23 नवम्बर, 2013
अटल जी के बोलने की कला के उनके समर्थक क्या विरोधी भी कायल थे। आम जनता भी इससे अछूती नहीं है। कई बार तो संसद में अटल जी के भाषण के बाद मत विभाजन में भी असर पर जाता था। विरोधी दल के भी कुछ सांसद आत्मा की आवाज पर अटल जी के प्रस्ताव के पक्ष में मतदान कर देते थे।
लेकिन , जबसे उन्होंने अस्वस्थता के कारण सभाओं और संसद में बोलना बंद कर दिया है , लगता था कि एक कभी न ख़त्म होने वाला खालीपन सा आ गया है। यूँ तो आडवाणी जी भी अच्छे वक्ता हैं, उनके भी जनसभा और लोकसभा के भाषण सुने, लेकिन अटलजी की तुलना में ये कहीं नहीं ठहरते। शरद यादव जी भी पुराने एवं अनुभवी नेता हैं। उनके भाषण भी सुने लेकिन उनकी बात जहाँ से शुरू होती है वहीं रह जाती है। उनके हर नए भाषण में पुरानी बातें ही रहती हैं।
जबसे मोदी जी का भाषण सुना है , लगता है कि अटल जी का वह रूप फिर से सामने आ गया है।
उसी तरह से हाथ घुमाना, वैसी ही भाषण शैली, जनता के मिजाज को भाँप कर वैसी ही बातें करना, शांतचित्त से मीठी मीठी बातें करते करते अचानक ही आक्रामक होकर विरोधियों पर कठोर शब्दों से प्रहार करना और प्रहार भी ऐसा कि विरोधी तिलमिला और अकबका उठे। शायद मोदीजी ने अटलजी के भाषण करने की कला को खूब अच्छी तरह से अपने व्यक्तित्व में समाहित कर लिया है।
मोदी जी में जहाँ आडवाणी जी जैसी दृढ़ता है वहीँ वक्त पड़ने पर वाजपेयी जी जैसी मुलायमियत भी है। निश्चित रूप से मौका मिलने पर देश को एक कुशल नेतृत्व देने कि क्षमता है, मोदी जी में।
मोदी जी में जहाँ आडवाणी जी जैसी दृढ़ता है वहीँ वक्त पड़ने पर वाजपेयी जी जैसी मुलायमियत भी है। निश्चित रूप से मौका मिलने पर देश को एक कुशल नेतृत्व देने कि क्षमता है, मोदी जी में।
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