिक दबाव है। लेकिन कहीं से भी यह दबाव नेता, उम्मीदवार या फिर कार्यकर्ताओं के चेहरे पर नहीं दीखता। पार्टी को अपने मंत्री, विधायक एवं मुख्यमंत्री द्वारा दिए गए विकास कार्य पर विश्वास है। इनका मानना है कि हमने थोड़े से ही समय में खूब काम किया है और जनता हमें सच्चा सेवक मानकर निगम में भी सेवा करने का मौका देगी।
अब जनता का क्या फैसला आता है यह तो कल सुबह जब नतीजे आएंगे तभी पता चलेगा। लेकिन इतना तो तय है कि कल की सुबह सबके लिए एक अप्रत्याशित नतीजा ही लेकर आएगी।
अब इस चुनाव में कांग्रेस ज्यादा से ज्यादा सीट लाने की कोशिश करेगी ताकि विधानसभा चुनाव के बाद जो प्रतिष्ठा में हानि हुई है उसकी थोड़ी तो भरपाई की जा सके। इसके लिए पार्टी ने यथासंभव कोशिश तो की ही होगी। लेकिन इसके चुनाव प्रचार के दौरान उस तरह की आक्रामकता कहीं से भी देखने को नहीं मिली जैसी की जीत के लिए प्रतिबद्ध पार्टी की होती है। सम्पूर्ण प्रचार प्रक्रिया के दौरान बस यही लगा कि पार्टी चुनाव लड़ने की रस्म ही निभा रही है। कहीं कहीं तो ऐसा लगता है कि पार्टी ने जान बूझ कर कमजोर उम्मीदवार उतार दिए हों। हार-जीत तो लगी रहती है लेकिन योद्धा पूरी ताकत से लड़े इसी में उसकी शान है। लगता है जैसे विधानसभा चुनाव परिणाम के बाद बुरी तरह से निराश कार्यकर्त्ता में कांग्रेस पार्टी नई स्फूर्ति लाने में बिलकुल असफल रही है।
जहाँ तक भाजपा का सवाल है, विधानसभा के 2013 वाले चुनाव में तो पार्टी पूरे दम ख़म और जोश के साथ उतरी थी लेकिन सत्ता की चौखट से बैरंग लौट आई थी। लेकिन 2015 के चुनाव में पार्टी की हालत ये हो गई थी कि मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के लिए पार्टी को सर्वमान्य नेता नहीं मिल पाया था। आनन-फानन में किरण बेदी जी को पार्टी में शामिल कराया गया और उम्मीदवार घोषित किया गया पार्टी की तरफ से मुख्यमंत्री पद का। जिसका कोई फायदा क्या मिलना उलटे पार्टी को नुकसान ही हो गया। कुल 70 सीट में से सिर्फ 3 सीट ही मिली। अब इस करारी हार को पार्टी पचा नहीं पा रही है और जब देखो तब केजरीवाल सरकार का विरोध करती रहती है। इस हार के सदमे से उबरने के लिए पार्टी को ज्यादा से ज्यादा सीट जीतने की जरूरत है। अपना पूरा जोर तो पार्टी लगा ही रही है। इसी चक्कर में वजीरपुर सीट पर पार्टी ने एक नई मिसाल भी कायम कर दी है।
मामला ये है कि वर्तमान प्रत्याशी पहले निगम पार्षद ही थे , फिर 2013 के विधानसभा चुनाव में इनको टिकट मिल गयी और संयोग से जीत भी गए। अब जीत गए तो पार्षद के पद से इस्तीफा दे दिए। फिर विधानसभा भंग हो गई तो पूर्व विधायक हो गए। उसके बाद पार्टी ने 2015 के चुनाव में इनको ही आजमाया लेकिन ये बुरी तरह हार गए। अब तो न विधायक रहे न ही पार्षद। इलाके में अभी इनको कोई पूर्व विधायक तो कोई पूर्व पार्षद कह कर सम्बोधित करता है। अब इस बार पार्टी को इनसे ज्यादा योग्य कोई और नेता नहीं मिला तो इनको ही उतार दिया मैदान में। कुछ लोग तो हंसी ठिठोली भी करने लगे हैं कि साहब अगला चुनाव मोहल्ला सभा का लड़ेंगे क्या ?
आम आदमी पार्टी के लिए भी ये चुनाव कम महत्वपूर्ण नहीं है। दरअसल, विधानसभा चुनाव 2015 में 70 में से 67 सीटें जीत कर पार्टी ने खुद ही अपने लिए सफलता का नया पैमाना बना लिया है। अब पार्टी के लिए 13 में से 13 सीट जीतने का मनोवैज्ञानिक दबाव है। लेकिन कहीं से भी यह दबाव नेता, उम्मीदवार या फिर कार्यकर्ताओं के चेहरे पर नहीं दीखता। पार्टी को अपने मंत्री, विधायक एवं मुख्यमंत्री द्वारा दिए गए विकास कार्य पर विश्वास है। इनका मानना है कि हमने थोड़े से ही समय में खूब काम किया है और जनता हमें सच्चा सेवक मानकर निगम में भी सेवा करने का मौका देगी।
अब जनता का क्या फैसला आता है यह तो कल सुबह जब नतीजे आएंगे तभी पता चलेगा। लेकिन इतना तो तय है कि कल की सुबह सबके लिए एक अप्रत्याशित नतीजा ही लेकर आएगी।
शुक्रवार, 13 मई 2016
गुरुवार, 12 मई 2016
डिग्री दिखा दीं ये मोदी जी।
ई मामला बहुत तूल पकड़ लिया है अब। केजरीवाल जी शुरू का कर दिए, अब त समूचा मुल्क ई बात के जानने के लिए बेचैन है कि हमरे साहब केतना पढ़े लिखे हैं। अरे भाई , जो समूचा मुल्क के तमाम पढ़े लिखे वोटर को अपनी बात में लाकर हिंदुस्तान का प्रधानमंत्री बन सकता है वो कम पढ़ा लिखा होगा क्या ? लेकिन केजरीवाल जी हैं कि मानिये नहीं रहे हैं। कह रहे हैं कि हम त डिग्री देखिये के रहेंगे। भाई , उ मुल्क के प्रधान मंत्री हैं , समझे। अपने आपको उ एक बार प्रधान सेवक कह दिए त आप लोग सेवके समझ लिए का जो आप कहे अउर उ झट से अपना डिग्री दिखा दे ? आप उनको नौकरी दीजिएगा का ? जो नौकरी उनको चाहिए था उ त मिलिए गया उनको न ?
भाई लेकिन ई जिद भी बहुते बड़ी है। ई कहते हैं कि हम डिग्री देख के रहब अउर उ देखाने के बिल्कुले मूड में नहीं लगते है। अब इसमें केजरीवाल जी के भी कोई जादा गलती नहीं है। सुने हैं कि उनके पास कवनो पदाधिकारी का खत आया रहा कि भाई आपके बारे में लोग जानकारी मांग रहे हैं, हम दे दे का। अब केजरीवाल साहब ठहरे बिल्कुले पारदर्शी वाले आदमी। झट से बोल दिहिन कि बता द हमरा बारे में जवन जवन जानकारी चाहीं लोग के , लेकिन साथे साथे मोदी जी के बारे में भी लोग के बताब। त भइया हिंये से मामला ख़राब हो गया। जहाँ जहाँ से मोदी जी पढ़े थे , उ सब जगह कहा गया कि भाई आप लोग मोदी जी की पढाई से जवन जवन जानकारी मांगी जावे , तनिको देरी नहीं लगाइए और जनता को बता दीजिये।
अब अपने जेटली जी अउर शाह जी डिग्री दिखाने में लगे हैं। चाहते हैं कि कोनो तरीके से ई मामला बंद हुई जावे , लेकिन अपने लोग हैं कि मानिये नहीं रहे हैं। कुछ न कुछ झोल निकलिए देते हैं। कभी कहते हैं कि जनम तिथि ठीक नहीं है , त कभी कहते हैं कि मार्कशीट अइसे काहे लिखा। कोई फॉन्ट का गड़बड़ी निकाल दे रहा है त कोई कहता है कि ओई समय कम्प्यूटरे नहीं आया था त अईसा डिग्री कइसे निकला। कोई कह रहा है कि डिग्री अउर मार्कशीट में नाम नहीं मैच हो रहा है। कोई कह रहा है कि बीए से पाहिले एमए कइसे कर लिए साहेब।
लेकिन एक बात है भाई, साहेब और भाजपा के सबसे बड़ा विरोधी दल , कांग्रेस और उसके नेता बिलकुल चुप है इस मामला पर। कुछो नहीं बोल रहे हैं इसके नेता। और त और दिग्गविजय सिंह भी चुप्पी साधे हुए हैं। भाई कांग्रेस के ई मजबूरी है कि अगर उ कुछ बोले आ उ बात साहब के बुरा लग गया त पूरा भाजपा, कांग्रेस के राहुल जी और सोनिया जी के डिग्री देखावे के मांग न करे लगे। त भाई, का जरूरी है "आ बैल मुझे मार" करे के। निपटे देओ ई दुनु "आप" अउर "भाजपा" के।
लेकिन एक बात है भाई, साहेब और भाजपा के सबसे बड़ा विरोधी दल , कांग्रेस और उसके नेता बिलकुल चुप है इस मामला पर। कुछो नहीं बोल रहे हैं इसके नेता। और त और दिग्गविजय सिंह भी चुप्पी साधे हुए हैं। भाई कांग्रेस के ई मजबूरी है कि अगर उ कुछ बोले आ उ बात साहब के बुरा लग गया त पूरा भाजपा, कांग्रेस के राहुल जी और सोनिया जी के डिग्री देखावे के मांग न करे लगे। त भाई, का जरूरी है "आ बैल मुझे मार" करे के। निपटे देओ ई दुनु "आप" अउर "भाजपा" के।
माने कि जेतना मुँह ओतने बात। भाई एतना रिसर्च हो रहा है साहेब के डिग्री पर , एतना लोग इस पर दिमाग लगा रहा है , साँचे में साहेब कह रहे थे कि हम बहुत रोजगार देंगे , लग गए न सब लोग काम पर ? हम त सोच रहे हैं कि "साहेब के डिग्री" टॉपिक पर पीएचडी कर लें।
और कितना गिरेगी मोदी सरकार ?
आज माननीय उच्च्तम न्यायालय द्वारा उत्तराखण्ड विधानसभा में हुए फ्लोर टेस्ट के नतीजों के एलान के साथ ही इस छोटे से प्रदेश में इसी साल होली के आस पास से चली आ रही राजनीतिक उथल - पुथल पर विराम लग गया है। लेकिन इस दौरान उत्तराखण्ड में जो राजनीतिक गतिविधियाँ हुई उससे मोदी सरकार की मंशा और भाजपा की सत्तालोलुपता का ही पता चलता है। आखिर गैर - भाजपा शासित प्रदेशों में सरकार को क्यों अव्यवस्थित कर रही है केंद्र की मोदी सरकार ? जब भाजपा विपक्ष में थी तो धारा 356 की मर्यादा बताती रहती थी। इनके नेताओं के बड़े - बड़े बयान आते थे कि इसका प्रयोग असाधारण स्थिति में ही होना चाहिए। लेकिन सत्ता में आते ही अपने ही प्रवचन भूल गए। ढूँढ़ने लगे राज्यों में राष्ट्रपति शासन लगाने का मौका।
साल की शुरुआत में ही अरुणाचल प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लगा। उसके बाद अब उत्तराखण्ड में। कहते हैं कि कुछ विधायक बागी हो गए थे। भाई , अगर बागी हो गए थे तो सरकार बहुमत में है कि नहीं इसके लिए सदन में बहुमत परीक्षण के लिए कहा जायेगा कि सीधे राष्ट्रपति शासन लगा दी जायेगी ? आखिर कौन सा संवैधानिक संकट हो गया था प्रदेश में ? दरअसल जबसे मोदी जी की सरकार केंद्र में बनी है, भाजपाई येन केन प्रकारेण सभी राज्यों में सत्ता में आना चाहती है। केंद्र में सरकार बनते ही राज्यों के राज्यपाल बदले गए, सिर्फ दिल्ली को छोड़कर। दिल्ली में भी आम आदमी पार्टी की केजरीवाल सरकार के काम काज में केंद्र की तरफ से किस तरह से हस्तक्षेप होते रहते हैं, ये किसी से छिपी हुई बात नहीं है। कितने सारे जनहित के बिल केंद्र से स्वीकृति के लिए रुके हुए हैं।
उत्तराखण्ड का मामला तो इतना बिगड़ चूका था कि माननीय उच्च न्यायालय की तरफ से केंद्र सरकार को डाँट भी पड़ी थी। न्यायालय के कारण ही भारत का लोकतंत्र सुरक्षित रह सका, वर्ना केंद्र की मोदी सरकार ने कोई कसर नहीं छोड़ी थी अपनी तरफ से लोकतंत्र की मर्यादा को तार-तार करने में। लेकिन सोचने वाली बात ये है कि हर काम के लिए न्यायालय की तरफ ही जाना होगा क्या ? इन राजनेताओं का कोई कर्तव्य नहीं है कि लोकतंत्र की मर्यादा बचाए रखे ? कांग्रेस इस बार भुक्तभोगी है तो मोदी सरकार की जम के आलोचना कर रही है। लेकिन जब केंद्र में इनकी सरकार थी तब इन्होने भी खूब 356 धारा लगाए थे गैर - कांग्रेस शासित प्रदेशों में।
दरअसल, भाजपा और कांग्रेस दोनों एक ही सिक्के के दो पहलु हैं। नैतिकता से इनका दूर दूर तक अब नाता नहीं रहा। मामला चाहे धारा 356 के दुरूपयोग का हो या फिर सीबीआई के दुरूपयोग का। इन दोनों में से जो भी केंद्र की सत्ता में रहता है, जम के दुरूपयोग करता है इनका। तभी तो जनता बड़ी बेसब्री से किसी तीसरे विकल्प का इंतजार कर रही है। बिहार और दिल्ली के विधानसभा चुनाव के नतीजों से तो यही पता चलता है।
साल की शुरुआत में ही अरुणाचल प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लगा। उसके बाद अब उत्तराखण्ड में। कहते हैं कि कुछ विधायक बागी हो गए थे। भाई , अगर बागी हो गए थे तो सरकार बहुमत में है कि नहीं इसके लिए सदन में बहुमत परीक्षण के लिए कहा जायेगा कि सीधे राष्ट्रपति शासन लगा दी जायेगी ? आखिर कौन सा संवैधानिक संकट हो गया था प्रदेश में ? दरअसल जबसे मोदी जी की सरकार केंद्र में बनी है, भाजपाई येन केन प्रकारेण सभी राज्यों में सत्ता में आना चाहती है। केंद्र में सरकार बनते ही राज्यों के राज्यपाल बदले गए, सिर्फ दिल्ली को छोड़कर। दिल्ली में भी आम आदमी पार्टी की केजरीवाल सरकार के काम काज में केंद्र की तरफ से किस तरह से हस्तक्षेप होते रहते हैं, ये किसी से छिपी हुई बात नहीं है। कितने सारे जनहित के बिल केंद्र से स्वीकृति के लिए रुके हुए हैं।
उत्तराखण्ड का मामला तो इतना बिगड़ चूका था कि माननीय उच्च न्यायालय की तरफ से केंद्र सरकार को डाँट भी पड़ी थी। न्यायालय के कारण ही भारत का लोकतंत्र सुरक्षित रह सका, वर्ना केंद्र की मोदी सरकार ने कोई कसर नहीं छोड़ी थी अपनी तरफ से लोकतंत्र की मर्यादा को तार-तार करने में। लेकिन सोचने वाली बात ये है कि हर काम के लिए न्यायालय की तरफ ही जाना होगा क्या ? इन राजनेताओं का कोई कर्तव्य नहीं है कि लोकतंत्र की मर्यादा बचाए रखे ? कांग्रेस इस बार भुक्तभोगी है तो मोदी सरकार की जम के आलोचना कर रही है। लेकिन जब केंद्र में इनकी सरकार थी तब इन्होने भी खूब 356 धारा लगाए थे गैर - कांग्रेस शासित प्रदेशों में।
दरअसल, भाजपा और कांग्रेस दोनों एक ही सिक्के के दो पहलु हैं। नैतिकता से इनका दूर दूर तक अब नाता नहीं रहा। मामला चाहे धारा 356 के दुरूपयोग का हो या फिर सीबीआई के दुरूपयोग का। इन दोनों में से जो भी केंद्र की सत्ता में रहता है, जम के दुरूपयोग करता है इनका। तभी तो जनता बड़ी बेसब्री से किसी तीसरे विकल्प का इंतजार कर रही है। बिहार और दिल्ली के विधानसभा चुनाव के नतीजों से तो यही पता चलता है।
सोमवार, 2 मई 2016
मोदी जी के 2 साल, काम कुछ खास नहीं, सिर्फ जुमले बाजी ?
2 मई, 2016
कुछ ही दिनों की बात है , मोदी जी को प्रधानमंत्री बने हुए 2 साल पूरे हो जायेंगे। कहा जाता है कि किसी भी नई सरकार के प्रदर्शन को आंकने के लिए जल्दीबाजी नहीं करनी चाहिए। कुछ समय देना चाहिए सरकार को अपने अनुरुप कार्य करने के लिए। वैसे तो आजकल सरकार बनने के दूसरे दिन से ही विपक्षी दल उसकी एक एक गतिविधि पर गहरी नजर रखने लगते हैं और एक एक फैसले की जमकर आलोचना करते हैं। लेकिन एक निष्पक्ष विचार रखने वाले को बहुत संयम से काम लेना चाहिए। 2 साल का समय कम नहीं होता एक सरकार के कुछ कर गुजरने के लिए बल्कि उसके कार्यकाल के आधे से कम का ही समय होता है। इसलिए मोदी सरकार के कामों की समीक्षा करने का समय आ गया है।
इस सरकार के बनने के पहले से ही मोदी जी के प्रति लोगों की उम्मीद बहुत बढ़ गयी थी। मोदी जी के भाषण की आक्रामक शैली, एक एक बात को गम्भीरता से रखने की कला, रक्षा नीति एवं विदेश नीति पर उनकी टिप्पणी सुनकर जनता को महसूस होता था कि वाकई में अगर देशवासियों के अच्छे दिन आएंगे तो मोदी जी ही लाएंगे। मनमोहन सरकार के 10 साल के कुशासन से लोग ऊब गए थे, नित नए घोटालों से परेशान हो गए थे। यूँ तो मनमोहन सिंह जी की सफ़ेद कुर्ते पर कभी भी भ्रष्टाचार का कोई काला छींटा नहीं पड़ा था उनके पूरे 10 साल के शासन के दौरान , लेकिन दूसरे लोगों के नाम घोटाले में आए थे। इससे उनकी छवि बेदाग होकर भी एक तरह से दागदार ही बनती जा रही थी।
जब से मोदी जी भाजपा के प्रधानमंत्री के उम्मीदवार घोषित हुए तब से वो नए नए अंदाज में जो मनमोहन जी और उनकी सरकार पर शब्द बाण चलाते थे , उससे जनता को मोदी जी पर बहुत भरोसा हो चला था। चाहे अच्छे दिन का नारा हो या फिर काले धन को वापस लाने वाली बात, पाकिस्तान को भरपूर सबक सिखाने वाली बात हो या चीन को औकात में रखने का संकल्प, कुल मिलाकर लोगों को मोदी जी की बातों पर खूब यकीन आने लगा था।
मोदी जी की छवि हिंदुस्तान के तारणहार की बन गयी थी। जनता ने भी 2014 के लोकसभा चुनाव में जमकर समर्थन दिया और मोदी जी प्रधानमंत्री बने। उसके बाद विपक्षी दलों ने तो थोड़े दिन बाद से ही इनकी आलोचना शुरू कर दी। लेकिन भोली भाली जनता सब्र बांधे रही। लेकिन धीरे-धीरे जनता की उम्मीद टूटने लगी और दिल्ली तथा बिहार के विधानसभा चुनाव में जनता ने भाजपा को करारी हार दी। महाराष्ट्र और हरियाणा में भाजपा सरकार बनाने में सफल हुई लेकिन वहां की जनता के पास दूसरा कोई विकल्प नहीं था।
मोदी जी की छवि हिंदुस्तान के तारणहार की बन गयी थी। जनता ने भी 2014 के लोकसभा चुनाव में जमकर समर्थन दिया और मोदी जी प्रधानमंत्री बने। उसके बाद विपक्षी दलों ने तो थोड़े दिन बाद से ही इनकी आलोचना शुरू कर दी। लेकिन भोली भाली जनता सब्र बांधे रही। लेकिन धीरे-धीरे जनता की उम्मीद टूटने लगी और दिल्ली तथा बिहार के विधानसभा चुनाव में जनता ने भाजपा को करारी हार दी। महाराष्ट्र और हरियाणा में भाजपा सरकार बनाने में सफल हुई लेकिन वहां की जनता के पास दूसरा कोई विकल्प नहीं था।
इन 2 सालों में मोदी सरकार की उपलब्धि के नाम पर गिनाने को कुछ भी नहीं रहा। कालाधन के मामले में बेशक ये लोग विपक्ष में रहते हुए सख्त कदम उठाने की बात करते रहे लेकिन सत्ता में आने के बाद ये भी पुरानी सरकार की भाषा ही बोलने लगे। डॉलर की कीमत में भी कोई कमी आती नहीं दिखी। वैश्विक बाजार में कच्चे तेल की कीमत में अभूतपूर्व कमी आने के बावजूद डीजल पेट्रोल की कीमत में उस अनुपात में कमी नहीं हुई। महंगाई पर भी लगाम लगाने में पूरी तरह असफल रही है यह सरकार। बुलेट ट्रेन की बात ही की जाती रही है अभी तक। वैसे मेरी समझ यह है कि बुलेट ट्रेन पर इतना पैसा खर्च करने के बजाय वर्तमान ट्रेनों की ही स्पीड थोड़ी बढ़ा दी जाये और ट्रेनों के लेट होने की परम्परा सी जो बन गई है उसको ख़त्म करने पर जोर दिया जाए।
श्री मनोहर पर्रिकर और श्री सुरेश प्रभु सरीखे ईमानदार एवं कर्मठ मंत्री के होते हुए भी सम्बंधित मंत्रालय में कुछ खास उल्लेखनीय कार्य नहीं हो पाया है इन 2 सालों में। हाँ, कुछ मंत्रियों की बेतुकी बयानबाजी ने सरकार की छवि को बिगाड़ने का काम जरूर किया है। प्रधानमंत्री श्री मोदी जी ने भी इन 2 सालों में विदेश की यात्राएं खूब की हैं। लेकिन इसके सकारात्मक परिणाम दिखने अभी तक शुरू नहीं हुए है।
जब विपक्ष में थे तो पाकिस्तान को सबक सिखाने की बात करते थे, लेकिन जब से सत्ता में आये हैं, पाकिस्तान को करारा जवाब तो दूर, मनमोहन सरकार की तरह कड़ी चेतावनी भी नहीं दे पाए हैं। चीन के मामले में भी वही हाल है। जब विपक्ष में थे तो किसी राज्य में राष्ट्रपति शासन लगने पर धारा 356 के दुरूपयोग की दुहाई देते थे। लेकिन सत्ता में आने पर राष्ट्रपति शासन लगाने में नहीं चूकते हैं। उत्तराखंड का मामला अभी ताजा ताजा है। दिल्ली की केजरीवाल सरकार से केंद्र सरकार की तनातनी जगजाहिर है। दिल्ली सरकार के कई बिल केंद्र से स्वीकृति मिलने की प्रतीक्षा में है।
कुल मिलाकर सरकार के इस 2 साल के कार्यकाल को उतना सफल तो नहीं ही कहा जा सकता है जितना चुनाव के दौरान दावे और वादे किए जा रहे थे। जनता का भी मोह भंग होना शुरू हो गया है। वैसे तो लोकसभा चुनाव में तो अभी 3 साल बाकी है लेकिन जिस तरह से सरकार काम कर रही है उसको देखकर लगता नहीं है कि मोदी जी अपने सारे वादे को पूरा करने में सफल होंगे और बहुत मुमकिन है कि कांग्रेस और भाजपा दोनों से निराश जनता को 2019 में फिर से किसी तीसरे विकल्प को मौका देना पड़ेगा।
जब विपक्ष में थे तो पाकिस्तान को सबक सिखाने की बात करते थे, लेकिन जब से सत्ता में आये हैं, पाकिस्तान को करारा जवाब तो दूर, मनमोहन सरकार की तरह कड़ी चेतावनी भी नहीं दे पाए हैं। चीन के मामले में भी वही हाल है। जब विपक्ष में थे तो किसी राज्य में राष्ट्रपति शासन लगने पर धारा 356 के दुरूपयोग की दुहाई देते थे। लेकिन सत्ता में आने पर राष्ट्रपति शासन लगाने में नहीं चूकते हैं। उत्तराखंड का मामला अभी ताजा ताजा है। दिल्ली की केजरीवाल सरकार से केंद्र सरकार की तनातनी जगजाहिर है। दिल्ली सरकार के कई बिल केंद्र से स्वीकृति मिलने की प्रतीक्षा में है।
कुल मिलाकर सरकार के इस 2 साल के कार्यकाल को उतना सफल तो नहीं ही कहा जा सकता है जितना चुनाव के दौरान दावे और वादे किए जा रहे थे। जनता का भी मोह भंग होना शुरू हो गया है। वैसे तो लोकसभा चुनाव में तो अभी 3 साल बाकी है लेकिन जिस तरह से सरकार काम कर रही है उसको देखकर लगता नहीं है कि मोदी जी अपने सारे वादे को पूरा करने में सफल होंगे और बहुत मुमकिन है कि कांग्रेस और भाजपा दोनों से निराश जनता को 2019 में फिर से किसी तीसरे विकल्प को मौका देना पड़ेगा।
रविवार, 1 मई 2016
तुम तो हो, तुम मेरे नहीं हो।
30 अप्रैल, 2016
इनमें तुम्हारे लिए।
कभी तो झाँका होता
मेरे दिल में ,
मेरे दिल में ,
तब तुम समझते कि
ये धड़कने तुम्हारा ही नाम लेती हैं।
चढ़ती सांसों पर तुम्हारा नाम लिखा है ,
ढलतीं सांसें तुम्हे याद करती हैं।
ये झुकती पलकें
तुम्हें आँखों में बसाकर रखती हैं ,
ये पलकें जब भी उठती हैं,
तुम्हें ही ढूंढती है।
भीड़ में भी तुम हो,
और तुम्ही हो मेरी तन्हाई में।
तुम मेरी ग़ज़ल में हो,
और तुम्ही मेरी रुबाई में।
लेकिन तुमको कहाँ खबर मेरी ?
कितना बेचैन रहता हूँ
मैं तुम्हारे लिए,
कितनी तड़प होती है
मेरे दिल में तुम्हारे लिए।
कभी तो समझा होता
मेरी मुस्कान के पीछे छिपे दर्द को।
मगर, अफ़सोस तुम भी
दूसरों की तरह निकले।
मुझे आज भी याद है
तुम्हारा मासूम सा
मुस्कुराता चेहरा,
वो नीली आँखें
और उन आँखों में बसे
अनगिनत ख्वाब
याद है तुम्हारी वो
खिलखिलाती हँसी ,
और मोतियों जैसे दांत भी,
गाल पे पड़ने वाले
डिम्पल भी याद है
जो तुम्हारी खूबसूरती में
आठ चाँद लगा देता था।
लेकिन अब तो सिर्फ
तुम्हारी बातें ही हैं ,
तुम्हारी यादें ही हैं ,
तुम तो हो,
तुम मेरे नहीं हो।